महबूबा : दिखने लगा असली चेहरा
कश्मीर के एक मुख्यमंत्री ने कई साल पहले एक बातचीत के दौरान कहा था कि जब हमारी कुर्सी खिसकने लगती है तो केंद्र सरकार को गाली देना और अपने सारे दोष उसके मत्थे मढ़ देना सब से आसान नुस्खा होता है.
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यह नुस्खा केवल कश्मीरी नेताओं को ही रास नहीं आता, भारत के अन्य कई राज्यों में भी यह खासा लोकप्रिय है. लेकिन महबूबा मुफ्ती की तकलीफ कुछ अधिक गहरी है. उनकी केवल कुर्सी ही नहीं खिसक रही है, उनका राजनैतिक वजूद ही खतरे में पड़ गया है.
जब उनके पिता ने पीडीपी बनाई तो वे अपने राजनैतिक जीवन की सभी गलियों सेघूम कर आ चुके थे, कहीं से उन्हें मंजिल नहीं मिली थी. इसलिए एकदम नई पार्टी बनाने का फैसला किया. पार्टी तो नई थी लेकिन जिन कार्यकर्ताओं और समर्थकों से उसे बनाना था वे नये नहीं थे. उनका अपना रुझान था, वे एक खास प्रकार की मन:स्थिति के लेग थे, जो विचार से अलगाववादी थे. लेकिन अब अपने घर बार को भी सम्भालना चाहते थे. उन्हें मुफ्ती ने कुछ आासन दिए थे, कुछ उनके काम-धंधों के बारे में तो कुछ कश्मीर के बारे में. दरअसल, कश्मीर को शेष भारत के राज्यों से कुछ अलग रखने का प्रस्ताव पीडीपी ने स्वायत्तता के नाम से पारित प्रस्ताव भी उन्हीं समर्थकों को सुनाने के लिए किया था. दक्षिण कश्मीर में जमात-ए-इस्लामी का प्रभाव पहले से काफी रहा है. कश्मीरी अलगाववादी आंदोलन में और क्षेत्रों की तुलना में दक्षिण कश्मीर में ही खुलकर सांप्रदायिकता का गहरा रंग चढ़ा हुआ था. पीडीपी और जमात के बीच संपर्क तो था ही; अधिकतर कार्यकर्ता पुराने जमायती ही थे.
मुफ्ती को शायद उम्मीद रही होगी कि राजनीति की मुख्यधारा में आकर धीरे-धीरे ये कार्यकर्ता सामजिक स्तर पर भी बदल जाएंगे. मगर 2014 में एक राजनैतिक भूकंप आ गया. दिल्ली की गद्दी पर एक ऐसी पार्टी का ऐसा नेता आसीन हुआ, जिसका डर दिखा कर नेता कश्मीरी मुसलमानों को भारत विरोधी आंदोलनों में शामिल कराते थे. उसके तुरंत बाद उस भूकंप के एक झटके ने जम्मू कश्मीर में भी ऐसा जनादेश दे दिया, जिसके कारण पीडीपी को उसी दल के साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ी. पीडीपी के नेता पसोपेश में तो पड़े ही, लेकिन उनके समर्थक और भी दिग्भ्रमित हो गए. तीसरा झटका तब लगा जब अचानक मुफ्ती मोहम्मद सईद की मौत हो गई. पिता अपने समर्थकों को नियंत्रण में रखने का गुर जानते थे, लेकिन बेटी ऐसा करने में असमर्थ थी. वे एक ऐसे जहाज में सवार थी, जिसमें खेवनहार ही नहीं था. फिर भी वे मोदी की विकास संबंधी आासनों पर केंद्र की नीतियों के साथ चलती रही. आतंकवाद के फिर सिर उठाने के बावजूद वे यह कहती रही कि कश्मीर की समस्या को केवल मोदीजी ही सुलझा सकते हैं. परंतु अचानक उनकी बोली बदल गई. वेखुलकर चुनौती भरे लहजे में केंद्र सरकार को जैसे ललकारने लगी.
वे कहने लगी कि गोली से विचार को नहीं मारा जा सकता है, वह एक तरह से गिलानी के विचारों को दोहरा रहीं थीं, जिनपर आयकर और हवाला की तलवार लटक रही है. कुछ ऐसे अंदाज में बोलने लगीं जैसे कह रही हो तुम आतंकवादियों और अलगाववादियों के विरुद्ध समरनीति बनाते रहो; हम भी देख लेंगे, हमारी इच्छा के बिना कैसे सफल होते हो?धमकी देने लगी हैं कि अगर अनुच्छेद 370 या अनुच्छेद 35ए से छेड़छाड़ की गई तो कश्मीर में तिरंगे को उठाने वाला एक भी आदमी नहीं मिलेगा. ऐसी भाषा इससे पहले 1953 में शेख अब्ल्दुला भी नहीं बोलते थे. फिर भी उन्हें जेल जाना पड़ा. इस आकस्मिक बदलाव के पीछे कौन से रहस्य हैं? जब भाजपा के सथ सरकार बनानी पड़ी तो पीडीपी में कई नेता ऐसे थे, जो इसे अपने राजनैतिक भविष्य के लिए घातक मानते थे. इन नेताओं के रिश्ते अब भी अलगाववादी गुटों के साथ थे. भाजपा को वे शंका की नजरों से देखते थे. मुफ्ती के जीते-जी वे खुलकर बगावत नहीं कर पाए, लेकिन उनकी मौत के बाद महबूबा की सरकार को हटाना उनका लक्ष्य बन गया. महबूबा भी कुछ समय तक केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों पर चलने की कोशिशकरती रही, लेकिन जब उन्हें यह महसूस होने लगा कि केंद्र सरकार कश्मीर में राजनैतिक यथास्थितिवाद को तोड़ने का इरादा रखती है तो वे घबरा गई. कश्मीर के बारे अब तककी सरकारें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बातचीत पर तात्कालिकटकराव को टालने की नीति अपनाती रही थी. वास्तविक समरनीति के बदले सुलह-सफाई से मामले निपटाने की नीति चलती थी. विकास के नाम पर केंद्रीय अनुदान देकर भी इस बात पर जोर नहींदिया जाता था कि धन को खर्च करने का सही हिसाब प्राप्त किया जाए. इससे सभी संतुष्ट थे. राज्य सरकार को विरोधियों से अधिक परेशानी नहीं रहती थी, भले ही वे समय-समय पर अपने पाकिस्तान संचालकों को प्रसन्न करने के लिए भारत विरोधी आंदोलन करे या भारत सरकार की किसी नीति के विरुद्ध प्रदर्शन करते रहें. अलगाववादी अपनी-अपनी दुकानें चलाते रहते थे. मोदी सरकार का पहला वार सरकारी अनुदान पर हुआ. वे परियोजनाओं के अनुसार विशेष मदों पर अनुदान देने लगे.
परियोजाएं पूरी करना प्राथमिकता बन गया. ठेकेदारों से लेकर नेताओं तक सबकी आमदनी बंद होने लगी. फिर पाकिस्तान के साथ कुछ समय तक दोस्ती की कोशिश करने में विफल बातचीत को सीमा पर पाक गोलीबारी और देश के भीतर आतंकवाद से जोड़ दिया. यानी पाकिस्तान पर बिना नतीजों की बातचीत का दौर समाप्त हो गया. अगली गाज अलगाववादी दुकान चलाने वाले संगठनों पर गिरी. हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं से सीधी वार्ता का दौर समाप्त हो गया. मोदी सरकार ने माना है कि कश्मीर में या तो सरकार के माध्यम से बातचीत होनी चाहिए या सीधे आंदोलनकारियों के साथ. बिचौलियों की जरूरत नहीं है. इसके विपरीत सरकार ने सुरक्षा एजेंसियों को आतंक के दौर को समाप्त करने के लिए खुली छूट दी. साथ ही अलगावादियों को मिलने वाली विदेशी सहायता आने के सारे रास्ते बंद करने की कार्रवाई शुरू कर दी. यहएक भूकम्प के समान है, जिससे सभी संबंधित गुट हिल गए हैं. महबूबा के धैर्य का बांध तब टूटा जब अली शाह गिलानी के परिवार पर प्रवर्तन विभाग ने दस्तक दी और उन के दामाद और बेटे को पूछताछ के घेरे में फंसा दिया. महबूबा ने जो कहा है और जितना कहा उसके बाद केंद्र सरकार के लिए उनकी उपयोगिता समाप्त हो गई है.
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