ई-कचरा : शीघ्र ठिकाने लगाइए

Last Updated 26 Sep 2017 02:24:57 AM IST

देश में हर साल 30 फीसदी की दर से ‘ई-वेस्ट’ यानी ई-इलेक्ट्रानिक कूड़ा निकल रहा है. इसमें हम सिर्फ 15 फीसद को ही ‘रीसाइकिल’ यानी दुबारा उपयोग में लाने लायक बना पा रहे हैं.


ई-कचरा : शीघ्र ठिकाने लगाइए

यह जानकारी ‘एसोचैम’ की एक रिपोर्ट से मिली है.  
रिपोर्ट के मुताबिक, भारत कचरा पैदा करने वाले देशों की सूची में पांचवें स्थान पर है. एशिया में चीन 60 लाख मीट्रिक टन, जापान 22 लाख मीट्रिक टन और भारत 18 लाख मीट्रिक टन ई-वेस्ट पैदा करता है. इस कचरे को पैदा करने वाला सबसे बड़ा कारक मोबाइल है. आये दिन नये-नये मॉडल बाजार में आ रहे हैं, जिनकी उपयोगिता कुछ समय की ही होती है, और फिर वे कचरे के ढेर में समा जाते हैं.

2014 में विश्व में छोटे मोबाइलों से एक करोड़ 28 लाख टन कचरा निकला था. एक करोड़ 18 लाख मीट्रिक टन बड़े उपकरणों, 70 लाख मीट्रिक टन ताप बदलने वाले उपकरणों, 60 लाख 30 हजार मीट्रिक टन परदों यानी स्क्रीन्स, 30 लाख मीट्रिक टन छोटे आईटी उपकरणों और 10 लाख मीट्रिक टन लैंपों से जमा होता था.

2014 में ई-वेस्ट को इकट्ठा करने के लिए विश्व भर में 10 लाख ट्रकों का इस्तेमाल हुआ था, जिन्हें एक लाइन में खड़ा किया जाता तो 23000 किमी. लंबी लाइन बनती. 2014 में नोर्वे, स्वीडन और फिनलैंड ने दुबारा काम में लाने के लिए 50 प्रतिशत कचरे का शोधन किया. अक्सर कचरे को जमा करने में असंगठित क्षेत्र के मजदूर होते हैं. ये नंगे हाथों से ही कचरे को पकड़ते हैं.

किसी तरह के मास्क का प्रयोग चेहरा ढकने के लिए नहीं करते. इनमें मजदूरों में भी पांच लाख बच्चे हैं, जिनकी आयु 10 से 14 वर्ष के बीच होती है, जो टनों जहरीली भारी धातुएं, रसायनों, पारा, क्रोमियम, शीशे के गिलास और फास्फोरस उठाते हैं, जिससे कैंसर से ग्रसित हो जाते हैं. फेफड़े, लीवर और किडनी खराब हो जाते हैं, मस्तिष्क की वृद्धि भी रुक जाती है. पता चला है कि 80 प्रतिशत मजदूर, जो ई-वेस्ट को इकट्ठा करने के काम में लगे हैं, सांस की तमाम बीमारियों के शिकार हैं. सांस लेने में कठिनाई, चिड़चिड़ापन, खांसी और घुटन उनकी जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं.

ई-वेस्ट कितना जहरीला है? इसका अंदाजा आम आदमी को नहीं है. लेकिन इन बातों पर गौर करें तो आने वाले समय में यही वेस्ट तरह-तरह की बीमारियों को न्योता देने वाला है. आज हम आराम से कानों में मोबाइल लगाकर चल रहे हैं, लेकिन यही ध्वनि प्रदूषण के रूप में कानों को क्षति पहुंचाने का काम कर रहा है. मोबाइल हमारी आवश्यक वस्तुओं में शुमार हो गया है. इसके जो आदी हो गए  हैं, उन्हें एक पल भी इसे छोड़ना सूना-सूना लगता है, जैसे कि उनका संसार चला गया हो.

इसके अलावा, सामाजिक व्यवहार भी इन मोबाइलों के जरिए हो रहा है. लगता है कि दूर बैठा व्यक्ति पास ही बैठा है, इस कल्पना से हम बहुत कुछ खो रहे हैं. अभी तो हमें इसका अहसास नहीं हो रहा है, पर यही हर व्यक्ति की जिंदगी में शून्यता लाएगी. बात ई-कचरे को समाप्त करने से शुरू हुई थी, पर कचरा होने से पूर्व इसके प्रयोग को भी नियंत्रित करने की जरूरत है. वैज्ञानिकों ने आकलन भी लगाया है कि आने वाले समय में मानव का आकार भी बदल सकता है. वह अपने अंगों को काम में नहीं लाएगा तो वे धीरे-धीरे समाप्त होता जाएगा.

पैरों का उपयोग नहीं करेगा, उन्हें गतिमान नहीं रखेगा तो स्वत: ही समाप्ति की ओर चला जाएगा. कचरे के बाह्य प्रभाव इतने सारे हैं कि हर रोग का जन्म इसी से होता है. किसी समय कैंसर इतना व्यापक नहीं था, जितना आज है, यह भी इन्हीं वस्तुओं की देन है. आज तरह-तरह की बीमारियां जन्म ले रही हैं, जिनके बारे में हमने सुना भी नहीं था. यह सब प्रदूषण का प्रतिफल है.

वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण यानी हर तरह के प्रदूषण से जीवन खतरे में है. इससे बचने के लिए गंभीरतापूर्वक सभी प्रकार के कचरे की रीसाइकिलिंग की जरूरत है. हर देश की सरकार ही नहीं, बल्कि जो कचरे को पैदा करने वाले कारखाने हैं, उन्हें उत्पाद की डय़ूरेबिलिटी यानी आयु बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए ताकि सामान का कचरा न बनने का समय बढ़ सके. जैसे-जैसे जो कंपनियां आईटी के कारखाने खोल रही हैं, उन्हें कचरा निपटान के कारखाने भी खोलने चाहिए. सरकार के लिए जरूरी है कि यह कार्य उनकी नैतिक जिम्मेदारी में शामिल करे.

जो विदेशी कंपनियां हैं, उन्हें अपने-अपने देशों में रीसाइकिलिंग प्लांट लगाने चाहिए. इसलिए ई-वेस्ट करने से पूर्व उन उपकरणों के इस्तेमाल पर नियंत्रण करने के अलावा कचरे के सही ढंग से ट्रीटमेंट के भी प्रयास होने चाहिए.

भगवती डोभाल


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