राजस्थान : किस टीपू का डर

Last Updated 25 Oct 2017 04:38:17 AM IST

अब जब राजस्थान सरकार नेताओं/मुख्यमंत्री और मंत्रियों और नौकरशाहों के खिलाफ पूर्व अनुमति से भ्रष्टाचार संबंधी मामला दर्ज करने और इस बारे में किसी तरह की खबर देने को गैरकानूनी बनाने संबंधी अपना विधेयक लगभग रोक लिया है.


राजस्थान : किस टीपू का डर

और उस पर ‘विचार-विमर्श शुरू’ करा दिया है तो उम्मीद करनी चाहिए कि यह मामला यहीं रुक जाएगा और सरकार को ‘सद्बुद्धि’ आ जाएगी. सद्बुद्धि की बात इसलिए जरूरी है कि पहले यही काम वह एक अध्यादेश से करा रही थी और उसके प्रावधानों को नरम बनाने की जगह सख्त बनाने वाला विधेयक लेकर आ गई थी.

विधेयक के प्रावधान देखने के बाद विपक्ष, मीडिया के लोगों और नागरिक अधिकारों के पक्षधर ही नहीं, खुद भाजपा के अंदर से भी विरोध शुरू हुआ था. पर अपनी जिद के लिए विख्यात वसुंधरा राजे ने इस मामले में आगे बढ़ने की ही ठानी और विधेयक को विधान सभा में पेश भी करा दिया गया. सारा विपक्ष ही नहीं घनश्याम तिवाडी और नरपत सिन्ह रिजवी जैसे वरिष्ठ भाजपा नेता भी खुलकर विरोध में आए. कई जनहित याचिकाएं दाखिल हो गई. एडिटर्स गिल्ड ने खुलकर विरोध किया तब केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद इसके पक्ष में बोले. लगा कि भ्रष्टाचारियों को बचाने वाला यह कानून पास ही हो जाएगा और आवाज उठाने वाले ही, जिसमें मीडिया भी शामिल है, निशाने पर होंगे. लेकिन लगता है बढ़ते विरोध के चलते उसी शाम से मंत्रियों और अधिकारियों की बैठक शुरू हुई और तब जाकर मामला टलने की तरफ बढ़ा. लेकिन अभी भी इस खतरे के टल जाने का भरोसा नहीं किया जा सकता.

वसुंधरा सरकार जब अपने अध्यादेश को कानूनी रूप देने और ज्यादा सख्त प्रावधानों की तरफ बढ़ी तभी राहुल गांधी ने जो ट्वीट किया उसका मतलब बहुत कम लोगों को समझ आया होगा. उन्होंने लिखा कि यह 2017 है, 1817 नहीं. दरअसल, वे गवर्नर जनरल र्रिचड वेलेस्ली द्वारा 1799 और फिर 1818 में प्रेस की आजादी पर शिंकजा कसने के प्रयासों के हवाले से कई बातों का संकेत कर रहे थे. वेलेस्ली तब नया-नया आए प्रेस से परेशान थे और औपनिवेशिक शासन का प्रमुख होने के चलते अपने हाथ में ज्यादा से ज्यादा ताकत चाहते थे.

ये दोनों कानूनी प्रावधान उसी के लिए किए गए थे कि कोई अपनी मर्जी से कुछ छाप कर सरकार को संकट में न डाले और ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन पर कोई आंच न आए. प्रेस पर अंकुश लगाने का प्रयास तभी शुरू हुआ था और अभी तक शासक बिरादरी इसकी कोशिश से बाज नहीं आती. अंग्रेजी हुकूमत के वक्त और तब के बने कई कानूनों के चलते काफी बाद तक प्रेस पर कई तरह की बन्दिशें रही हैं. पर उसके बाद लोकतंत्र और न्यायपालिका के मजबूत होते जाने से काफी फर्क पड़ा है. पर शासक जमात बाज नहीं आता. कितने प्रयास आजाद भारत में और इसी राजस्थान सरकार ने भी किए हैं, उसकी गिनती बहुत लंबी है. पर जिस तरह उनकी अब तक की कोशिशें सफल नहीं हुई हैं, उम्मीद करनी चाहिए कि आगे भी नहीं होंगी.

