परत-दर-परत : शरद से कितनी उम्मीद कर सकते हैं

Last Updated 06 Aug 2017 07:11:38 AM IST

नीतीश कुमार का मामला अब बासी पड़ गया है. दुबारा भाजपा के साथ जा कर उन्होंने इस अर्थ में इतिहास बनाया कि जब चारों तरफ चर्चा थी कि 2019 में विपक्ष उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए संयुक्त उम्मीदवार बना सकता है.


परत-दर-परत : शरद से कितनी उम्मीद कर सकते हैं

माना जाता है कि भ्रष्टाचार के मामले में उनकी छवि इस समय देश के सभी नेताओं में सब से अच्छी है. माना जाता है, इसलिए कह रहा हूं कि जो सत्ता की राजनीति में है और कोई राजनैतिक दल चला रहा है, वह भ्रष्ट हुए बिना कैसे रह सकता है? लेकिन जब तक कोई मामला सामने नहीं आता, हमें यही मान कर चलना चाहिए कि कॉमरेड के कोट पर कोई दाग नहीं है. 2019 के संसदीय चुनाव के संदर्भ में नीतीश कुमार के राजनैतिक व्यक्तित्व की अहमियत यही है.
नीतीश से एक आशा यह भी की जा रही थी कि विपक्षी एकता का सूत्रधार बन सकते हैं. नरेन्द्र मोदी में देश एक महानायक खोज रहा था. लेकिन इस खोज का असमय गर्भपात हो चुका है. बेशक, मोदी अभी भी देश के सब से लोकप्रिय नेता हैं, लेकिन जो लोग समझ रहे थे कि उनके नेतृत्व में देश विकास के नये मानक बनाएगा, वे भी दबी जुबान से अपनी निराशा को अभिव्यक्ति देने लगे हैं. महानायक को न केवल ईमानदार होना चाहिए, बल्कि ईमानदार दिखना भी चाहिए. इस दृष्टि से देखा जाए तो बिहार के महागठबंधन को तोड़ कर नीतीश ने न केवल अपना कद गिरा लिया है, बल्कि जिसके पास गए हैं, उसकी साख को भी धक्का पहुंचाया है.

लेकिन जीवन की तरह राजनीति की भी खूबी यह है कि एक साथ सभी रास्ते बंद नहीं होते. एक संभावना जाती है, तो दूसरी पैदा हो जाती है. बढ़ते हुए अंधेरे के बीच जदयू के दूसरे बड़े नेता शरद यादव नई संभावना के रूप में उभरे हैं. नीतीश कांड की कोई उपलब्धि है तो यही है. शुरू में स्पष्ट नहीं था कि जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार द्वारा हठात रास्ता बदल लेने के बाद शरद क्या करेंगे. उनके भविष्य के बारे में परस्पर विरोधी खबरें आ रही थीं. हाल ही में उन्होंने कहा है कि कोई नई पार्टी बनाने नहीं जा रहे हैं. मेरे खयाल से यह ठीक ही है, क्योंकि उनका जनाधार ऐसा नहीं है कि कोई स्वतंत्र पार्टी खड़ी कर सकें. मैं यह नहीं कहूंगा कि उम्र भी हो गई है. इतिहास बताता है कि जब कोई नेता किसी बड़ी राजनैतिक चुनौती का सामना करने का निर्णय करता है, तो उम्र आड़े नहीं आती. शरद संकल्प करें तो आज भी सच्ची समाजवादी पार्टी खड़ी कर सकते हैं. राजनैतिक दिशाहीनता के वर्तमान माहौल में देश आगे बढ़ कर स्वागत करेगा. लेकिन शरद ने इशारा कर दिया है कि नीतीश का साथ नहीं देंगे. वह लालू प्रसाद के पक्ष का समर्थन करेंगे.
यहां मैं हस्तक्षेप करना चाहता हूं कि नीतीश की साख गिरी है, पर लालू की साख बढ़ी नहीं है. उन्हें भ्रष्टाचार के साथ जोड़ कर देखना कम नहीं हुआ है बल्कि सवाल उठा है कि धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए क्या हमें भ्रष्टाचार के साथ समझौता करना पड़ेगा? इसका उचित उत्तर यही है कि धर्मनिरपेक्षता की रक्षा वही कर सकता है, जो देश को स्वच्छ राजनीति दे सकता है. बाकी जो भी विकल्प चुने जाएंगे, वे सामयिक रूप से भले सफल हो जाएं पर लंबे दौर में समस्या को और गहरा ही करेंगे. इसलिए जो लोग 2019 में विपक्ष के लिए आसान विकल्प बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उनके बारे में शक होता है कि समस्या की गहराई और व्यापकता को महसूस कर रहे हैं या नहीं. एक बार फिर यह बात रेखांकित की जानी चाहिए कि चुनौती नई सरकार बनाने की नहीं, बल्कि एक नई व्यवस्था बनाने की है, जो अभी तक चली आ रही व्यवस्था की विफलताओं से सीख कर देश को नया जीवन दे सके. सरलीकरण का आरोप न लगाया जाए तो कहा जा सकता है कि भारत इस समय परंपरा और आधुनिकता का सब से बड़ा संघर्ष झेल रहा है.
मैं नहीं समझता कि लालू के साथ जाना या उनकी पार्टी में शामिल होना शरद के सामने कोई वास्तविक विकल्प है. शरद जैसे स्वतंत्रचेता नेता का लालू के साथ निभाव बहुत मुश्किल है. कुछ लोग सोचते हैं कि लालू विपक्षी गठबंधन के प्रणोता का काम कर सकते हैं. पर सचाई यह है कि उनकी राजनीति और राजनैतिक शैली पुरानी पड़ चुकी है. पिछड़ा-दलित गठबंधन कोई जादू की छड़ी नहीं है कि सारी समस्याओं का समाधान निकाल देगा. इसके लिए पास प्रगतिशील दृष्टि चाहिए. यह काम कोई मौजूदा नेता कर सकता है, तो वे शरद यादव ही हैं. 1974 में जेपी ने उन्हें जबलपुर से संसदीय चुनाव लड़ने के लिए विपक्ष का संयुक्त उम्मीदवार चुना था. यादव जीते भी. क्या उनकी यह राजनैतिक पृष्ठभूमि उनकी नई भूमिका का ताना-बाना बुन सकती है? यह भूमिका जेपी जैसी होगी या वीपी सिंह जैसी? शरद परिपक्व नेता हैं. कोई तीसरा रास्ता भी बना सकते हैं. चुनौती बहुत बड़ी है. रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा है. सहयोगी कमजोर और शिथिल हैं, लेकिन समय काफी है. लोगों को शरद यादव से उम्मीद है. देखना यह है कि वे कितना राजनैतिक साहस जुटा पाते हैं. मेरे खयाल से, यह उनके लिए अपने राजनैतिक कॅरियर का सब से बड़ा जुआ खेलने का समय है.

राजकिशोर
लेखक


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