विश्लेषण : तमिल राजनीति का युगांत

Last Updated 22 Sep 2017 03:35:53 AM IST

हालांकि तमिलनाडु की राजनीति के सूत्र दिल्ली से जुड़े हैं पर यहां देश की राजधानी से अंदाजा नहीं लग सकता कि अभी सुदूर दक्षिण के एक महत्त्वपूर्ण प्रदेश की राजनीति में कितना कुछ चल रहा है.


तमिल राजनीति का युगांत

संयोग से अभी मद्रास हाईकोर्ट ने तमिलनाडु विधान सभा में शक्ति परीक्षण पर रोक लगा दिया है वरना इस दशहरे में वहां की राजनैतिक रामलीला में काफी कुछ हो जाता. पर अभी तक जो कुछ हुआ है वह भी कम नहीं है.

एक तो शासक अन्नाद्रमुक के दोनों धड़े एक हो गए हैं. पूर्व मुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम और मुख्यमंत्री ई. पलानीस्वामी के बीच न सिर्फ  मेल-मिलाप हो गया है बल्कि सत्ता और राजनीतिक ताकत का संतुलित बंटवारा हो गया है. दोनों ने मिलकर जयललिता की मित्र शशिकला को जेल में रखने के पक्के इंतजाम के साथ पार्टी से उनके प्रभाव को धो डालने की योजना पर काम शुरू कर दिया है.

और इन सबकी सूत्रधार वह भाजपा और केंद्र सरकार मानी जाती है, जिसे अभी तो अन्नाद्रमुक के राज्य सभा के सदस्यों के समर्थन का लाभ होगा और भविष्य में रैशनिलस्ट आंदोलन का केंद्र रहे इस प्रदेश की राजनीति में पैर जमाने का अवसर मिलेगा. जाहिर है जब राज्य की सत्ता से लेकर राजनीति में इतना कुछ चल रहा है तो बाकी खिलाड़ी भी हाथ-पर-हाथ धरे नहीं बैठे हैं. पर हाईकोर्ट ने एक क्षेपक डाला है. उसने उन अठारह अन्नाद्रमुक विधायकों की अर्जी पर सदन में फ्लोर टेस्ट पर रोक लगा दी है, जिन्हें पिछले दिनों एकजुट हुए स्वामी-सेल्वम मंडली ने पार्टी से निकाल दिया था. ये सभी शशिकला के समर्थक माने जाते हैं. 

पर दिनाकरण समर्थक जिन अठारह लोगों/विधायकों को बाहर किया गया और जिनकी विधायकी समाप्त करने की घोषणा विधान सभा अध्यक्ष ने की उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया और अदालत ने फ्लोर-टेस्ट पर रोक लगा दी है. सदन की गिनती के अनुसार इन विधायकों को निकालने के बाद सदन की कुल सदस्यता 234 से घटकर 216 रह जाएगी, जिसमें स्वामी-सेल्वम धड़े को बहुमत साबित करने में कोई दिक्कत नहीं होगी. उसके पास 114 विधायकों का समर्थन है. अगर इन सभी का वोटिंग राइट रहा तब सरकार संकट में होगी क्योंकि तब विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर बागियों की वोटिंग से सरकार गिर जाएगी, मगर जब तक बागी या शशिकला समर्थक विधायक पार्टी ह्व्पि का उल्लंघन नहीं करेंगे, उनकी सदस्यता रद्द करने का फैसला सही साबित करना मुश्किल है. पर खुद इस तरह के संकट को एक बार झेल चुके विधान सभा अध्यक्ष ने बहुत आगा-पीछा नहीं सोचा. उन्हें सरकार के साथ भाजपाई राज्यपाल और केंद्र सरकार के अंध समर्थन का भरोसा होगा.

