संस्कृति : न चढ़े राजनीति की भेंट

Last Updated 19 Sep 2017 05:28:11 AM IST

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कुछ मामलों में जिस तरीके से व्यवहार कर रही हैं, उनका समर्थन करना बिल्कुल संभव नहीं है.


संस्कृति : न चढ़े राजनीति की भेंट

इस समय मुहर्रम के जुलूस के चलते विजयादशमी पर होने वाली मूर्ति विसर्जन पर 30 सितम्बर की शाम 6 बजे से 2 अक्टूबर की सुबह तक रोक लगाने का उनका आदेश देश भर में विरोध का कारण बना है. ऐसा नहीं है कि इसका विरोध करने वाले लोग सांप्रदायिक हैं, या उनके अंदर हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव कायम रखने की भावना नहीं है. किंतु इस तरह आप एक पूरी सनातन परंपरा को अपनी सरकारी ताकत से अनावश्यक रोकेंगी तो उसके विरु द्ध आक्रोश पैदा होगा ही. 

ममता और उनके समर्थकों का कहना है कि मोहर्रम का त्योहार इस साल एक अक्टूबर को पड़ रहा है. उस दिन इसका जुलूस निकलेगा और कोई गड़बड़ी न हो इस ध्यान में रखते हुए यह फैसला लिया गया है. ध्यान रखिए पिछले साल भी ममता ने मुहर्रम के दिन मूर्ति विसर्जन पर रोक लगाई थी. उस समय इस रोक के खिलाफ कोलकाता उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर हुई थी. अदालत ने ममता सरकार पर तीखी टिप्पणी की थी. कहा था कि यह एक समुदाय को रिझाने जैसा है. न्यायालय ने याद दिलाया कि 1982 और 1983 में दशहरे के दिन ही मुहर्रम था, लेकिन मूर्तियों के विसर्जन पर रोक नहीं लगाई गई थी.

तो जिस आदेश को अदालत ने गलत माना उसे ममता फिर से लागू करने पर उतारू हैं. इसका कारण क्या हो सकता है? अगर उनका इरादा हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सौहार्द और सद्भाव बनाए रखना है, तो इसका तरीका यह हो ही नहीं सकता. इससे तो सौहार्द बिगड़ेगा. दुर्गा-पूजा करने वाले यही तो कह रहे हैं कि एक समुदाय को खुश करने के लिए उनके धार्मिंक अधिकार का हनन किया जा रहा है. यही सच भी है. ममता प. बंगाल की परंपरा में पली-बढ़ी हैं. उनको प्रदेश की दुर्गा पूजा के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्त्व का पता होगा. वैसे तो दुर्गा पूजा का पर्व पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है. नवरात्र से ज्यादा पवित्रता से शायद ही कोई पर्व पूरे भारत में एक साथ मनाया जाता हो. किंतु प. बंगाल में दुर्गा पूजा का अपना विशिष्ट महत्त्व है. मूर्ति भसाओन यानी विसर्जन भी इस पूजा का ही अंग है.

पूजा के सारे दिनों और सारे कर्मकांडों का निश्चित मुहूर्त होता है, वैसे ही विसर्जन का भी है. ऐसा नहीं है कि आप किसी समय विसर्जन कर दीजिए. निश्चित मुहूर्त में विसर्जन के साथ ही आपकी पूजा पूर्ण होती है. इस बार विसर्जन का मुहूर्त 30 सितम्बर की शाम से आरंभ होता है. अगर आप इस पर रोक लगाते हैं, तो साफ है कि आप निर्धारित मुहूर्त में मूर्तियों का विसर्जन नहीं होने देना चाहते. संभवत: अंग्रेजों के राज में भी ऐसा नहीं हुआ होगा, जबकि उस दौरान तो बंगाल के क्रांतिकारी ज्यादातर दुर्गा और काली मां की वंदना कर ही भारत माता को मुक्त कराने का संकल्प लेते थे. अंग्रेजों को इस कारण दुर्गा एवं काली पूजा से चिढ़ भी होनी चाहिए थी.

