सामयिक : लोकतंत्र और वीआईपी सुरक्षा

Last Updated 20 Sep 2017 02:08:17 AM IST

पिछले दिनों एक छोटी-सी खबर देखने को मिली कि देश में लगभग पांच सौ लोगों को स्पेशल सिक्योरिटी दी जा रही है.


सामयिक : लोकतंत्र और वीआईपी सुरक्षा

स्पेशल सिक्योरिटी का अर्थ है विशेष सुरक्षा, जिसे जेड प्लस, जेड, वाई और एक्स श्रेणी की सुरक्षा कहा जाता है. जिन्हें जेड प्लस की सुरक्षा मिलती है, उन्हें लगभग 35 से 40 सुरक्षा कर्मी 24 घंटे अपने घेरे में लिये रहते हैं. इन्हें एनएसजी की ओर से ये सुरक्षा कर्मी मुहैया कराए जाते हैं, जो एक विशेष रूप से प्रशिक्षित सरकारी सुरक्षा संगठन है.

एनएसजी ये सुरक्षाकर्मी सीआइएसएफ, सीआरपीएफ और बीएसएफ जैसे अर्धसैनिक बलों से पूल करता है. फिर उन्हें कमांडो ट्रेनिंग दी जाती है. वे आतंकवादी हमलों और विमान अपहरण जैसी स्थितियों से निबटने के लिए प्रशिक्षित होते हैं. उनकी टीम में आधुनिक हथियारों के जानकार और बम डिस्पोजल करने वाले भी होते हैं. सुरक्षाकर्मी स्वयं भी आधुनिकतम हथियारों से लैस होते हैं. वे अपनी ड्यूटी के दौरान हर क्षण पूरी तरह से तैयार और सतर्क रह सकें, इसलिए उनके खाने-पीने और आराम का पर्याप्त ध्यान रखा जाता है. इसका सारा खर्च सरकारी खजाने से दिया जाता है. 

आम तौर पर इस तरह की सुरक्षा प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्यों और संवेदनशील पदों पर काम कर रहे वरिष्ठ आधिकारियों को दी जाती है. लेकिन आजकल अनेक धर्म गुरुओं, विवादास्पद नेताओं-चाहे वे सत्ता में हों या सत्ता से बाहर और चाहे वे निर्वाचित हों या न हों व उनके परिवारीजनों को भी दी जाने लगी है. फिलहाल लगभग 50 लोगों को जेड प्लस स्तर की सुरक्षा दी जा रही है. इसके अलावा लगभग हर विधायक और सांसद को स्थानीय पुलिस विशेष सुरक्षा प्रदान करती है.

सामान्य विधायक को भी राज्य सरकारें दो या तीन सशस्त्र पुलिसकर्मी मुहैया कराती हैं. मंत्रियों, विपक्ष के नेता और सचेतक वगैरह को उनके दर्जे और रु तबे के हिसाब से ज्यादा सुरक्षा कर्मी दिए जाते हैं. किस नेता या व्यक्ति को कितनी सुरक्षा दी जाएगी, इसका फैसला और इंतजाम संबंधित गृह मंत्रालय करता है. मंत्रालय के अधिकारी बताते हैं कि इसके लिए आइबी या दूसरी आंतरिक सुरक्षा एजेंसियां इस बात का आकलन करती हैं कि किस व्यक्ति की जान को कितना खतरा है. उसके आधार पर प्रोटेक्शन रिव्यू ग्रुप और सिक्योरिटी कैटेगराइजेशन कमिटी यह तय करती हैं कि उसे किस श्रेणी की सुरक्षा दी जाए? इनकी रिपोर्ट के आधार पर गृह सचिव वह सुरक्षा मुहैया कराता है.

मगर वही गृह सचिव देश के उन इलाकों के बारे में नहीं सोच पाता, जहां दस कोस पर एक थाना है और जिस थाने में पांच या दस पुलिसकर्मी पाली बदल बदल कर उस बड़ी आबादी की सुरक्षा का इंतजाम देखते हैं. हमारे संसाधन सीमित हैं, आखिर हम हर कोने में पुलिस तो नहीं तैनात कर सकते. लेकिन उन्हीं सीमित संसाधनों में से कुछ लोगों को व्यक्तिगत और विशिष्ट सुरक्षा मुहैया कराई जा रही है. आखिर हमारी आंतरिक सुरक्षा एजेंसियां आम जनता के जान-माल के जोखिम का आकलन क्यों नहीं कर पातीं और गृह मंत्रालय के अधिकारी उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के बारे में इतनी ही गंभीरता से क्यों नहीं सोच पाते? हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का चेहरा विकृत हो रहा है. इसका नाम जरूर लोकतंत्र है, लेकिन इसका रुझान व्यक्तिमुखी होता जा रहा है.

