दशहरा : विजयोत्सव मर्यादा का
विजयदशमी का पर्व मूलत: श्रीराम और रावण के माध्यम से पवित्र चेतना का प्रदूषित चेतना पर विजय का पर्व है.
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वासना पर प्रेम की विजय, संग्रहण पर त्याग की विजय और दंभ पर शौर्य की विजय. कभी विचार किया है कि भारतीय पुरा साहित्य में जिस रावण को उच्च ऋषिकुल में जन्म लेने वाले महान शिवभक्त, वेदों के प्रकाण्ड अध्येता और राजनीति के महापंडित के रूप में चित्रित किया गया है, सोने की लंका का अधिपति रावण परम विद्वान होने के साथ परम पराक्रमी भी था फिर ऐसा धनी, बली, ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति क्यूं ऐसी दुगर्ति को प्राप्त हुआ कि उसके पुतले बना बनाकर हम सदियों से उसका दहन कर रहे हैं!
इस जिज्ञासा का शमन करते हुए ऋषिवाणी कहती है कि केवल असत्य पर सत्य की विजय कहने भर से विजयदशमी पर्व का संदर्भ स्पष्ट नहीं हो सकता. असत्य व अन्याय पर सत्य व न्याय की विजय के अनेक उदाहरण भारतीय पुरा साहित्य में उपलब्ध हैं; लेकिन राम व रावण का यह धर्मयुद्ध कई मायनों में अलग है. एक ओर मायावी व साधन सम्पन्न रथी रावण और दूसरी ओर साधनहीन बिरथी रघुवीर. यह महायुद्ध धन और बल की असीमित शक्ति से सम्पन्न मायावी जाल रचने वाले रावण और सिर्फ एक धनुष-बाण लिये नंगे पांव खड़े उस वनवासी राम के मध्य है, जिसे आज की भाषा में हम समाज का अंतिम व्यक्ति कह सकते हैं. मगर खास बात यह है कि इस युद्ध के वनवासी नायक राम केवल बुद्धिकौशल के बल पर जीने वालों में से नहीं हैं. विवेक उनकी सबसे बड़ी खूबी है. साथ ही वे अत्यधिक व्यावहारिक, अत्यंत विनम्र व शीलवान हैं.
श्रीराम अपने संपूर्ण आचरण द्वारा हमें तीन महत्त्वपूर्ण अनमोल सूत्र देते हैं, जिनके माध्यम से हम अपनी इंद्रियों को वश में रख सकते हैं. पहला सूत्र है संयम का, दूसरा संघर्ष का और तीसरा त्याग का. ‘राम का वनवास’ इन तीनों का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करता है, जिसमें उनका जीवन, उनकी भावनाएं और कार्य संयमित हैं, जिसके बल पर वे आम जन की साधनहीन संगठन शक्ति की महत्ता प्रदर्शित करते हैं. एक ओर पिता के वचन का मान रखने के लिए वनवास ग्रहण करने वाले शील, विवेकशीलता की डोर थामे मर्यादा पुरुषोत्तम राम का चरित्र है जो उनके त्याग व तपस्वी जीवन तथा बाह्य व आंतरिक संघर्ष को प्रस्तुत करता है और दूसरी ओर रावण का अमर्यादित, अहंकारी व लोभी-लोलुप चरित्र जो छल छद्म से आसुरी शक्तियों का अधिपति बन स्वयं को सवरेपरि मानने का दंभ संजोये हुए है. दशहरा इन दोनों विपरीत ध्रुवों के आपसी संघर्ष का प्रतीक है.
आज के मनुष्य को अपने जीवन के अंधेरों से संघर्ष करने के लिये, घर-घर में छिपी बुराइयों से जूझने के लिए, हर घर-आंगन में रोज-रोज पैदा हो रहे रावणों से युद्ध करने के लिए, भ्रष्टाचार के दानव से लोहा लेने, राजनीतिक अपराधीकरण और सांप्रदायिक विद्वेष को दूर करने एवं शिक्षा व चिकित्सा को व्यापार से मुक्त करने के लिए शौर्य के इस पर्व की प्रेरणाओं को जीवंत बनाने की जरूरत है. हालांकि इतना आसान नहीं है इन सामाजिक बुराइयों से संघषर्. बहुत कठिन है तेजस्विता की यह साधना. मगर यही एकमात्र उपाय देश की संस्कृति को बचा सकता है.
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्श आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने त्रेतायुग में थे. न्याय, समरसता, भाईचारा व रिश्तों को सहेजने की कला और मानव कल्याण किस प्रकार किया जाता है; इसका श्रेष्ठतम उदाहरण है श्रीराम के शासन की प्रजातंत्रात्मक कार्यशैली. भारतीय जीवन मूल्यों के पोषक देशवासियों के लिए श्रीराम और उनका जीवन आदर्श कभी भी खत्म न होने वाली संपत्ति है. श्रीराम की आदर्श शासन पद्धति में दर्शन, राजनीति, नैतिकता और सामंजस्यपूर्ण व्यवहार के कारगर सूत्र निहित हैं.
आज जिस तरह विभर में आतंकी शक्तियां सिर उठा रही हैं, बढ़ती अराजकता और आतंकी शक्तियों का नाश करने की सच्चे सामथ्र्य का नाम है-श्रीराम. राम-रावण का युद्ध आसुरी व आतंकी शक्तियों पर सत्य व न्याय की विजय का पर्व है. इस उत्सव को भारतीय जनमानस विजयदशमी के रूप में प्रतिवर्ष मनाता है. श्रीराम का जीवन हम मानवों को प्रेरणा देता है कि ‘लालच’ और ‘पराई संपत्ति’ हमें कभी भी सुख नहीं दे सकती. आम आदमी को झूठे मोह-माया के जाल में उलझने से रोकने में श्रीराम के ‘आदर्श’ सच्चे पथप्रदर्शक हैं. उनका अप्रतिम साहस हमें अपनी वृत्तियों को ऊध्र्वगामी बनाने की प्रेरणा देता है.
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