प. बंगाल में धर्म को अफीम मानने वाले मार्क्‍सवादियों का शासन भी लंबे समय तक रहा लेकिन उन्हें इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई. पता नहीं ममता कैसे भूल गई कि हमारे यहां सांप्रदायिक सौहार्द की जड़ें परंपराओं और पवरे के साथ ही इस तरह डाली गई हैं कि उन्हें बाहर से धकियाया न जाए तो वे अपने आप बनी रहेंगी. जिस मोहर्रम के जुलूस को निर्बाध गुजारने की चिंता ममता दिखा रही हैं, उसमें सदियों से हिन्दू भी मुसलमानों के साथ भाग लेते रहे हैं. हिन्दुओं के दरवाजे पर ताजिया जाते हैं, और हिन्दू महिलाएं उनकी पूजा करती हैं, चढ़ावा चढ़ाती हैं. मुहर्रम के नाम पर लगने वाले मेले में हिन्दू और मुसलमान दोनों समान रूप से जाते रहे हैं. जिस त्योहार के साथ दोनों समुदायों का इतना संगम हो, उसे आप ऐसा बना दें कि उसके दिन मुहूर्त होते हुए भी मूर्ति विसर्जन नहीं हो सकता तो जाहिर है, आप सौहार्द के स्थापित तंतुओं को ध्वस्त कर रही हैं. वैसे भी हिंदुओं को अपने मूर्ति विसर्जन के समय मुहर्रम के जुलूस से समस्या नहीं है तो फिर मुसलमानों को क्यों होगी?

कोलकाता में दुर्गा प्रतिमा का विसर्जन हुगली (गंगा) नदी में होता है. कोलकाता और आसपास के जिलों के पूजा मंडपों को मिलाकर दुर्गा की लगभग 10 हजार मूर्तियां विसर्जन के लिए गंगा घाट पर पहुंचती हैं. अपार भीड़ जुटती है. मान लीजिए कि भीड़ सांप्रदायिक होगी और मुहर्रम के जुलूस पर हमला कर देगी तो इस सोच का समर्थन नहीं किया जा सकता है. सच तो यह है कि ममता अपनी राजनीति के लिए खतरनाक रास्ता अख्तियार कर रही हैं. प. बंगाल में 27-28 प्रतिशत मुस्लिम आबादी का बहुमत उनको मिलता है, और इसे बनाए रखने के लिए वह किसी भी सीमा तक जाने को तैयार हैं. मालदा से लेकर बसीरहाट तक उनके प्रशासन की भूमिका पूरे देश ने देखी है. किंतु वह बार-बार दिखाना चाहती हैं कि वह प्रदेश के मुसलमानों के साथ खड़ी हैं. इसीलिए भाजपा और संघ परिवार को निशाना बना रही हैं. संघ प्रमुख मोहन भागवत के कार्यक्रम के लिए बुक हॉल की बुकिंग रद्द कर दी गई. उसके बाद भाजपाध्यक्ष अमित शाह के कार्यक्रम के साथ भी ऐसा हुआ. अब नया फरमान सुनाया है कि संघ के विजयादशमी के दिन निकलने वाले वार्षिक पथ संचलन को नहीं होने देंगे. 

संघ तथा भाजपा की विचारधारा से ममता की असहमति उचित हो सकती है. लोकतंत्र ऐसी असहमतियों से चलता है. लेकिन यह भी देखें कि उनके संवैधानिक अधिकार पर वह आघात तो नहीं कर रही हैं. संघ विजयादशमी को अपना स्थापना दिवस मनाता है. राज्य में यह कार्यक्रम पहली बार नहीं हो रहा. उसे प्रतिबंधित कर ममता क्या दिखाना चाहती हैं? इसे समझने के लिए किसी शोध की जरूरत नहीं. हो सकता है फिर इन सबमें न्यायालय का हस्तक्षेप हो. ममता को पीछे हटना पड़े. किंतु जो राजनीतिक संदेश वह एक समुदाय को देना चाहती हैं, दे चुकी होंगी. किंतु वह समुदाय भी इतना नादान नहीं कि उनकी राजनीति को नहीं समझ रहा हो. वह भी किसी की राजनीति के लिए दूसरे समुदाय के साथ वैर भाव क्यों मोल लेना चाहेगा? उसकी इसी समझदारी पर देश को भरोसा है, ममता यह न करना चाहें तो न करें.

अवधेश कुमार
लेखक


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