राजनीतिक वर्चस्व : साजिशों की अनदेखी अपराध

Last Updated 26 Sep 2017 02:34:58 AM IST

सत्ता में जब नया नेतृत्व आता है, तो अपने आप में एक संदेश होता है.


साजिशों की अनदेखी अपराध

किसी भी स्तर पर नेतृत्व में बदलाव के साथ होने वाली घटनाओं पर सरसरी नजर डालें तो हमलों और नेतृत्व के संदेश के बीच रिश्ते के सिद्धांत की खोज पूरी हो सकती है. संसदीय राजनीति में ऐसे ही संदेशों के जरिए सफलता पाने की सबसे ज्यादा कोशिश होती है.
इसी कड़ी में दलितों के खिलाफ उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में जाति विशेष द्वारा हमले की घटनाएं लगातार हो रही हैं. अप्रैल से सितम्बर, 2017 तक दलित विरोधी जातिवादी हमलों का भी यहां इसी रूप में विश्लेषण किया जा सकता है. पहला प्रश्न कि सत्ता में नेतृत्व बदलने के साथ ही खास तरह की घटनाओं की एक कड़ी क्यों शुरू हो जाती है? राजनीतिक सत्ता को व्यवस्था की कुंजी कहा जाता है. लेकिन यह तभी कारगर होती है, जब सामाजिक स्तर पर राजनीतिक सत्ता को संचालित करने का ढांचा मौजूद हो. भारतीय समाज में दलित नेतृत्व आता है, तो उसमें वही नेतृत्व राजनीतिक सत्ता को सामाजिक स्तर पर महसूस करा पाता है, जिसका ढांचा होता है. लेकिन ठोस तथ्य है कि दलित सत्ता में नेतृत्व के संदेश से सुरक्षा बोध महसूस करता है, और उसके भीतर किसी जाति के खिलाफ आक्रामकता का भाव पैदा नहीं होता. हद से हद वह एक समान होने का भाव महसूस करता है. लेकिन दूसरी तरफ सामाजिक रूप से वर्चस्व रखने वाली जातियां या संप्रदाय अपने अनुकूल नेतृत्व आने के साथ ही आक्रामकता के भाव से भर जाते हैं. वे अपने सामाजिक वर्चस्व की जगह को और फैलाने के मौके के रूप में सत्ता परिवर्तन का इस्तेमाल करना चाहते हैं. दूसरी तरफ दमित-वंचित जातियों में जो भाव और विश्वास होता है, उसे खत्म करने की कोशिश करने के मौके के रूप में भी उस नेतृत्व परिवर्तन की घटना का इस्तेमाल करना चाहते हैं.

