लोकतंत्र : आजादी का भाव रहे बरकरार
कुछ देशों में सरकारी अधिकारियों को कानून की उल्लंघना पर आम नागरिकों की तुलना में ज्यादा दंड दिया जाता है.
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माना जाता है कि उन्होंने पद का दुरुपयोग करके समाज को कहीं ज्यादा नुकसान पहुंचा दिया है. यह कानून भारत में लागू किया जाना चाहिए. और यह भी कहना चाहूंगा कि मतदाता के रूप में हम भी दिनोंदिन पक्षपाती होते जा रहे हैं, अपनी पसंद की पार्टी के लिए तमाम तरह के गलत-सलत काम करने को उतावले रहते हैं, और हमेशा अन्य पार्टियों को गरियाने पर आमादा रहते हैं.
हाल में चुनाव आयुक्तों ने कहा, ‘विजेता कोई पाप नहीं कर सकता, अपनी पार्टी छोड़कर सत्ताधारी दल का दामन थाम लेने वाला न केवल तमाम अपराधबोधों से मुक्त रहता है, बल्कि अपराधी करार दिए जा सकने की संभावना भी से परे होता है. इस प्रकार की जो ‘नई सामान्य समझ’ राजनीतिक नैतिकता में पांव पसार रही है, उसे तमाम राजनीतिक दलों, राजनेताओं, मीडिया, नागरिक समाज से जुड़े संगठनों, संवैधानिक प्राधिकारों और बेहतर चुनाव के लिए राजनीतिक शुचिता में विश्वास करने वालों को निशाना बनाना चाहिए.’भारतीय राजनीति में कुछ तो नया घट रहा है, जिसके चलते संवैधानिक प्राधिकार इस प्रकार के बयान दे रहा है. हालिया चार घटनाओं पर दृष्टिपात करें. पहली घटना दिल्ली में सत्ताधारी पार्टी के विधायकों को कथित आपराधिक गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार किए जाने से संबंधित है. गिरफ्तारी का यह सिलसिला महीनों चला.
कहना मुश्किल है कि क्या इसी के चलते दिल्ली नगर निगम के चुनावों में इस पार्टी को बड़ी हार का सामना करना पड़ा. लेकिन ‘जीत के इस फार्मूले’ को बिहार में भी दोहराया गया, जहां सत्ता में सहयोगी दल के खिलाफ चौबीस घंटे के भीतर आपराधिक मामले दर्ज किए गए. एक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने औपचारिक रूप से कहा है कि काले धन का इस्तेमाल लोक सभा चुनाव के मुकाबले राज्य सभा के चुनाव में कहीं ज्यादा होता है. लेकिन यह फामरूला गुजरात से राज्य सभा के चुनाव में इस बार काम नहीं आया. ऐसा चुनाव आयोग की उस व्यवस्था के चलते हो सका, जिसमें कह दिया गया था कि जो विधायक अपने मत को गोपनीय नहीं रख पाएंगे उनका मत अवैध माना जाएगा.
सत्तारूढ़ पार्टी ने एकदम से दम भरा कि चुनाव आयोग के इस आदेश को अदालत में चुनौती देगी. इस पर कर्नाटक में सत्तारूढ़ पार्टी ने पूर्व मुख्यमंत्री के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करा दिए. उन पर भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो, जो राज्य सरकार के तहत (जबकि सीबीआई और आयकर विभाग केंद्र सरकार के अधीन हैं) है, की मदद से मामला दर्ज कराया गया. इस पर पूर्व मुख्यमंत्री ने अहद ले लिया कि चुनाव के बाद मौजूदा मुख्यमंत्री को जेल में डाल देंगे.
