उच्च शिक्षा : डराने वाले हालात

Last Updated 20 Sep 2017 02:01:08 AM IST

पिछले दिनों रिलीज हुई फिल्म ‘बाबुमोशाय बंदूकबाज’ में एक डायलाग है कि ‘आदमी की जिंदगी में उसका किया हुआ जरूर उसके सामने आता है.’


उच्च शिक्षा : डराने वाले हालात

ये डायलाग देश में उच्च शिक्षा की सबसे बड़ी नियामक संस्था एआईसीटीई पर पूरी तरह से फिट बैठता है, क्योंकि पहले तो इन्होंने बिना ठीक से जांचे परखे, गुणवत्ता की चिंता किए बगैर देश में हजारों इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने के लाइसेंस दिए और बिना मांग-आपूर्ति, रोजगार का विश्लेषण किए बगैर 37 लाख सीटें कर दी, अब जब उनमें से 27 लाख सीटें खाली रह गई तो इनके हाथ-पैर फूल गए.

पिछले दिनों उच्च और तकनीकी शिक्षा की सबसे बड़ी नियामक संस्था ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन (एआईसीटीई) ने तय किया है कि जिन इंजीनियरिंग कॉलेजों में 30 प्रतिशत से कम दाखिले हो रहे हैं, उन्हें बंद किया जाएगा. फिलहाल देश भर में एआईसीटीई से संबद्ध 10,361 इंजीनियरिंग कॉलेज हैं, जिनमें कुल 3,701,366 सीटें है (लगभ 37 लाख), अब इनमें करीब 27 लाख सीटें खाली हैं. देश में उच्च शिक्षा के हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि एआईसीटीई ने तय किया है कि जिन कॉलेजों में पिछले 5 सालों में 30 पर्सेट से कम सीटों पर दाखिले हुए हैं, उन्हें अगले सत्र से बंद किया जाएगा. पिछले दिनों एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि युवाओं में प्रतिभा का विकास होना चाहिए. उन्होंने डिग्री के बजाय योग्यता को महत्त्व देते हुए कहा था कि छात्रों को स्किल डेवलपमेंट पर ध्यान देना होगा.

एक रिपोर्ट के अनुसार हर साल देश में लाखों इंजीनियर बनते हैं. मगर उनमें से सिर्फ  15 प्रतिशत को ही अपने काम के अनुरूप नौकरी मिल पाती है. इसीलिए देश में इंजीनियरिंग का कॅरियर तेजी से आकर्षण खो रहा है. देश के राष्ट्रीय कौशल विकास निगम के अनुसार सिविल, मैकेनिकल और इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग जैसे कोर सेक्टर के 92 प्रतिशत इंजीनियर और डिप्लोमाधारी रोजगार के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं. इस सर्वे ने भारत में उच्च शिक्षा की शर्मनाक तस्वीर पेश की है. यह आंकड़ा चिंतित करता है क्योंकि स्थिति साल दर साल खराब ही होती जा रही है.

देश में इस समय उच्च और तकनीकी शिक्षा के बुरे दिन आ चुके हैं. पिछले पांच साल से उच्च शिक्षा का समूचा ढांचा चरमरा रहा था लेकिन किसी सरकार ने इसके लिए कुछ नहीं किया. अब ये पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है. तो यहां मुख्य सवाल तो एआईसीटीई से ही है कि इन्होंने पहले कुछ क्यों नहीं किया?

जब तकनीकी शिक्षा का आधारभूत ढांचा चरमरा रहा था तब एआईसीटीई ने कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया? आखिर इतने बड़े पैमाने पर सीट खाली रहने से और कालेजों के बंद होने का सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर ही तो पड़ेगा. ये बात सही है कि देश में उच्च और तकनीकी शिक्षा की बुनियाद 2010 से ही हिलने लगी थी और 2014 तक लगभग 10 लाख सीटें खाली थीं. लेकिन तीन साल पहले मोदी सरकार आने के बाद ये उम्मीद जगी थी की उच्च शिक्षा के लिए कुछ बेहतर होगा लेकिन धरातल पर कुछ खास नहीं हुआ. मतलब सिर्फ  सरकार बदली परंतु नीतियां लगभग वही रही और अब हालात ऐसे हो गए हैं, जिन्हें संभालना बहुत मुश्किल दिख रहा है. इस सत्र में तो ऐसे हालात हो गए कि आईआईटीज में भी छात्रों में रुचि कम होती दिखाई दे रही है. आईआईटीज में 2017-18 सत्र के लिए 121 सीटें खाली रह गई हैं. पिछले चार साल में इतनी सीटें कभी खाली नहीं रहीं.

आईआईटी के निदेशक मानते हैं कि सीटें खाली रहने का कारण छात्रों को मनपसंद विकल्प न मिलना है. देश में स्किल इंडिया का इतना हो-हल्ला के बावजूद देश में अनिस्कल्ड लोगों की संख्या और बेरोजगारी तेजी से बढ़ी है. हालत यह हो गई है कि इंजीनियरिंग की जिस डिग्री को हासिल करना कभी नौकरी की गारंटी और पारिवारिक प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी, आज वह डिग्री छात्रों और अभिभावकों के लिए एक ऐसा बोझ बनती जा रही है. एसोचैम का ताजा सर्वे बता रहा है कि देश के शीर्ष 20 प्रबंधन संस्थानों को छोड़ कर अन्य हजारों संस्थानों से निकले केवल 7 फीसद छात्र ही नौकरी पाने के काबिल हैं. यह आंकड़ा चिंता बढ़ाने वाला इसलिए भी है, क्योंकि स्थिति साल-दर-साल सुधरने के बजाय लगातार खराब ही होती जा रही है. 2007 में किए गए ऐसे सर्वे में 25 फीसद, जबकि 2012 में 21 फीसद एमबीए डिग्रीधारियों को नौकरी देने के काबिल माना गया था.

शशांक द्विवेदी


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