मुद्दा : ‘असफल विद्यालय’ के मायने?
राजस्थान की सरकार ने विद्यालयी शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) का रास्ता चुना है.
‘असफल विद्यालय’ के मायने? |
उसका मानना है कि इस मॉडल द्वारा ‘नॉन-परफॉर्मिंग‘ विद्यालयों में पढ़ने-पढ़ाने की संस्कृति में सुधार किया जा सकता है. नॉन-परफॉर्मिंग विद्यालय से सरकार का क्या मतलब? इसे खबर के तीन वाक्यांशों से समझा जा सकता है. पहला, जिनके परीक्षा परिणाम खराब हैं. दूसरा, इनमें से अधिकांश ग्रामीण क्षेत्र में हैं. तीसरा, ये सभी विद्यालय सरकार द्वारा संचालित हैं. इस तरह से यह योजना निजी विद्यालयों की गुणवत्ता को पूरी तरह से क्लीन चिट देती है. समस्याग्रस्त विद्यालयों की अवस्थिति को दूरदराज के क्षेत्रों में स्वीकारती है, जहां सरकारी विद्यालय ही समाज के वंचित वर्ग के लिए औपचारिक शिक्षा का एकमात्र माध्यम हैं.
सवाल है कि शिक्षा जैसी अति आवश्यक लोकवस्तु के संदर्भ में यह मॉडल कितना कारगर होगा? प्रस्तुत पीपीपी मसौदे के अनुसार निजी क्षेत्र से जो भागीदार सरकारी विद्यालयों के उद्धार का जिम्मा उठाना चाहते हैं, वे सरकार को 75 लाख रुपये प्रति विद्यालय का भुगतान करेंगे. सरकार 16 लाख रुपये सालाना की दर से 7 वर्ष में इसकी प्रतिपूर्ति करेगी. इस धन का प्रयोग आधारभूत संसाधनों के विकास हेतु किया जाएगा. इस गुलाबी तर्क के बरक्स पहला सवाल है कि एक विद्यालय के संचालन के लिए इतनी बड़ी धनराशि का भुगतान कौन करेगा? अधिकांश गैर लाभकारी संगठन किसी औद्योगिक घराने की तरह न तो आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ हैं न ही बैंक या किसी अन्य माध्यम से उधार लेकर इतना बड़ा जोखिम उठाना चाहेंगे.
स्वाभाविक है कि जो निजी निवेशक इस निवेश के लिए आकर्षित होंगे वे बड़े औद्योगिक घराने होंगे. किसी बड़े लाभ के अभाव में वे इतना बड़ा निवेश क्यों करेंगे? विद्यालयी शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए विद्यालयों पर किसका मालिकाना हक है? कौन वित्त दे रहा है? कौन प्रबंध कर रहा है? जैसे सवालों के उत्तर सरकार खोज रही है जबकि किसे, क्या, कौन और कैसे पढ़ा रहा है? जैसे औचित्यपूर्ण सवाल नहीं पूछे जा रहे. वास्तव में ये प्रक्रियागत सवाल ही शिक्षा की गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं. सरकार ‘बच्चे पढ़ते नहीं’, ‘शिक्षक आते नहीं’, ‘आते हैं तो पढ़ाते नहीं’ जैसे आधारहीन तकरे के सहारे पीपीपी मॉडल को रामबाण इलाज मान रही है.
आखिर, निजी क्षेत्र ऐसा क्या करेगा कि बच्चे पढ़ने के लिए अभिप्रेरित हो जाएं, शिक्षक आएं और पढ़ाएं. यह तो एक ही दशा में संभव है ‘भय बिन होए न प्रीति’. अब बस एक व्यवस्था बाकी है कि विद्यालयों में भी ‘एचआर’ की नियुक्ति हो जो ‘एम्प्लायी ऑफ द मंथ’ को चुने. ‘इन्सेंटिव’ और ‘फायर’ आदि के लिए आवश्यक निगरानी करे. इसके विपरीत शिक्षा का अधिकार कानून विद्यालय प्रबंधन का एक लोकतांत्रिक मॉडल सुझाता है- ‘विद्यालय प्रबंध समिति द्वारा विद्यालय का प्रबंधन’. दिल्ली के सरकारी विद्यालयों के प्रबंधन में इस मॉडल की सफलता आजकल सुर्खियां बटोर रही है. इसी तरह राजनीतिक इच्छाशक्ति और नीतियों के सुव्यवस्थित निष्पादन का एक अन्य उदाहरण रवाण्डा जैसे छोटे अफ्रीकी देश से आता है, जहां सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता के कारण निजी विद्यालय बंद होने के कगार पर आ चुके हैं. अपने यहां भी कुछ पहल हुई हैं. जैसे उत्तर प्रदेश के अदालत ने राज्य सरकार को आदेश दिया था कि अपने पाल्यों का प्रवेश ‘पड़ोस के सरकारी विद्यालय’ में कराएं.
उत्तराखंड में भी अदालत ने राज्य सरकार को कहा था कि जब तक प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षण अधिगम के न्यूनतम संसाधनों का प्रबंध नहीं हो जाता किसी भी तरह आरामदायक वस्तु (लक्जरी गुड) को न खरीदी जाए. निहितार्थ है कि शिक्षा जैसी लोकवस्तु की सेवा आम जनता को उपलब्ध हो यह सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व है. ‘असफल विद्यालय’ के तर्क से सरकार दायित्व से पीछा छुड़ा रही है. विद्यालयों की स्वायत्तता के झुनझुने को निजी हाथों में सौंपने से पहले अपनी विरासत को याद कीजिए जहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एक आत्मनिर्भर और स्वायत्त विद्यालय की परिकल्पना करते हैं, जिसका प्रबंधन स्थानीय समुदाय द्वारा किया जाता है और जो पाठय़चर्या और शिक्षण पद्धति के स्थानीयकरण द्वारा हाथ, हृदय और मस्तिष्क के संयोजन पर बल देता है-‘वैज्ञानिक ज्ञान’ से समझौता किए बिना.
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