पश्चिम उत्तर प्रदेश में अप्रैल से सितम्बर के बीच घटनाओं पर सरसरी नजर डालें. शब्बीरपुर में पहली बार हुआ कि गैर-सुरक्षित क्षेत्र से दलित गांव प्रधान निर्वाचित हो गए. दूसरी घटना सहारनपुर के धूधली गांव की हैं, जहां 14 अप्रैल को दलितों ने डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म दिवस मना लिया था. लेकिन भाजपा के नेता एवं सासंद 20 अप्रैल को डॉ. अंबेडकर की शोभा यात्रा निकालना चाहते थे जबकि शोभा यात्रा जैसे कार्यक्रम दलितों की संस्कृति से नहीं मिलते. लेकिन भाजपा सदस्यों ने ‘शोभायात्रा’  निकाली क्योंकि वे डॉ. अंबेडकर का भाजपाकरण करना चाहते हैं, और वहां के मुसलमानों के विरोध में दलितों को खड़ा करने के लिए ‘शोभायात्रा’ का इस्तेमाल करना चाहते थे. लेकिन दलितों और खास तौर से भीम आर्मी के सक्रिय सदस्यों ने सांप्रदायिक दंगों के लिए अपना इस्तेमाल नहीं होने दिया. इस बात को लेकर भीम आर्मी के सदस्यों के खिलाफ बेहद चिढ़ मच गई.
भारतीय समाज में कई  ऐसी घटनाएं सामने आई हैं कि वर्चस्व रखने वाली जातियों और संप्रदाय ने अपने हितों में जाति के विरुद्ध जातियों और धार्मिंक समूहों का इस्तेमाल करने की कोशिश की. जब उन्होंने इस्तेमाल होने से मना कर दिया तो उनके खिलाफ हमले शुरू हो गए. कांग्रेस की सरकार के दौरान आरक्षण का विरोध करने वालों के समर्थन में जब गुजरात के मुसलमानों ने अपनी दूकानें बंद करने से मना कर दिया तो उनके खिलाफ सांप्रदायिक हमले शुरू हो गए. वंचित जातियों का विरोध और सांप्रदायिक हमले एक दूसरे से हमेशा जुड़े दिखते रहे हैं यानी वंचितों द्वारा वर्चस्व रखने वालों की साजिशों में शामिल नहीं होना भी एक अपराध है, और उसकी सजा सामाजिक ढांचे पर वर्चस्व रखने वाली शक्तियां तय करती हैं, और राजनीतिक सत्ता उसे संरक्षित करती है. उत्तर प्रदेश के इस इलाके में घटनाओं की वजह यह रही कि नेतृत्व में परिवर्तन से पहले दलित अपनी इच्छानुसार डॉ. अंबेडकर के पुतले की लंबाई और पुतले को लगाने की जगह की जो ऊंचाई तय कर रहे थे, वह वहां जाति वर्चस्व रखने वालों को मंजूर नहीं था. सामाजिक ढांचा दलितों पर वर्चस्व रखने का है और संविधान का ढांचा उन्हें समानता का एहसास करने का संदेश देता है. यह टकराव हमेशा वंचितों के दमन के रूप में ही घटित होता है. वंचितों को संविधान के ढांचे का संदेश तो मिलता है लेकिन आम तौर पर हमले की बाद संविधान की मशीनरियां उनके ही खिलाफ या हमलावरों को बचाने के पक्ष में झुकी दिखती है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की घटनाओं में एक नई प्रवृत्ति देखी गई. चूंकि वहां दलितों को भविष्य की ‘शोभायात्राओं’ में शामिल करने की योजना है, इसीलिए हमलावरों के विरु द्ध कार्रवाई के साथ दलितों के सक्रिय नेतृत्व पर भी कार्रवाई की गई. हमलावरों में से कुछ के खिलाफ कार्रवाई इसीलिए की गई ताकि दलितों के बीच ‘शोभायात्राओं’ के लिए समर्थन जुटाने की गुंजाइश बनी रहे तो दूसरी तरफ दलितों के नेतृत्व के खिलाफ कार्रवाई महज इसलिए की गई ताकि दलितों के बीच सक्रिय नहीं हो सके. संतुलन दिखाने की यह प्रवृत्ति है यानी उत्पीड़ितों को महज इसलिए जेल की सलाखों के पीछे डालना चाहिए क्योंकि उत्पीड़कों के खिलाफ भी कार्रवाई करने की बाध्यता है?
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम करने वाले संगठन भीम आर्मी के सदस्यों व गैर सदस्यों को पैतालीस की संख्या में शब्बीरपुर में हमले के बाद पकड़ा गया. यह महज पुलिस की कार्रवाई में एक संतुलन दिखाने के लिए वंचित समाज के इतने लोगों को गिरफ्तार किया गया. इसी तरह से अब राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के जरिए या किसी भी तरह से भीम आर्मी के संस्थापक चन्द्रशेखर आजाद रावण को जेल में रखना चाहते हैं. इससे पहले दो हमलावरों के खिलाफ रासुका लगाने की सूचना अखबारों में आई. दरअसल, चन्द्रशेखर को जेल में किसी तरह से बंद रखने का कोई तर्क और तथ्य नहीं है, तो इसके लिए जरूरी लगा कि दो हमलावरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का संदेश दिया जाना जरूरी है. चन्द्रशेखर और उसके साथी महीनों तक जेल में बंद रहें उसके लिए तर्क तैयार करने की यह कोशिश है. सत्ता द्वारा तर्क तैयार करने के लिए तथ्यों को दबाने की यह प्रवृत्ति वास्तव में वंचितों के लिए संवैधानिक अधिकारों को छीनने का एक अघोषित कानून है.



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