मुद्दा : मुखरता का खमियाजा

Last Updated 27 Sep 2017 03:56:25 AM IST

यह लड़कियों के मुखर होने, अपने अधिकारों को लेकर जुझारू प्रवृत्ति दिखाने और खुदमुख्तार होने का प्रदर्शन भर नहीं बल्कि कहीं बहुत आगे की बात है.


मुद्दा : मुखरता का खमियाजा

भले कुछ लोग इसे छात्राओं पर हर तरह की बंदिश लगाने और विश्वविद्यालय प्रशासन की दकियानूसी सोच पर चोट करने का तरीका भर कहकर इस लड़ाई को हल्का कहने का लिजलिजा तर्क रखें, लेकिन इससे कौन इनकार कर सकता है कि देश बदल रहा है? विश्व के बेहतरीन शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में शुमार काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हाल के वर्षो में वहां की लड़कियां जिन अनर्गल नियम-कायदों को मानने के लिए मजबूर हैं, आप यह कतई नहीं कह सकते कि लड़कियों की मांग अनैतिक, अवैध, बिल्कुल गलत और राजनीति से प्रेरित थी.

21 वीं सदी का कोई कुलपति छात्राओं से लैंगिक भेदभाव वाले नियमन कैसे दे सकता है! यह भेदभाव पढ़ाई से लेकर खानपान और सुरक्षा तक है. ऐसे आदेश विस्मित करते हैं. छात्राओं का विवश गुस्सा विश्वविद्यालय प्रशासन और छात्राओं के गार्जियन कुलपति की चुप्पी और उनके काहिलपन पर निकलता है. एक पिता, भाई, मां, बहन और तमाम रिश्तों के दायरे में रहकर देखा जाए तो लड़कियों की मांगें क्या थीं? यही न कि लड़कियों से जो सरेआम छेड़खानी होती है, उसे रोकने के अंतिम और असरकारक उपाय किए जाएं..सीसीटीवी कैमरे महत्त्वपूर्ण जगहों पर लगाए जाएं..जहां अंधेरा है, वहां रोशनी के प्रबंध किए जाएं..साथ ही सख्त-सक्षम सुरक्षा गार्ड तैनात किये जाएं... अब इनमें आपत्तिजनक क्या है?

इसके उलट शर्मनाक हालात तो तब पैदा होते हैं, जब इस दिशा में कुछ नहीं किया जाता है और मामले को साम-दाम-दंड-भेद से दबाने और कुचलने की कुत्सित करतूत को अंजाम दिया जाता है. लड़कियां अगर अपनी आजादी की मांग भी कर रही हैं तो कौन-सा गुनाह कर रही हैं? आखिर सारे नियम-कायदे-कानून उन्हीं पर थोपने की जिद क्यों? हॉस्टल कैंटीन में लड़कियां ही शाकाहार क्यों खाएं? क्यों लड़के ही 10 बजे रात तक बाहर रहें या जो मन करे पहने? महीनों से लड़कियों के साथ न केवल छेड़खानी की वारदात हो रही थी बल्कि उन्हें यह अहसास भी कराया जा रहा था कि तुम लड़कों की तरह रहने-खाने-पीने-सोचने और पहनने की बात भूल से भी मत सोचो. अगर सोचा तो लाठियां बरसेंगी, तुम्हारा चरित्रहनन होगा और फिर तुम इस लायक नहीं रहोगी कि कुछ बेहतर करने के बारे में सोच भी सको.

दुखद यह सब इसलिए कि परिसर में लड़कियों को समानता के स्तर पर भी सोचने नहीं दिया जा रहा है. फिर ‘जेंडर इक्वलिटी’ की बात ही बेमानी है. आजाद ख्याल होने की जितनी भी तकरीरें हैं, वे सब लड़कों के पक्ष की हैं. लड़कियां तो बस चुप्पी की चादर तले अपनी पढ़ाई कर लें बस. क्या ऐसे ही देश बढ़ेगा..बदलेगा? कोढ़ में खाज यह कि महिला शिक्षक भी छींटाकशी और छेड़खानी की शिकार होती हैं. लेकिन वे क्या करें? लड़कियां तो इसलिए मोच्रे पर आई कि जो कुछ उन लोगों के साथ हो रहा था, उसमें अब सहने को कुछ नहीं बचा था. यानी एकमात्र विकल्प सड़क पर उतरना ही था. और यह स्वत: स्फूर्त था. आमतौर पर छात्रों के आंदोलन ऐसे ही चरित्र के होते हैं. न तो उनका कोई नेता होता है, न वह किसी सियासी संगठन के साथ मिलकर विरोध करते हैं. यही वजह है कि छात्रों के आंदोलन बहुत कम वक्त तक जिंदा रहते हैं और उनके निर्णय क्षणभंगुर होते हैं. बीएचयू में लड़कियों का विरोध प्रदर्शन भी कमोबेश ऐसा ही चरित्र लिये था. लाजिमी है, इसमें उन तत्वों ने भी घुसपैठ कर ली, जो सिर्फ अपनी नेतागिरी चमकाना चाहते थे.

इसके बावजूद छात्राओं की मांग पर संजीदगी से विचार करने और इसका हल निकालने का प्रयत्न विश्वविद्यालय प्रशासन खासतौर पर कुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी को करना चाहिए था. छात्राओं की मांग कोई चांद-तारे तोड़कर लाने की नहीं थी. कुलपति को सभास्थल पर बुलाने की मांग भी मर्यादा से बाहर नहीं है. आखिर समस्याओं को साहस के साथ निपटाने का भार तो कुलपति को ही उठाना चाहिए था. उस जिम्मेदारी से भागकर कुलपति ने न केवल अपनी अदूरदर्शिता का परिचय दिया बल्कि उनके वक्तव्य उनके पद के अनुरूप बिल्कुल नहीं थी. अगर बीएचयू जेएनयू बनने की तरफ अग्रसर है भी तो इसमें क्या गलत है! आप इसका तनाव मत लीजिए कि परिसर का माहौल मैला-कुचैला और दागदार हो जाएगा. अगर आपके हिसाब से यह ‘दाग’ है तो भी ये अच्छे हैं.

राजीव मंडल


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