मुद्दा : हिरोइन तीस की ही क्यों?

Last Updated 04 Aug 2017 02:31:58 AM IST

हमारे फिल्म उद्योग की चाल के उलट 90 के दशक की एक मशहूर अभिनेत्री, अभिनय के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता नीना गुप्ता ने फिल्मों और टीवी में अपने लिए काम मांगा है.


मुद्दा : हिरोइन तीस की ही क्यों?

इस मांग को देश के कई अखबारों ने हैरानी के भाव के साथ प्रकाशित किया. हैरानी इसलिए जताई जा रही है क्योंकि नीना गुप्ता 62 की हो चुकी हैं, ऐसे में कोई उन्हें फिल्म में या टीवी धारावाहिकों में काम क्यों देगा. असल में यह समाचार अपने आप में एक विरोधाभास का संकेत भी देता है क्योंकि हमारा फिल्म उद्योग 50 पार के सलमान, शाहरु ख आदि को चॉकलेटी हीरो की तरह पेश कर सकता है, दर्शक भी मुग्ध भाव से उनकी फिल्में देख सकते हैं, पर कोई अभिनेत्री 50 या 60 की उम्र में काम मांगे, तो उसे आश्चर्य से देखा जाता है.
आखिर क्यों हमारी फिल्मों की अभिनेत्री जवान या कमसिन ही होनी चाहिए? आम तौर पर इस चाहत के तीन अहम कारण बताए जाते हैं. दावा किया जाता है कि भारतीय दशर्कों का मिजाज ऐसा है कि वह 30 से ऊपर की हीरोइन को बूढ़ी मानता है.

दूसरे, चूंकि फिल्म निर्माता दर्शकों की पसंद को ही ध्यान में रखते हैं, लिहाजा वे खुद भी 30 से ऊपर की हीरोइन को अपनी फिल्म में लेने से परहेज करते हैं. तीसरे, खुद हीरोइनें ऐसा मान लेती हैं कि 30 पार करने के बाद, शादी और बच्चे हो जाने पर उन्हें हीरोइन के रूप में दर्शक शायद देखना गवारा न करें. हालांकि इस मिथक को तोड़ने की कोशिशें कुछ हीरोइनों ने इस दौरान की हैं. जैसे माधुरी दीक्षित ने फिल्म ‘आजा नच ले’ और ‘गुलाबी गैंग’ से और श्रीदेवी ने दमदार फिल्म ‘इंग्लिश-विंग्लिश’ और फिर ‘मॉम’ से वापसी का प्रयास किया. इन फिल्मों में दोनों का काम पसंद भी किया गया, लेकिन कमाई के मामले में ये फिल्में सुपरहिट नहीं मानी जातीं. अभिनेत्रियों की उम्र की कसौटी पर हमारा फिल्म उद्योग असल में एक खास ग्रंथि का शिकार है. कमाई के मामले में हॉलीवुड से थोड़ा ही पीछे रहने वाले हमारा सिनेमा जगत महिलाओं के चितण्रके मामले में दुनिया के दूसरे देशों के सिनेमा से काफी पीछे है. इसका आशय है कि हमारी फिल्मों में महिलाओं को या तो सजावटी वस्तु के रूप में दिखाया जाता है या फिर सेक्सी छवि के साथ परोसा जाता है ताकि दशर्कों को सिनेमाघरों तक खींचा जा सके. इस सोच से संबंधित एक खुलासा वर्ष 2014 में संयुक्त राष्ट्र की एक इकाई यूएन वीमेन एंड रॉकफेलर फाउंडेशन ने हॉलीवुड के पूर्व अभिनेत्री डीना डेविस के इंस्टीट्यूट ऑफ जेंडर इन मीडिया द्वारा 11 देशों में किए गए एक अध्ययन से हुआ था. अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, चीन, ब्राजील, कोरिया, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी, जापान और भारत की फिल्मों में खासतौर से महिलाओं की मौजूदगी और पेश की जाने वाली उनकी छवि को केंद्र में रखकर किए गए अध्ययन से स्पष्ट हुआ था कि भारतीय फिल्मों में महिला पात्रों को न तो कायदे की भूमिकाएं दी जाती है और न ही उन्हें सशक्त किरदार वाले किसी प्रगतिगामी भूमिका में पेश किया जाता है. अध्ययन में भी यह बात जोर देकर कही गई थी कि भारतीय फिल्मों में हीरोइनों को सेक्सी व ग्लैमरस रोल में पेश करने की होड़ लगी रहती है. पहले हीरोइन का मतलब होता था उसके अभिनय को अहमियत दिया जाना. लेकिन अब तो ये मायने ही बदल गए हैं. आइटम गीतों और अंग प्रदशर्न की मांग के चलते हीरोइन की कमसिन देह और जीरो फिगर जैसे मापदंडों पर ज्यादा जोर दिया जाता है.
इन्हीं मांगों का दबाव है कि अब ज्यादातर फिल्म निर्माता 30 से कम उम्र की हीरोइनों को ही काम देते हैं. चूंकि देश में होने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताओं के जरिये लड़िकयां सिनेमा और टीवी उद्योग को मिल जाती हैं, इसलिए भी अभिनेत्रियों पर यह दबाव रहता है कि वे किसी भी तरह इस इंडस्ट्री में टिकी रह सकें. इससे हमारे समाज की बदलती मानसिकता का पता चलता है, जो अच्छे और बुरे में अंतर करने और खराब को खारिज करते हुए श्रेष्ठ की सराहना करने के अपने दायित्व से विमुख हो रहा है. ऐसे में बहुत संभव है कि कोई फिल्म निर्माता किसी दमदार महिला किरदार को अपनी फिल्म में पेश करे और कोई हीरोइन उसमें अपने अभिनय से जान डाल दे, लेकिन तो भी वह फिल्म चले नहीं. इसलिए जरूरी है कि आम दर्शक आइटम गीतों से और हीरोइनों की सेक्सी इमेज से लैस बंधी-बंधाई लीक पर चलने वाली फिल्मों को खारिज करें और कोई सार्थक संदेश देने वाली अच्छी फिल्मों को प्रोत्साहन दें. तभी हमारी फिल्म इंडस्ट्री पर फूहड़ और उत्तेजक फिल्में नहीं परोसने का दबाव पैदा होगा और निर्माता अपना ध्यान बजट और कमाई की बजाय अच्छी कथावस्तु वाली साफ-सुथरी फिल्मों पर लगा सकेंगे.

मनीषा सिंह
लेखिका


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