बिहार : समर्पण और विभ्रम
बिहार में महागठबंधन टूटने के आधार पर 2019 के लोक सभा चुनाव परिणामों की घोषणा कर देना तो बहुत जल्दबाजी होगी लेकिन यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि भारतीय राजनीति में विपक्ष महाभ्रम की स्थिति में है.
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ऊपर से नीतीश ने यह कहकर उस भ्रम को बढ़ा दिया है कि 2019 में मोदी का मुकाबला करने की क्षमता किसी में नहीं. वह महाभ्रम कभी उत्तर प्रदेश, कभी गुजरात तो कभी अन्य प्रांतों में तोड़फोड़ से प्रकट हो रहा है और उस भ्रम को बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गरीबी और सांप्रदायिकता के भारत छोड़ने की घोषणा भी कर देते हैं.
विपक्ष समझ नहीं पा रहा है कि वह उन ताकतों से कैसे मुकाबला करे, जो महज सुशासन और ईमानदारी का झंडा लिये घूम रहे हैं और जिनके लिए अब सांप्रदायिकता से बड़ा खतरा भ्रष्टाचार हो गया है और धर्मनिरपेक्षता से ज्यादा जरूरी सत्ता और सुशासन हो गया है. धर्मनिरपेक्षता का गोंद इतना पुराना हो गया है कि उससे न तो सामाजिक न्याय चिपक पा रहा है और न ही सुशासन. समाजवाद तो महज पार्टी का नाम रह गया है. हालांकि इस गोंद के सूखने की बड़ी वजह सत्ताविहीनता है और साठ के दशक में समृद्ध देशों में उभरी विचारधाराओं के अंत की अवधारणा का इक्कीसवीं सदी में एशियाई देशों पर पड़ता असर है. लेकिन हैरानी की बात है कि या तो राष्ट्रवादी विचारों का गोंद ज्यादा आकषर्क हो रहा है या उसने अपने इर्द गिर्द ऐसा जाल लगा रखा है, जिसमें बड़े-बड़े फंस रहे हैं.
जनता दल (एकी) के नेता शरद यादव को अगर नीतीश कुमार के फैसले से दुख है और उनका मानना है कि 2015 में जनादेश भाजपा के साथ जाने के लिए नहीं मिला था तो पार्टी प्रवक्ता केसी त्यागी का मानना है कि जनता दल (एकी) का जन्म ही लालू प्रसाद के परिवारवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ हुआ था. उधर, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का यह कहना भी रोचक है कि उन्होंने बिहार में कोई पार्टी नहीं तोड़ी (तोड़ा तो गठबंधन) है. अगर नीतीश को लालू के साथ नहीं रहना था तो हम क्या करते?
इस इनकार के बावजूद एक बात साफ है कि मोदी-अमित शाह और सुशील मोदी ने मिलकर बीस महीने में अपनी सबसे करारी हार का बदला ले लिया और धर्मनिरपेक्षता पर आधारित विपक्षी एकता का शीराजा बिखेर दिया. कुछ टिप्पणीकार इसकी तुलना हिटलर के चौंकाने वाले हमले या अरब देशों को 1947 में हराने वाले इस्रइल के युद्ध कौशल से कर रहे हैं. सुशील मोदी के रूपक के हवाले से कहा जा सकता है कि लालू यादव द्वारा अपहृत किए गए नीतीश के विमान को भाजपा ने छुड़ा लिया है. लेकिन यह अहसास भी होता है कि उनका विमान काबुल या कराची में उतारा गया है. यह भारतीय राजनीति के सबसे उर्वर प्रदेश बिहार की विडंबना है और यही हमारे विपक्ष और विपक्षी एकता की भी त्रासदी है. हिन्दू धर्म को केंद्र में रखकर राष्ट्रवाद की राजनीति खड़ा करने वाली ताकतों ने विपक्ष के तन और मन में विचारनिरपेक्ष ईमानदारी बनाम धर्मनिरपेक्ष भ्रष्टाचार का भ्रम पैदा कर दिया है. इसी भ्रम में तमाम पार्टयिां चक्कर खाकर गिर रही हैं.
कांग्रेस, राजद, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, राकंपा, नेकां और सपा जैसे तमाम दलों को भ्रष्टाचार के घेरे में लेकर यह सिद्ध किया जा रहा है उनकी सारी धर्मनिरपेक्षता महज भ्रष्टाचार और परिवारवाद को ढकने का आवरण है.
भाकपा और माकपा जैसी उन पार्टयिों की कोई राजनीतिक ताकत नहीं है जो इन आरोपों से अपेक्षाकृत दूर हैं और वैचारिक रूप से दढ़ हैं, इसलिए उनकी धर्मनिरपेक्षता और ईमानदारी दोनों निष्प्रभावी रहती हैं. तेलुगू देशम, तेलंगाना राष्ट्रीय समिति, अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल, लोकजनशक्ति, अपना दल और जस्टिस पार्टी जैसे तमाम दल कभी सत्तारूढ़ गठबंधन के सामने समर्पित हो जाते हैं तो कभी मुद्दों के आधार पर उनके साथ आते-जाते रहते हैं. जनता दल (एकी) भी इस परिवार का सदस्य है जो चार साल बाद धर्मनिरपेक्षता के परदेश से लौटा है. आम आदमी पार्टी भले भाजपा का विरोध करती हो लेकिन उसका भी आधार विचारविहीन ईमानदारी का ही है.
भ्रष्टाचार चाहे कांग्रेस का हो या राजद का वह क्षम्य नहीं है और उस पर कार्रवाई होनी ही चाहिए. हालांकि भाजपा के चुनावी वादे के मुताबिक विदेश से काला धन अभी तक नहीं आया है और शरद यादव इस पर सवाल कर रहे हैं, फिर भी अगर भाजपा सरकार भ्रष्टाचार पर कार्रवाई कर रही है तो इसका स्वागत होना चाहिए. इस बारे में न तो लालू प्रसाद के परिवार को छोड़ा जाना चाहिए और न ही कांग्रेस के गांधी-नेहरू परिवार को. न ही मायावती को बख्शा जाना चाहिए. छोड़ा मुलायम यादव के परिवार को भी नहीं जाना चाहिए, वैसे वहां के भ्रष्ट लोगों ने अपने बचने की छतरी बना ली है. ममता बनर्जी को भी इस मामले में रियायत देने का कोई तर्क नहीं है. लेकिन भ्रष्टाचार सिर्फ विपक्ष का ही नहीं होता. वह सत्ता पक्ष में ज्यादा होता है. वह शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, वसुंधरा राजे और देवेंद्र फडनवीस की सरकार में भी होता है. वह बादल परिवार भी करता है और सवाल तो अमित शाह की आमदनी पर भी उठ ही रहे हैं? इन मामलों की जांच और उन पर कार्रवाई में तत्परता क्यों नहीं? उससे भी अहम बात यह है कि लोकतंत्र में विचार के भ्रष्टाचार पर कोई अंकुश क्यों नहीं?
कानूनी अंकुश न सही पर जनता की नाराजगी क्यों नहीं? नीतीश चार साल से मोदी का विरोध करते हुए लालू से मिलकर राजनीति कर रहे थे और 2016 में कह रहे थे-‘संघ मुक्त भारत और शराब मुक्त भारत बनाना है. संघ मुक्त भारत बनाने के लिए सभी गैर भाजपा पार्टयिों को एक होना पड़ेगा.’ वे आज अगर गांधी लोहिया सभी को भुलाकर, फासीवाद के खतरे को नजरअंदाज करके उसी नरेन्द्र मोदी को अपराजेय मान रहे हैं, तो इसे किस नैतिकता और ईमानदारी से उचित ठहराया जा सकता है? नीतीश पराजय बोध और महाभ्रम से ग्रसित हैं और वह उनकी अपनी नियति हो सकती है लेकिन वह न तो विपक्ष की नियति हो सकती है न लोकतंत्र की और देश की तो कतई नहीं.
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