भाजपा अब कर दिखाइए
वेंकैया नायडू के उपराष्ट्रपति पद पर निर्वाचन के साथ ही देश के तीन सर्वोच्च संवैधानिक पद-राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि से भाजपा में आए नेताओं के हाथों आ गया है. अगर इसमें लोक सभा अध्यक्ष का पद भी जोड़ दें इसकी संख्या चार हो जाती है. यह कोई सामान्य स्थिति नहीं है.
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यह एक असाधारण स्थिति है. जब 1980 में भाजपा का गठन हुआ तो उस समय शायद ही किसी ने इस स्थिति की कल्पना की होगी. और तो छोड़िए कुछ वर्ष पूर्व तक यदि यह बात बोली जाती तो कोई आसानी से इसे स्वीकार नहीं करता. 2002 में भाजपा के पास मौका था, जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार थी. किंतु उस समय भाजपा को बहुमत नहीं था एवं इतने राज्यों में सरकारें भी नहीं थीं. इसलिए वाजपेयी एवं आडवाणी ने डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का नाम आगे लाया. हालांकि, उप राष्ट्रपति पद पर वे पुराने जनसंघी भैरोसिंह शेखावत को आसीन कराने में सफल रहे. किंतु 2007 में भाजपा उनको राष्ट्रपति बनाने में सफल नहीं हुई.
परिस्थितियों ने करवट बदली और आज भाजपा के तीन नेता बिना किसी जोड़-तोड़ के आसानी से अपने बहुमत के आधार पर इन तीनों पदों पर आरूढ़ होने में सफल है. भाजपा की राजनीति की दृष्टि से कुछ विश्लेषकों ने इसे स्वर्णकाल कहा है. स्वर्णकाल हमेशा नहीं रहता. इसलिए इस काल का उपयोग कर लंबे समय की आकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश में ही बुद्धिमानी है.
वास्तव में तीनों सर्वोच्च पदों पर आसीन होने के बाद भाजपा की जिम्मेवारी और चुनौतियों दोनों बढ़ी हैं. हालांकि, राष्ट्रपति एवं उप राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित होने के बाद कोई किसी पार्टी का व्यक्ति नहीं होता, पर विचारधारा तो उसकी कायम रहती है. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और प. नेहरू के बीच हिन्दू विधि संहिता पर मतभेद विचारधारा के कारण ही तो था. पहले जनसंघ और बाद में भाजपा ने देश के सामने अपना विचार लंबे समय तक रखा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो 1925 से अपनी विचारधारा का प्रचार और उसके आधार पर अपना विस्तार करता रहा है.
भाजपा पहले यह दलील देती थी कि उसे संसद में बहुमत नहीं है, राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति दूसरी विचारधारा के हैं, संसद के दोनों सदनों के सभापति उसकी सोच के नहीं हैं, अधिकांश राज्यों में उसकी सरकारें नहीं हैं. भाजपा की यह दलील अब कमजोर हुई है. लोक सभा में तो उसे बहुमत है ही, राज्य सभा में वह सबसे बड़ी पार्टी है. देश की दो तिहाई से ज्यादा आबादी वाले राज्यों में उसका अकेले या सहयोगियों के साथ शासन है. कुल मिलाकर यह समय है जब भाजपा यह साबित करे कि उसने जनसंघ के समय से जिस विचार का प्रचार किया है, जिनके प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है, जिन परिवर्तनों के लिए उसने लोगों से अपने साथ जुड़ने की अपील की है, आजादी से लेकर आज तक जिन नीतियों की आलोचना कर उसके समानांतर नीतियों की बात की है, उन सबको वह भूली नहीं है. इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जिम्मेवारी ज्यादा बढ़ जाती है. भाजपा और संघ का जब भी नाम लिया जाता है मुख्यत: तीन मुद्दों की चर्चा होती है-समान नागरिक संहिता, अनुच्छेद 370 का अंत और अयोध्या में विवादित स्थल पर श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण. दो मुद्दों ने भाजपा को 1984 के दो सीटों से लेकर 1996 तक देश की सबसे बड़ी पार्टी बना दिया वह था-राममंदिर और स्वदेशी.
