मुद्दा : देवता करते सोमपान
देवता शराब पीते हैं. समाजवादी पार्टी सांसद नरेश अग्रवाल के यह कहते ही राज्य सभा में जैसे भूचाल आ गया था.
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वित्त और रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने यह तक कहा कि अगर माननीय सांसद ने यही बात संसद के बाहर कही होती तो उन पर मुकदमा दर्ज हो जाता. हालांकि सांसद ने यह बात एक स्कूल में टंगे ब्लैक बोर्ड के हवाले से कही थी. वहां यह बात सही तथ्यों से छात्रों को अवगत कराने की शिक्षण-संस्था और शिक्षक की नैतिक जिम्मेदारी जैसी मान्यताओं के मुताबिक लिखी गई थी. वहां इसको सेंसर करने की जरूरत नहीं समझी गई. लेकिन सदन की घोर आपत्ति थी और यह उल्लेख ‘बहुसंख्यक लोगों की आस्थाओं को ठेस पहुंचाने वाला आपत्तिजनक’ मानते हुए कार्यवाही से निकाल दिया गया. सांसद को भी खेद जताना पड़ा. इस तरह उस विवाद का बिना किसी विवेचना के वहीं का वहीं अंत कर दिया गया.
दरअसल, आस्था जिसे अपना अराध्य बनाती है, उसकी हैसियत अपनी कैफियत में इतनी बढ़ा देती है कि उनके विरुद्ध कुछ भी सुनना पसंद नहीं करती. चाहे जितने सही तथ्य हों, वह उन पर गौर करना नहीं चाहती. जो पूज्य हैं, अराध्य हैं, श्रद्धेय हैं या वरेण्य हैं, वह ऐसा निंदनीय कर्म कैसे कर सकते हैं! अगर किये भी होंगे तो वह उनकी पावन लीला रही होगी या उनका अलौकिक उद्देश्य रहा होगा. इसलिए लौकिक जगत में उनका अनुकरण नहीं किया जा सकता. यह दृष्टि तथ्यों के बावजूद उन प्रसंगों से गाफिल रहने पर जोर देती है.
लोक-आस्था के विपरीत, स्थापित तथ्य यह है कि हमारे देवता मद्यपान करते थे-सामान्य और विशेष दोनों अवसरों पर. पवित्र ग्रंथ वेदों में ही इसका खूब वर्णन मिलता है. इसमें इंद्र, अग्नि, वरुण, मरुत्त आदि देवता विशिष्ट अवसरों पर सोम पान करते थे. सोम एक प्रकार का पौद्या था, जिससे नशीला पेय पदार्थ बनाया जाता था. इसी नाम से एक वैदिक देवता भी हैं. इनमें इंद्र तो ऐसे वैदिककालीन देवता हैं, जो छक कर सोमपान करते थे. हालांकि अग्नि समेत बाकी देवता उनकी तुलना में बहुत संयमित थे. वैदिक काल में वाजपेय यज्ञ के पहले देवताओं में सामूहिक सोमपान का रिवाज था ही. ‘सुरा’ भी एक वैरायटी थी, पर उसका उपयोग अन्य जन करते थे.
वैदिक साहित्य के उपजीव्य पौराणिक और महाकाव्यात्मक ग्रंथों-महाभारत और रामायण में भी सोमपान का उल्लेख मिलता है. कृष्ण-अजरुन के साथ द्रौपदी और सत्यभामा तक के मद्यपान का जिक्र है. और अगर हम अपनी श्रद्धा पर इसे चोट न मानें तो राम और सीता के मद्यपान का वर्णन रामायण में ही मिलता है. गंगा पार करते समय सीता उन्हें मांस-भात और हजारों बर्तन में रखी शराब की भेंट देने की कामना करती हैं. इसी तरह, पुराग्रंथों में वर्णित समुद्रमंथन से निकलीं वारुणी तो शराब की देवी ही थी. वारुणी की प्रतिष्ठा एक तेज नशा देने वाले मद्य के रूप में भी थी. मद्यपान की यह परम्परा प्राचीन भारत की वैशिष्ट्य कही जाने वाली साधना पद्धतियों में से एक तंत्र-साधना में भी मिलती है.
प्रसिद्ध पंच मकार-मदिरा, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन-में यह प्रमुख प्रकार है, जिसका प्रयोग आज भी अनिवार्यत: होता है. उग्र देवियां मानी जाने वालीं काली, छिन्नमस्ता, बगलामुखी आदि की साधना बैगर मदिरा अधूरी है.
देश के दूर-दराज के ग्रामीण इलाके में चले जाएं या राजधानी दिल्ली के पॉश इलाके में; काल-भैरव, जिन्हें शिव का प्रमुख गण माना जाता है, का चढ़ावा मदिरा ही है. नये वाहन खरीद कर काल भैरव मंदिर में शराब चढ़ाने वालों की भीड़ नियमित देखी जा सकती है. और मदिरा के चढ़ावे का मतलब ही है, देवता इसका पान करते हैं. आदिवासी, कबीलाई और बाकायदा बसे गांवों में भी कई देवी-देवता ऐसे हैं, जिनकी पूजा में मदिरा एक अनिवार्य सामग्री है.
कहने का मतलब है कि हमारे देवी-देवताओं के मदिरासेवी न होने की बात निराधार है. न ही इसको स्वीकार करने से या जुबां पर इसको लाने से उनके प्रति हमारी आस्था खंडित हो जाती है. फिर साक्ष्यों को खारिज करते जाने से भी कोई समाज या समझ वैज्ञानिक नहीं बनती. जैसे वैदिक साहित्य, पुराणों के अन्य विवरण हैं, वैसे ही सोमपान की बात एक तथ्य है. तब के समाज और संस्कृति में जो चलन में था, उस लिहाजन वे देवता भी आचरण करते थे. फिर हिंदू समाज सत्य को स्वीकारने में इतना अनुदार नहीं है. उसे देश-काल-पात्र की समझ है. लिहाजा, वह देवताओं के मद्य-पान प्रसंग को उसी संदर्भ में देखता है.
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