बिहार : यह तो होना ही था

Last Updated 28 Jul 2017 05:50:27 AM IST

26 जुलाई की शाम इस्तीफा और 27 जुलाई की सुबह फिर से शपथ-ग्रहण कर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सबको चौंका दिया.


बिहार : यह तो होना ही था

एक दिन पहले भारत के नये राष्ट्रपति ने अपना पदभार ग्रहण किया था. इस अवसर पर राष्ट्रीय स्तर का राजकीय समारोह और भोज होता रहा है. लेकिन इस बार मगध (पटना) के घटनाक्रम ने हस्तिनापुर (दिल्ली) के बड़े घटनाक्रम को पीछे छोड़ दिया. भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यू) जो 16 जून 2013 को अलग हो गए थे, चार साल बाद एक बार फिर 26 जुलाई 2017 को इकट्ठा हो जाते हैं. देर रात तक सूचना मिलती है कि 27 जुलाई की शाम 5 बजे नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे. उसके बाद समाचार आता है कि शपथ-ग्रहण अब दस बजे सुबह ही होगा. दस बजे बस दो लोगों का शपथ ग्रहण होता है-मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी.

बिहार के इस नाटकीय घटनाक्रम पर तरह-तरह की टिप्पणियां हो रही हैं. राजनीति का  सेकुलर समूह अवाक है, तो भगवा समूह मस्त. बिहार बैठे-बिठाए भगवा झोली में आ गया. जोड़-तोड़ करने वालों ने बतलाया भारत की 67 प्रतिशत अबादी भाजपा राजनीति के झंडे तले आ चुकी है. सेकुलर खेमा नीतीश कुमार को अनैतिक बतला रहा है. उनका कहना है कि नीतीश भाजपा विरोध की शर्त पर जनता के बीच गए थे और उनका वोट भाजपा के विरोध में था. इस बात में सच्चाई है, लेकिन पूरी नहीं आधी. यह केवल अर्धसत्य है-आधा सच.

सवाल उठता है महागठबंधन ने नीतीश के नेतृत्व में ही चुनाव क्यों लड़ा था? उनकी साफ-सुथरी छवि को आगे रखने का मकसद था, जनता का विास जीतना. यही विास इस महीने के आरंभ में 5 जुलाई को कटघरे में आया, जब लालू प्रसाद के कई ठिकानों पर छापे पड़े और सीबीआई की जद में उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी आ गए. नीतीश कुमार ने तेजस्वी से इस्तीफा नहीं मांगा, उनका केवल यह कहना था कि तेजस्वी लोक दायरे (पब्लिक डोमेन) में जाएं और अपनी स्थिति स्पष्ट करें. लालू यादव और तेजस्वी यादव ने यह मुनासिब नहीं समझा. उनकी ओर से लोगों ने बार-बार दलील दी कि दूसरी पार्टियों के लोगों ने भी घपले-घोटाले किए हैं, वे दूध के धुले नहीं हैं तो हमीं पर यह सब क्यों हो रहा है? अर्थात वह खुलेआम अपना जुर्म स्वीकारने लगे थे.

5 जुलाई और 26 जुलाई में इक्कीस रोज का फर्क है. पटना में इक्कीस दिनों तक सत्ता का घमासान होता रहा. लालू प्रसाद लगातार अपने भाजपा विरोध की गर्वीली राजनीति का हवाला देते रहे. अपने और परिवार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों पर वह विचार करने और स्पष्टीकरण देने के लिए तैयार नहीं थे. नीतीश की कुल जमा पूंजी अपनी छवि ही थी. उनका संकट यह था कि कि यदि वह तेजस्वी मामले को नजरअंदाज करते हैं तो उनकी वह ताकत खत्म हो जाती, जिसके बूते वह सत्ता चला रहे थे. सोच-समझ कर उन्होंने इस्तीफा देना उचित समझा और दिया. अब प्रश्न है कि 27 को भाजपा के साथ सरकार बनाने का उनका फैसला सही है या गलत. शायद आधा गलत आधा सही.

26 जुलाई की शाम ही उन्होंने गठबंधन के मुख्यमंत्री के रूप में इस्तीफा दे दिया, इसलिए उनकी नैतिकता से भी मुक्त हो गए. 27 जुलाई को एक नये राजनीतिक गठबंधन के साथ शपथ ग्रहण किया है. इसमें गलत इतना है कि उनके विधायक भाजपा-विरोध का वोट पा कर आए हैं. लेकिन भाजपा का विरोध कई मुद्दों में केवल एक मुद्दा है. बड़ा सवाल है कि राज्य को न्याय के साथ विकास के रास्ते पर बनाए रखना, आगे बढ़ाना. भाजपा विरोध के वचन को भंग करने का दोष नीतीश कुमार के जिम्मे जरूर आता है, लेकिन यह तो केवल एक पहलू है. हमारे सेकुलर साथी इसी एक को सब कुछ का आग्रह रखते हैं.

हम लालू प्रसाद की तरफ से देखें. यह ठीक है कि वह भाजपा विरोध की नीति पर कायम हैं, लेकिन क्या केवल यही उनकी राजनीति है, या होनी चाहिए? उनके उस सामाजिक न्याय का क्या हुआ, जिसका मसीहा कहलाने का लोभ वह संवरण नहीं करते. समाज के दलित-पिछड़े समूहों को सामाजिक-आर्थिक हालात को सुधारने के लिए उन्होंने यदि कुछ किया है तो उसका हवाला उन्हें देना चाहिए था. और यह भी अरबों-खरबों की बेनामी संपत्ति उनके परिवार के पास कैसे और क्यों है? इन्हें क्यों नजरअंदाज किया जाए.

बिहार में महागठबंधन यदि टूटा है तो इसके मुख्य कारक लालू प्रसाद हैं या फिर तेजस्वी. तेजस्वी बच्चे नहीं थे, वह बिहार के उपमुख्यमंत्री थे. उन्हें चाहिए था कि अपने पद से इस्तीफा दे कर जनता के बीच जाएं. वह कह सकते थे कि मेरे कारण गठबंधन नहीं टूटेगा और राज्य का हित सर्वोपरि है. विवेक का प्रदर्शन कर वह यदि यह घोषणा करते कि जिस उम्र में ये परिसंपत्तियां उनके नाम जुड़ीं, उस उम्र में तो वह बच्चे थे, इसलिए इनकी कोई नैतिक जिम्मेदारी उनके पास नहीं है. यह भी कि सीबीआई को इसकी सूचना देने के लिए शुक्रिया अदा करता हूं और इन सारी परिसंपत्तियों को जनता के हवाले करता हूं. इतने पर भी तेजस्वी का व्यक्तित्व क्या से क्या हो जाता, आप अनुमान कर सकते हैं.

उनके पिता लालू प्रसाद ने यदि यह नसीहत दी होती तो तेजस्वी कहां होते! लालू प्रसाद हठ पर अड़े रहे. आज तेजस्वी का उप मुख्यमंत्रित्व गया, कल उनकी परिसंपत्ति भी जाएगी. हठ और लोभ बहुत खराब चीज होती है. लालू प्रसाद इसी के कारण रसातल में जा रहे हैं. सामाजिक न्याय के कद्दावर नेता के इस पतन पर केवल अफसोस ही व्यक्त किया जा सकता है. बिहार की राजनीति आज यदि भाजपा की झोली में गई है तो इसके मुख्य जिम्मेदार लालू प्रसाद हैं. उनकी अदूरदर्शिता ने भाजपा विरोध की राजनीति को खत्म कर दिया.

हम भाजपा खेमे की मस्ती का भी अनुमान कर सकते हैं. नीतीश कुमार उनके लिए बड़े काम के होने वाले हैं. कुछ ही समय बाद गुजरात चुनाव में उनकी महती भूमिका होगी. हार्दिक पटेल के आंदोलन ने पटेलों और भाजपा के बीच एक दूरी बनाई है. वहां पटेल वोट चुनाव में निर्णायक होते रहे हैं. नीतीश का केवल उस खेमे में जाना ही भाजपा के लिए लाभकारी हो गया है. महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में नीतीश की उपस्थिति काम आएगी. भाजपा की राजनीति को किसान की पृष्ठभूमि से आए एक नेता की जरूरत भी थी. नीतीश के आने का वहां जो जबरदस्त स्वागत हुआ है, उनका कारण यही है.

प्रेम कुमार मणि
लेखक


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