गुजरात : फिर घोड़ा मंडी की झलक
हर बार के राज्य सभा चुनाव क्रास-पार्टी वोटिंग और विधायकों की घोडा मंडी बनने के आरोपों के बगैर नहीं संपन्न होते.
![]() गुजरात : फिर घोड़ा मंडी की झलक |
पर इस बार गुजरात से राज्य सभा के लिए चुनाव महीने भर पहले से ही इन दोनों परिघटनाओं के लिए चर्चा में आ चुका है और भरोसा नहीं है कि आठ तारीख को होने वाले मतदान के पहले क्या-क्या देखने को मिलेगा? क्रास वोटिंग राष्ट्रपति चुनाव में भी हुई हालांकि व्हिप न होने से उसे यह नाम नहीं दिया गया. क्रास वोटिंग उप राष्ट्रपति चुनाव में भी हो सकती है, इसका दावा भी किया जा रहा है, जबकि उस चुनाव में सिर्फ सांसद वोट देते हैं. पर शंकर सिंह बाघेला की राजनीति के चलते वह भी संभव दिखता है. और बाघेला ही वह मुख्य कारण हैं जिससे राज्य सभा चुनाव में भी क्रास वोटिंग ही नहीं गुजरात और कांग्रेस की राजनीति के एक महत्त्वपूर्ण शख्स की राज्य सभा की सदस्यता को भी खतरा बताया जा रहा है.
जी हां, सोनिया गाधी के राजनैतिक सलाहकार और पूर्व केंद्रीय मंत्री अहमद पटेल का चुनाव ही अभी सर्वाधिक चर्चा का विषय है. अब शंकर सिंह बाघेला उनसे कोई दुश्मनी निकाल रहे हैं या नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी गुजरात में एक और तरह की जीत का प्रयास कर रही है, यह तय करना आसान नहीं है, पर बाघेला प्रकरण के बाद ही यह मामला तेजी से चर्चा में आया है. बाघेला कांग्रेस को बीजेपी की बी-टीम बनाना चाहते थे या कांग्रेस की सबसे बड़ी उम्मीद थे, यह अब चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है. पर जिस समय से उनके कांग्रेस छोड़ने, कोई क्षेत्रीय पार्टी बनाने या भाजपा में जाने की अटकलें लगाई जाने लगीं तभी से दावा किया जाने लगा कि वे कांग्रेस को दो फाड़ कर देंगे. वे कांग्रेस में आने के बाद जमे थे और केंद्रीय मंत्री बनने से लेकर पिछले विधान सभा चुनाव में कांग्रेस का चेहरा होने तक की हैसियत में थे. सो जीते विधायकों में भी उनके समर्थक होंगे ही. और जब विधान सभा की अवधि छह महीने से कम रह गई हो तब कौन विधायकी की परवाह करता है-खासकर तब जब भाजपा में जाने-टिकट और लाभ पाने की संभावना हो या कांग्रेस डूबती नैय्या लग रही हो.
मगर बाघेला किस तरफ गए यह तो साफ नहीं हुआ. लेकिन अपने साथ दर्जन भर से ज्यादा विधायक होने का दावा करके उन्होंने अहमद भाई के नाम से प्रसिद्ध अहमद पटेल के लिए खतरे की घंटी जरूर बजा दी. हर राजनैतिक पंडित यह हिसाब जान गया कि अगर बाघेला एक दावे के आधे विधायक भी पाला बदलकर वोटिंग करेंगे तो पटेल लटक जाएंगे. राष्ट्रपति चुनाव में आठ या नौ (यह कंफ्यूजन इसलिए है क्योंकि भाजपा की तरफ से भी एकाध क्रास पार्टी वोटिंग होने का अनुमान हुआ) कांग्रेसी विधायकों द्वारा राम नाथ कोविंद को वोट देने के बाद यह खतरा एक असलियत लगने लगा. उसके बाद पहले ही बाघेला ने नई पार्टी बनाने या भाजपा में जाने की घोषणा नहीं की पर उनके समर्थक माने जाने वाले कई विधायक कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने लगे. दो खेप में कांग्रेसी विधायकों के भाजपा जाने के बाद तो हड़कंप मच गया. तुरंत कांग्रेस को बड़ा खतरा लगा और उसने अपने विधायक समेटे और कांग्रेस शासित कर्नाटक पहुंचा दिया.
विधायक होटल में बंद रह रहे हैं-ठीक भाजपा से बगावत करके निकले भाजपाई विधायकों के कांग्रेसी राज मध्य प्रदेश के एक होटल में घिरे रहने की तरह. और लगभग उसी तरह इस बार भी बाहर से उनको लुभाए जाने और तोड़ने की कोशिशें करने की खबर आ रही है. एक-एक विधायक को पंद्रह-पंद्रह करोड़ रुपये, टिकट और अन्य लाभ देने के आरोप भी सामने आ चुके हैं. उसमें जितनी भी सच्चाई हो इतने सारे विधायकों को लगभग एक पखवाड़े महंगे होटल में रहने का खर्च तो सच्चा ही है. और अगर कोई पार्टी या नेता यह खर्च उठा रहा है तो उसके डर को भ्रम नहीं माना जा सकता-वह भी वास्तविक है. और अगर इस सारी पहरेदारी और सारी दुनिया के आगे दल-बदल से लेकर सौदेबाजी और घेराबंदी तक सब कुछ खुलेआम चल रहा है तो इसे हमारे लोकतंत्र का एक शर्मनाक अध्याय नहीं तो और क्या कहेंगे. और इसके बावजूद सारे बड़े नेता चुपचाप तमाशा देख रहे हैं या इस खेल में अपनी-अपनी भूमिका जोर से निभाए चले जा रहे हैं तो उसे और भी दुर्भाग्यपूर्ण कहना होगा.
कहना न होगा कि इसी में किसी को मन की बात में ऊंची-ऊंची सुनाने तो किसी को लोकतंत्र पर खतरे का रोना रोने में कोई परेशानी नहीं हो रही है. किसी भी पक्ष ने अपनी तरफ से घटियापन छोड़ने या कम करने का एक भी कदम उठाया हो, यह भी दिखाई नहीं देता. पर सबसे दुखद यह है कि यह नंगई अगले कई दिनों तक जारी रहने वाली है और इसी की जीत को राजनैतिक कौशल या कुशल मैनेजरी और हार को बेवकूफी या राजनैतिक अनाड़ीपन का नाम भी दिया जा रहा है. बिहार में बड़ा और घटिया राजनैतिक खेला गया. पर वह दो ही दिन में नतीजे पर आ गया-विश्वास मत जीतने और नया मंत्रिमंडल बनाने तक. और पहले उससे भी घटिया खेल हुए हैं, पूरी सरकार के ही पाला बदल लेने तक के. ‘आया राम-गया राम’ की राजनीति नई नहीं है.
राज्य सभा में खरीद-फरोख्त और क्रास वोटिंग भी नई चीज नहीं हैं. पर इस बार जितने डंके की चोट पर और खुलेआम इतने समय की नंगई शायद ही पहले कभी चली हो. और इसकी हार-जीत को राजनैतिक कौशल/प्रबंधन की जीत-हार बताने का काम तो शायद पहले कभी हुआ ही नहीं है. मतदाता अगर सबसे ताकतवर है और इन चीजों को कहीं बुरा मानता है तो उसे अपने वोटिंग के समय इसे ध्यान में रखना चाहिए. और अगर नेता समाज का नेतृत्व करने का दावा करते हैं या अच्छे की कोशिश का दिखावा भी करते हैं तो उन्हें तत्काल इस खेल को बंद करना चाहिए-कम-से-कम अपनी तरफ से जरूर.
| Tweet![]() |