चुनाव आयोग अब विभिन्न राजनीतिक दलों के निशाने पर रहने लगा है, जो भारतीय राजनीति में नई उभरी प्रवृत्ति का संकेत है. यह प्रवृत्ति बेचैन कर देने वाली है क्योंकि चुनाव की शुचिता, स्वतंत्र एवं साहसी चुनाव आयोग पर निर्भर करती है. नई राजनीतिक रणनीति के तहत हो यह रहा है कि विपक्ष के कद्दावर नेताओं, जिनके कार्यकलाप दागी रहे हैं, तक को नहीं बख्शा जा रहा. इस रणनीति के दो फायदे होते हैं-एक तो यह पता चलता है कि सरकार भ्रष्टाचार से लड़ रही है, और दूसरे, विपक्ष की छवि धूमिल करने का भी मौका हाथ आ जाता है. मजे की बात यह कि सत्तारूढ़ पार्टी के एक भी नेता को न तो गिरफ्तार किया गया और न ही कोई सवाल. यदि सत्ताधारी पार्टी का कोई भी सांसद या विधायक दागी नहीं है, तो यह यकीनन अच्छी बात होगी. लेकिन आंकड़ों से पता चलता है कि हकीकत में ऐसा नहीं है. तमाम राजनीतिक पार्टियों में ऐसे जनप्रतिनिधि मौजूद हैं, जिनकी छवि दागदार है. सभी पार्टियों के 30 प्रतिशत से ज्यादा विधायकों और सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं. यह बात तो उन्होंने खुद अपने शपथ पत्रों में बताई है.
ऐसे में हमारे सामने अनेक सवाल दरपेश हैं. पहला तो यह कि कानून का अनुपालन कराने वाली एजेंसियां क्या वाकई राजनीतिक हस्तक्षेप से स्वतंत्र हैं? क्या आयकर विभाग या भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी सत्तारूढ़ पार्टी की दखलंदाजी से स्वतंत्र हैं? क्या ये एजेंसियां भ्रष्टाचार से मुक्त हैं? क्या सरकारें या सत्तारूढ़ पार्टियां उन पर बेजा प्रभाव नहीं डालतीं? क्या करदाता, जिनके दिए करों से ही इन एजेंसियों के वेतन का भुगतान होता है, के रूप क्या हमें चिंतित नहीं होना चाहिए? बहरहाल, इस स्थिति की जड़ में क्या कारण हैं? उम्मीदवारों और पार्टियों द्वारा ज्यादा से ज्यादा पैसा खर्च किए जाने के कारण चुनाव में उनका काफी कुछ दांव पर लगा होता है. इतना पैसा खर्च किए जाने से किसी भी सूरत में चुनाव जीतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है. इसीलिए हमें गुजरात में हैरत में डाल देने वाला घटनाक्रम देखने को मिला जो बेंगलुरू में भी चला और आखिर में चुनाव आयोग के फैसले के साथ खत्म हुआ. और यह खेल खेला गया राज्य सभा की मात्र एक सीट के लिए, जिसके लिए विपक्ष के एक प्रमुख नेता निशाने पर थे.
आज हमारे नागरिकों के लिए एक व्यवस्था है, तो राजनेताओं के लिए दूसरी. नागरिकों की बेहद ज्यादा जांच-परख होती है, उन्हें हर तरीके से आधार कार्ड से जोड़ दिया गया है. हजारों एनजीओ का पंजीकरण निरस्त कर दिया गया है, लेकिन राजनीतिक दलों के लिए ऐसा सोचा तक नहीं गया. उनकी कोई जांच-परख नहीं होती. यह व्यवस्था अतार्किक है, और लंबे समय तक नहीं चलने वाली. इन तौर-तरीकों को रोकने के लिए अनेक उपाय करने होंगे. चुनाव आयोग को राजनीतिक पार्टियों का निशाना बनने से रोकना होगा. उसके पास इतने अधिकार होने ही चाहिए ताकि किसी विधायक की खरीद-फरोख्त और निष्ठा बदल की स्थिति में उसके खिलाफ कार्रवाई कर सके. हमारी पहली निष्ठा भारत के लोगों और अपने समाज के प्रति होनी चाहिए न कि किसी राजनीतिक पार्टी विशेष के प्रति. ऐसे ही तो थे हम पहले लेकिन आज जो हैं, वैसा तो हमें राजनीति ने बना डाला है.
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