मेट्रो किराया : विकल्पों पर करें विचार
मेट्रो रेल के किरायों खास तौर से देश की राजधानी दिल्ली में अरसे तक कोई बढ़ोतरी नहीं हुई. सरकारें डरती रहीं कि किराये बढ़ाए तो जनता खिलाफ हो जाएगी. वोट मिलने में मुश्किल होगी.
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इधर किराये वृद्धि का सिलसिला शुरू हुआ तो ऐसा कि पांच महीने में दूसरी बार यात्रियों पर अच्छा-खासा बोझ डालने की तैयारी हो चुकी है. पिछली बार 10 मई को किराया बढ़ाया गया था, जिसके बाद जून में यात्रियों की रोजाना की संख्या में 1.66 लाख की कमी दर्ज की गई. अब 10 अक्टूबर से अधिकतम किराया 60 रुपये किया जाना तय है.
मेट्रो रेल का किराया बढ़े या नहीं, इसके लिए कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एमएल मेहता की अध्यक्षता में पैनल बनाया था. इसके संदर्भ में असल में केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने फेयर फिक्सेशन कमेटी (एफएफसी) का गठन किया था, जिसने मेट्रो किराया न्यूनतम 15 रुपये से अधिकतम 70 रुपये तक करने का प्रस्ताव किया था. इन सिफारिशों को मंजूर किया जाए या नहीं, इस पैनल को तय करना था. पहले भी कम से कम 5-6 बार किराये में बढ़ोतरी के लिए कमेटियों के गठन की सिफारिशें की गई पर हर बार चुनावी राजनीति के दबावों के तहत कैबिनेट ने ऐसे प्रस्ताव ठुकरा दिए थे. लेकिन फिलहाल दिल्ली के सामने चुनावों का कोई संकट नहीं है. इसलिए किराया धड़ाधड़ बढ़ने लगा है. पर क्या मेट्रो जैसे पर्यावरण-मित्र सार्वजनिक परिवहन साधन का किराया बढ़ना चाहिए? या फिर इसके किराये में और कमी लाकर मध्यम और गरीब तबके को इसके इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए?
दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन ने मेट्रो किराया बढ़ाने की मांग कई बार की है. उसका तर्क है कि स्थापना पर हुए खर्च की भरपाई और बढ़ते परिचालन खर्च के मद्देनजर ऐसा करना जरूरी हो गया है. एक आंकड़े के मुताबिक वर्ष 2015-16 के बीच एक साल में दिल्ली मेट्रो को 275 करोड़ रु पये का नुकसान हुआ था. रोजाना 27 से 30 लाख यात्रियों को ढोने वाली दिल्ली मेट्रो का घाटा आश्चर्यजनक ही है, ऐसे में व्यावसायिक नजरिया मेट्रो किराये में बढ़ोतरी का ही पक्ष लेता है.
कहा जा सकता है कि कोई संगठन कुशलता के साथ कार्य संचालन कर रहा हो तो उसे पैसे की ऐसी तंगी नहीं आनी देनी चाहिए कि उसका संचालन ठप हो जाने की नौबत बन जाए. मेट्रोमैन ई श्रीधरन का कहना है कि मेट्रो का कुशल संचालन करना है, तो उसे प्राइवेट कंपनियों के हवाले करना होगा जो किराये तय करने का हक अपने हाथ में रखें. उनके अनुसार, मेट्रो का पीपीपी मॉडल दुनिया में कहीं भी सफल नहीं हुआ है. कोई भी प्राइवेट कंपनी इसमें पैसा नहीं लगाना चाहेगी क्योंकि इसमें मुनाफे की गुंजाइश नहीं है. निजी कंपनियां अपने निवेश पर 12-15 फीसदी का रिटर्न चाहती हैं, लेकिन आज तक किसी मेट्रो प्रोजेक्ट ने 2-3 प्रतिशत से ज्यादा रिटर्न नहीं दिया. इसमें कोई शक नहीं कि मेट्रो रेल भारत में सियासी झुनझुना बन गई है. दिल्ली में इसकी सफलता को देखकर लोगों ने इसे हर शहर की परिवहन व्यवस्था का सर्वोत्तम विकल्प मान लिया. राजनेताओं ने इसे जनता को खुश करने का एक बड़ा जरिया समझ आनन-फानन में कई राज्यों में इसके प्रोजेक्ट शुरू करवा दिए.
बेशक, दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में मेट्रो रेल की वजह से निवासियों का जीवन आरामदेह हुआ है. लेकिन ट्रॉम, बस आदि के मुकाबले चूंकि यह बेहद महंगा प्रोजेक्ट है, इसलिए हर बड़े शहर में मेट्रो रेल ट्रैक बिछा पाना हरेक राज्य के बूते की बात नहीं है. आज की तारीख में मेट्रो के लिए ट्रैक बिछाने की लागत 267 करोड़ रुपये प्रति किमी. को पार कर चुकी है. ऐसे में सरकार अपने अन्य खचरे में कटौती करके मेट्रो पर अपना खजाना लुटाने पर आमादा नहीं सकती है.
सवाल है कि मेट्रो स्थापना और संचालन का खर्च जुटाने के लिए किराया बढ़ाना ही एकमात्र विकल्प है? सवाल मेट्रो के बढ़ते खर्च की भरपाई का है तो एक संतुलित नीति बनाई जा सकती है. किराये में मामूली (एक-दो प्रतिशत से पांच फीसदी तक) वृद्धि करने के साथ-साथ खर्च साधने के लिए उसे सब्सिडी दी जा सकती है. पर्यावरण और जनिहत में कई देश ऐसा करते हैं. अमेरिका जैसे देशों में पर्यावरण हितैषी चीजों को सब्सिडी देकर जनता को उसके इस्तेमाल के लिए प्रेरित किया जाता है. मिसाल के तौर पर लेड (सीसा) रहित पेट्रोल को वहां लागत से कम मूल्य पर बेचा जाता है. अच्छा होगा मेट्रो किराया बढ़ाने के बजाय उसके खचरे पर दूसरे उपायों से नियंत्रण हो.
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