पर जब पार्टी टूटती है तब राजनीति या सरकार का संचालन सिर्फ अदालत और कानूनी लड़ाई से नहीं होता. सो शशिकला और दिनाकरण की राजनीति या जयललिता की विरासत पर उनका दावा सिर्फ इसी सहारे बच जाएगा, यह कहना मुश्किल है. लेकिन यह कहना आसान है तमिलनाडु की राजनीति में युगपरिवर्तन हो रहा है.
जयललिता की मौत और उनके प्रतिद्वंद्वी रहे एम. करुणानिधि के बीमार और कमजोर पड़ने से तमिलनाडु की उस राजनीति का अंत हो गया लगता है, जो पिछले तीसेक साल से चल रही थी. इसमें पुरानी द्रविड़ और रैशनिलस्ट आंदोलन के अंश तो थे पर जयललिता और करुणानिधि ने खुद से काफी कुछ जोड़ा था. यह खबर भी आती/छुपती रहती है कि स्टालिन भी पूरे स्वस्थ नहीं हैं और करुणानिधि परिवार के झगड़े अन्नाद्रमुक से कम नहीं हैं.

अन्नाद्रमुक की राजनीति को लेकर भी कम सवाल नहीं हैं क्योंकि अभी का सारा तमाशा तो उसके शक्ति समीकरणों को लेकर ही है. किंतु यह भी तय माना जा रहा है कि अब राज्य की पूरी राजनीति भी बदलेगी. द्रमुक-अन्नद्रमुक की प्रतिद्वंद्विता ने तीसरा कोण बनाने वाले कांग्रेस को भी समाप्त सा कर दिया है. लेकिन रजनीकांत और कमल हासन जैसे लोकप्रिय सिनेस्टार भी इस अवसर को ताड़ कर सक्रिय हो गए हैं. कभी दोनों के साथ उतरने की खबर आती है कभी आमने-सामने. गवांडियर सिनेमाई हीरो विजयकांत लगातार दस फीसद वोट लेकर अपनी उपस्थिति से सबको परिचित करा चुके हैं.

इधर अचानक भाजपा और संघ परिवार तमिलनाडु को लेकर आक्रामक हुआ है. अभी के जिस संकट की चर्चा ऊपर हुई है, उसमें भाजपा की पर्याप्त भूमिका है. पर भविष्य के लिए उसके पास ज्यादा आक्रामक योजनाएं होंगी, जब राजनैतिक शून्य ज्यादा साफ दिखेगा. भाजपा राज्य की ओर से विधान सभा चुनाव के पहले यह दावा किया जा रहा था कि वह तीसरा कोण बनकर उभर रही है. लोक सभा चुनाव का उसका अनपेक्षित प्रदर्शन और उसके कार्यकर्ताओं का उत्साह भी इसका आधार था. अब भाजपा के लिए फिर से अवसर बताया जाने लगा है. खुद प्रधानमंत्री मोदी जिस तत्परता से जया की मौत के बाद चेन्नई गए और सभी से मिले, उसे इस दिशा में पहला कदम बताया जा रहा था. अभी शायद वह कुछ समय इंतजार करने और राज्य सभा सदस्यों के समर्थन भर से काम चलाएं. यह भी हो सकता है कि अन्नाद्रमुक एनडीए में आ जाए. पर साफ लगता है कि जब तक तमिलनाडु की दोनों बड़ी पार्टयिों में टूट-फूट नहीं होती, जब तक कोई बड़ा नेता बगावत करके भाजपा के पास नहीं पहुंचता, तब तक उसकी दाल गलती नहीं दिखती. पर एक चीज भाजपा के पक्ष में जाती है-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पुराना काम. और उसके बढ़ते असर का ही प्रमाण है कि स्टालिन समेत दूसरे द्रमुक नेता उसके आयोजनों में जाने, धार्मिंक भोज में हिस्सेदारी करने लगे हैं और धार्मिंक कर्मकांडों के प्रति अब पहले वाला परहेज गायब हो रहा है.

संघ के ध्वजा नमस्कार कार्यक्रम में हिस्सा लेने की मंत्रियों की तस्वीर छपने पर भी अब कोई हलचल नहीं होती. पर इस चीज के राजनैतिक शक्ति और वोट में बदलने की मशीनरी अभी भाजपा नहीं विकसित कर पाई है. लेकिन एक बड़े राजनैतिक शून्य का लाभ लेकर वह ऐसा कर ले यह एकदम संभव है. और वही सबसे ज्यादा सक्षम दिखती भी है. पर कौन सितारा कब क्या खेल कर दे यह कहना अभी मुश्किल है?

अरविन्द मोहन


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