उन्हें आप विशिष्ट कहें, वीआइपी कहें या समाज के कर्णधार कहें. लोकतांत्रिक व्यवस्था की प्राथमिकता कर्णधार की नहीं, आम जनता की रक्षा होनी चाहिए. सिर्फ वोट देने और टैक्स भरने का मतलब तो लोकतंत्र नहीं होता. इस लेख की शुरुआत हमने इस वाक्य से की है कि ‘पिछले दिनों एक छोटी सी खबर देखने को मिली.’ यह छोटी-सी खबर इसलिए बनती है, क्योंकि हम इस विद्रूप को कतई महत्त्व नहीं दे रहे हैं. हमारे लिए यह ‘ऐसा ही होता है’ टाइप मुद्दा है. इसलिए कई अखबारों ने इसे छापना भी मुनासिब नहीं समझा. टीवी चैनलों ने अपनी कोई राय देना जरूरी नहीं  समझा. कुछ गिने-चुने अखबारों ने इसे सिंगल कॉलम में भीतर या आखिरी पन्ने पर छाप कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री की.  लेकिन हमारे लोकतंत्र के लिए यह विचारणीय विषय है.

महत्त्वपूर्ण सिर्फ यह नहीं है कि यह वीआईपी सुरक्षा किन-किन लोगों को मुहैया कराई जा रही है या नागरिकों से वसूले गए कर का एक बड़ा हिस्सा किस तरह से कुछ खास लोगों पर खर्च की जा रही है. इस पर पहले भी कई बार विचार किया गया है. सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह समझना है कि हमारा लोकतंत्र ऐसे नेताओं को क्यों जन्म दे रहा है, जिनको इतना खतरा है? क्या सुरक्षा देने की इस व्यवस्था में कोई ऐसा खोट है, जो लोगों को विशिष्ट या वीआइपी बना रहा है और फिर उन्हें विशिष्ट नेता के रूप में जनता के ऊपर थोपा जा रहा है? या अपने नेता को चुनने की हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में कोई ऐसा खोट है जो ऐसे अलोकप्रिय तथा विवादास्पद लोगों को उस मुकाम तक पहुंचने दे रहा है, जहां से वे अपने लिए वीआईपी सिक्योरिटी का जुगाड़ कर सकें. वैश्विक राजनीति और प्रायोजित आतंकवाद के कारण केंद्रीय मंत्रिमंडल की सुरक्षा की जरूरत को समझा जा सकता है. लेकिन राज्यों द्वारा दी जाने वाली सुरक्षा के अलावा यहां 450 लोगों को वीआईपी सुरक्षा देनी पड़ रही है.

इस पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है कि ऐसे लोगों की तादाद इतनी ज्यादा क्यों और कैसे बढ़ रही है, जो जनता के प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं, पर आम जनता के बीच घूमने पर उनके लिए जान का खतरा पैदा हो रहा है. कहीं उन्होंने निर्वाचित होने के लिए ऐसे तरीकों का इस्तेमाल तो नहीं किया है, जिससे उनकी जान के लिए ज्यादा खतरा पैदा हो गया है? कहीं उन्होंने चुने जाने के बाद कुछ ऐसे जन विरोधी कदम तो नहीं उठाए हैं, जिनके कारण उनकी जान को खतरा बढ़ गया है? हम इसकी जांच करने के लिए कोई उपाय नहीं विकसित कर रहे हैं. हम यह नहीं समझना चाहते कि ऐसे नेता दूर से बैठकर जनता की समस्याएं कैसे जानेंगे? क्या उनके लिए भी ‘थ्रू प्रॉपर चैनल’ की ही व्यवस्था रहेगी, जैसी ब्यूरोक्रेट के लिए होती है? तो फिर वह लोकतंत्र कहां रहा?

बाल मुकुंद


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