राजस्थान सरकार का तर्क है कि भ्रष्टाचार की शिकायतों की बाढ़ आने से सरकार के कामकाज में बाधा आ रही है. इसलिए राजनेताओं, मंत्रियों और अधिकारियों के खिलाफ शिकायत भी बिना पूर्व अनुमति के दर्ज नहीं होनी चाहिए और यह खबर भी नहीं छपनी चाहिए. जो कोई ये दोनों काम करेगा, अर्थात मामला उठाएगा और मीडिया में देगा; उसे दो साल तक की सजा झेलनी होगी. और मामले का पता होने पर अनुमति छह माह के अंदर देनी होगी अर्थात जिसे सरकार भ्रष्ट काम मान लेगी उसके खिलाफ सिर्फ  प्राथमिकी दर्ज करने का काम छह महीने तक टला रहेगा. अब सरकार को भ्रष्टाचार के असली/नकली मामले बढ़ने की चिंता होनी चाहिए या भ्रष्टाचार बढ़ने की इस सवाल को भी उठाया जाना चाहिए. पर उससे ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि क्या फर्जी मामले उठाने से सरकार का काम सचमुच प्रभावित हुआ है. जो आंकड़े सरकार खुद दे रही है उसके हिसाब से 2013 से 2017 के बीच जो लाखों मामले उठे उसमें से 73 फीसद साबित नहीं किए जा सके.

सो पहला सवाल तो यही होगा कि क्या मामले साबित करना इतना आसान है कि किसी को भ्रष्टाचार दिखे और वह कनविक्शन तक पहुंच ही जाए. और अगर लाखों मामले में से सरकार को खुद ही 27 फीसद मामले सही लगते हैं तो क्या यह कोई कम बड़ी चीज है जिसे न सिर्फ  नजरअंदाज किया जाए बल्कि मामले उठाने वालों को ही दंडित किया जाए. मुल्क भ्रष्टाचार से कितना परेशान है और यही भाजपा इस मुद्दे को पिछली सरकार के समय कैसा उठा रही थी, वह किसी की स्मृति से गायब नहीं हुआ है. दूसरे राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार के मुकाबले वसुंधरा सरकार, उसके मंत्रियों/विधायकों और अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के ज्यादा मामले सामने आए हैं. यह भी हुआ है कि कई मामले रफा-दफा भी किए गए हैं. सो कायदे से उस भ्रष्टाचार को पकड़ने और कम करने का कानून बनना चाहिए, सख्ती होनी चाहिए. पर हो रहा उल्टा है. अभी जो कदम सरकार उठा रही थी उससे भ्रष्टाचारियों का संरक्षण ही होगा, उनको पकड़ना मुश्किल होगा.

बिल पर विचार के बहाने अभी उसे ठंडे बस्ते में डालने के पीछे यही मानस काम कर रहा होगा. पर अगर मंशा अपनी चलाने और भ्रष्टाचार पर परदा डालना हो तो इस मसले को दबा हुआ नहीं मानना चाहिए. मगर ज्यादा बड़ी चीज अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने की तैयारी है. सिर्फ अपराध कानून की दफा 190 और 156 को बदलने की तैयारी नहीं है. 1997 के विनीत नारायण केस और 2004 के सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को भी पलटने की तैयारी थी, जिससे अधिकारियों के सीनियर-जूनियर का भेद खत्म हो जाने और खबरों के प्रकाशन की आजादी पर भी सवाल उठने वाला है. और यह काम किसी गलतफहमी या भ्रम से हो, यह बहाना भी नहीं रखा गया है. खबर छापने या प्रसारित करने पर बाजाप्ता दो साल की सजा का प्रावधान खौफ पैदा करने के लिए ही रखा गया है. और वेलेस्ली को तो अपनी गुलाम प्रजा और सबसे बढ़कर टीपू सुल्तान की फौज के मूवमेंट की खबर छपने से लोगों में शासन के खिलाफ उत्साह बढ़ने और अपनी सत्ता जाने का डर था, वसुंधरा सरकार ने तो वैसा कोई कारण भी नहीं दिया.

अरविन्द मोहन


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment