आजादी अभी बाकी है
आजाद हिन्दुस्तान की उम्र अपने 71वें जन्मदिवस पर भी देश के दिग्गज राजनीतिज्ञों लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, प्रणब मुखर्जी, मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, मुलायम सिंह और शरद पवार से छोटी है.
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आजादी के तीन साल बाद पैदा हुए, जिनके हाथों में देश की बागडोर है. अपने तीन साल के शासन में ही मोदी सरकार ने दुनिया का परिचय एक ऐसे भारत से कराया है, जो संभावनाओं से भरपूर है और जहां निवेश की असीमित संभावनाएं हैं. बावजूद इसके भारत की अधिसंख्य आबादी अब भी रोजगार और रोटी के लिए तरस रही है. सही मायने में सरकार के लिए 71वीं वषर्गांठ पर यही चुनौती है. इसके अलावा, देश सीमा पर भी चुनौतियों का सामना कर रहा है.
कहा जाता है कि किसी देश की विदेश नीति और उसमें बदलाव विभिन्न देशों के आर्थिक हालात से तय होते हैं. दुनिया में हो रहे आर्थिक उथल-पुथल के बीच इसमें संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यह घोषणा सच होने वाली है कि 21वीं सदी एशिया की सदी होगी. भारत और चीन इस विकास के खेवनहार होंगे. आजादी के 70 साल बाद आज विचारणीय मसला यह है कि दोनों देश आर्थिक विकास में मिलकर एशिया का नेतृत्व करने जा रहे हैं या विकास के रास्ते में एक-दूसरे से लड़ते हुए वे ऐसा करने वाले हैं.
‘वन बेल्ट वन रोड’ की पहल कर चीन ने प्राचीन सिल्क मार्ग पर कब्जा करने की शुरूआत कर दी है. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से होकर इसका रास्ता ग्वादर बंदरगाह तक बनाया है, जो चीन को व्यापारिक नजरिए से मध्य-पूर्व एशिया, अफ्रीका और यूरोप तक से जोड़ देगा. ऐसा करते हुए चीन ने पाकिस्तान में निवेश की इतनी जबरदस्त योजना बनाई है कि जो 2002 के बाद पाकिस्तान को कुल अमेरिकी मदद के दोगुने के बराबर होगा. पाकिस्तान अगर अमेरिका से छिटक कर चीन की गोद में गया है तो यह इसकी सबसे बड़ी वजह है. ‘वन बेल्ट वन रोड’ से नेपाल समेत दसियों देशों को जोड़कर चीन ने अपने इरादे साफ कर दिए हैं.
अमेरिका की दुनिया में धौंस पहले जैसी नहीं रही, यूरोपीय यूनियन से अलग होकर इंग्लैंड स्वतंत्र आर्थिक विकास के रास्ते पर चलने को उतारू है. इन परिस्थितियों में यह संतोष की बात है कि चीन के मुकाबले इन देशों में भारत का स्वागत हो रहा है. पीएम मोदी ने आक्रामक तरीके से विदेश दौरे कर भारत के संभावित वैश्विक नेतृत्व की तस्वीर बनाने में कामयाबी हासिल की है. लेकिन विदेश दौरे की इन सफलताओं के बीच मोदी सरकार डोकलाम मामले में चीनी चुनौतियों का सामना करती दिख रही है.
दुनिया ने जितना विकास किया है, उतना ही अधिक युद्ध का खतरा भी बढ़ा है. भारत-चीन, भारत-पाकिस्तान सीमा पर तनाव युद्ध का रूप न ले ले, यह आशंका बनी हुई है. इसी तरह यह आशंका भी बनी हुई है कि उत्तर कोरिया कहीं चीन और रूस की शह पाकर अमेरिका से न उलझ जाए. मध्य एशिया तो पहले से ही हिंसा की चपेट में है. वैसे, भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने यह साफ तौर पर कहा है कि युद्ध कोई नहीं चाहता और न यह किसी समस्या का समाधान है. अपनी ओर से उन्होंने पूरा धीरज बनाए रखने का विश्व को भरोसा दिलाया है.
नोटबंदी से पहले आर्थिक विकास में सबसे तेज रहने वाला भारत एक बार फिर 2017 में चीन से इस मामले में पिछड़ चुका है. चुनौती आर्थिक विकास को पटरी पर लाने की है. जनधन योजना, कौशल विकास, उज्ज्वला योजना, फसल बीमा योजना, कैशलेस इंडिया जैसी पहल का मकसद निस्संदेह व्यापक है और अगर ये योजनाएं सफल रहीं, तो भारत की महत्त्वाकांक्षाएं भी पूरी हो सकती हैं. मगर हालात ये हैं कि ‘ईज ऑफ बिजनेस डुइंग’ यानी व्यापार करने में सहूलियत के मामले में भारत 189 देशों में 130वें नंबर पर है. यह इस तथ्य के बावजूद है कि मोदी सरकार ने लगातार प्रक्रियाओं की जटिलता खत्म करने की पहल और इसमें सफलता के दावे किए हैं.
औद्योगिक विकास के लिए सड़क, बिजली की व्यवस्था पर सरकार काम करने का दावा तो कर रही है, लेकिन अब तक उसके ठोस नतीजे देखने को नहीं मिले हैं. 2017 में जनवरी से जून के बीच औद्योगिक विकास दर में कमी आई है. बेरोजगारी बढ़ी है और रोजगार के मौके कम हुए हैं. इसी तरह, कृषि उत्पादन में बड़े-बड़े दावों के बीच किसान आत्महत्या कर रहे हैं. उनके लिए खेती जिन्दगी पर बोझ बनी दिख रही है. उद्योग और कृषि में सुधार की संभावनाओं को खोज निकालना और उस पर अमल करना मोदी सरकार के लिए आने वाले समय में बड़ी चुनौती रहेगी.
राजनीतिक क्षेत्र में सत्ताधारी बीजेपी जरूर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सफलता के झंडे गाड़ रही है. लोक सभा के बाद अब राज्य सभा में भी एनडीए के बहुमत के रास्ते साफ होने लगे हैं. देश के दो तिहाई राज्यों में बीजेपी या उसके सहयोगी दलों की सरकार चल रही है. विभिन्न राज्यों में सरकार के लिहाज से कांग्रेस लगातार साफ हो रही है, जबकि बीजेपी मजबूत होती चली जा रही है, कहा जा सकता है कि चुनाव में जीत अब बीजेपी की आदत बन चुकी है.
मोदी सरकार की जिन विफलताओं का जिक्र होता है उनमें कश्मीर में अशांति प्रमुख है. बुरहान बानी के मारे जाने के बाद हालात खराब हुए हैं. घरेलू मोर्चे पर घर वापसी, बीफ, दलितों की पिटाई, लिंचिंग जैसे मसलों पर कानून-व्यवस्था को हाथ में लेने की घटनाएं बढ़ी हैं. नक्सली हमले भी चुनौती बने हुए हैं. इतना ही नहीं, काला धन और भ्रष्टाचार खत्म करने की तमाम कोशिशों के बावजूद यह रु का नहीं है. नए नोटों के साथ भी काला धन छापेमारी में मिल रहे हैं. विदेश से काला धन लाने का मसला भी फंसा हुआ है. विजय माल्या हों या ललित मोदी- सरकार को अंगूठा दिखाते हुए विदेश में सैर कर रहे हैं.
महंगाई नियंत्रण में होने के दावे की भी नोटबंदी के बाद पोल खुलने लगी है. सब्सिडी खत्म करने की नीति और जीएसटी का बोझ गरीबों पर पड़ा है. व्यापारी निरंकुश तरीके से आम उपभोक्ताओं के साथ छल कर रहे हैं. उनसे 18 फीसद जीएसटी वसूल रहे हैं. इस तरह जीएसटी का उद्देश्य भले ही व्यापक और पवित्र हो, लेकिन यह आम लोगों पर बोझ को बढ़ाता दिख रहा है. लोक कल्याणकारी योजनाओं को किस तरह जनता के लिए फायदेमंद बनाया जाए, व्यापार का माहौल कैसे तैयार हो, निवेश का आकषर्ण नजर आए और खेती से लेकर उद्योग-धंधों तक का विकास हो, रोजगार बढ़े, लोगों की आमदनी बढ़े, पड़ोसी देशों के साथ संबंध घनिष्ठ हों, इन सभी दिशा में आगे बढ़ने और मार्ग की बाधाओं को दूर करने की चुनौती आजादी की 71वीं वषर्गांठ पर साफ-साफ महसूस हो रही है. देश की बहुसंख्यक आबादी के लिए अब भी यह बात कही जा सकती है कि आजादी अभी बाकी है.
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