लेकिन बाद में भाजपा का नारा बदल गया. भाजपा के नेता यह समझ नहीं सके कि 2004 में वे चुनाव क्यों हारे? इसका उत्तर वाजपेयी सरकार की नीतियों में निहित था. उसने आम सरकारों की कसौटियों पर तो अच्छा काम किया, लेकिन भाजपा एवं संघ परिवार की कसौटियों पर नहीं. उस काल में वि हिन्दू परिषद से लेकर, भारतीय मजूदर संघ, भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच..सब सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरते थे. अनेक बड़े प्रचारकों ने संगठन छोड़कर अपना अलग रास्ता बनाया. इनकी संख्या कम नहीं थी. इतना व्यापक असंतोष उसके खिलाफ हो गया था. नरेन्द्र मोदी के आगमन ने इस पूरी स्थिति में आमूल बदलाव कर दिया. पूरा परिवार फिर से एकजुट हुआ और इसका असर जनता पर भी पड़ा. इस बार संगठन परिवार ने वाजपेयी के समय से ज्यादा धैर्य दिखाया है. किंतु अब सरकार की जिम्मेवारी है कि वह उनकी अपेक्षाओं को पूरा करे जो उसका मूल दायित्व है. जिन तीन मुद्दों की हमने चर्चा की वे भाजपा और संघ परिवार की समग्र विचाधारा के केवल तीन प्रतीक हैं.
वे देश की शिक्षा प्रणाली में ऐसा आमूल बदलाव चाहते थे ताकि इससे केवल नौकरी करने वाले नहीं रवीन्द्रनाथ टैगोर और विवेकानंद जैसे व्यक्तित्व पैदा हों. फिर उसके अनुसार जीवन शैली और अर्थनीति. क्या यह सरकार वैसा कर सकेगी? वे देश को विदेशी सभ्यता के प्रभावों से पूरी तरह मुक्त करने का वायदा करते थे? क्या इसके लिए भाजपा के पास कार्ययोजना है? राष्ट्र को सांस्कृतिक अधिष्ठान मानने की बात करते थे? राष्ट्र की परिभाषा और अवधारणा को लेकर ही हमारे देश में व्यापक मतभेद है उसे दुरूस्त करने का वायदा जनसंघ और भाजपा का रहा है. अर्थनीति में यह प्रकृति के साथ जुड़ी हुई प्रणाली की बात करती थी. इसमें समाज को पूंजीवादी भोग वर्चस्व व्यवस्था से बाहर निकालने और संयम और त्याग वाल भारतीय जीवन पण्राली अपनाने के लिए काम करने की बात थी.
दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानव दर्शन इन सबका दर्पण है. देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार विचार में संशोधन और परिवर्तन होते हैं, पर इसके मूलतत्व वही रहते हैं. पूरी दुनिया बदली है. किंतु दुनिया उस अनुसार नहीं बदली है जैसी उसे बदलनी चाहिए. साम्यवादी व्यवस्था के ध्वस्त होने के बाद बाजार पूंजीवादी व्यवस्था सर्वस्वीकृत अर्थव्यवस्था बना दी गई है. भाजपा को सोचना है कि वह उसी का अनुसरण करते हुए उसकी धारा में बहने की जो वर्तमान नीति है, उसी पर कायम रहे या फिर उसमें बदलाव लाकर अपनी विचारधारा के अनुरूप काम करने की कोशिश करे. वस्तुत: अब भाजपा के पास अवसर है कि वह अपने पुराने वायदों और विचारों को साकार करने की दिशा में काम करके अपनी प्रतिद्वबता दिखाए.
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