नीतीश : घर वापसी या अवसरवादी राजनीति

Last Updated 29 Jul 2017 05:19:33 AM IST

बिहार में एकबार फिर समाजवादी आंदोलन पर अवसरवादी होने का संगीन आरोप लगा है.


नीतीश की घर वापसी या अवसरवादी राजनीति

लालू और नीतीश दोनों ही पुराने साथी और समाजवादी आंदोलन की उपज रहे हैं. बिहार में समाजवादी आंदोलन के जनक रहे कपरूरी ठाकुर के साथ भी लालू, नीतीश और रामविलास पासवान पर कभी धोखा देने का आरोप लगा था. तीनों नेता अपनी सुविधा की राजनीति चलाते रहे हैं.

लालू ने राजद बनाकर अपनी अलग राह पकड़ ली थी मगर चारा घोटाले में सजा मिलने के बाद चुनावी राजनीति से विमुख हो गए. उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी और बेटों को यादव-मुस्लिम गठजोड़ के साथ आगे बढ़ाया. आरोप है की लालू परिवार ने बेनामी संपत्ति का इस दौरान बड़ा साम्राज्य बना लिया. वहीं नीतीश और पासवान ने कई बार भाजपा के साथ मिलकर अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ाया. समाजवादी आंदोलन के इन तीनों पुरोधाओं पर अवसरवादी राजनीतिका आरोप लगा है. समाजवादी सिद्धांतों को त्याग कर तीनों नेता जातीय राजनीति के भंवर में फंसे हैं.

बिहार समाजवादी आंदोलन की जन्म कर्म और संघर्ष की भूमि रही है. भारत छोड़ो आंदोलन में समाजवादी नेताओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. जय प्रकाश नारायण,रामनंदन मिश्रा, बसावन सिंह, सूरज नारायण सिंह, कपरूरी ठाकुर, रामानंद तिवाड़ी, बीपी मंडल के जीवनकाल में समाजवादी आंदोलन कई चरणों से होकर गुजरा. मधु लिमये, जार्ज फर्नाडीस और शरद यादव जैसे अन्य राज्यों के समाजवादी नेताओंको भी बिहार से राजनीतिक जीवनदान मिला था. लोहिया की मृत्यु के बाद कपरूरी ठाकुर सबसे बड़े समाजवादी नेता के रूप में उभरे और उन्होंने बिहार की पिछड़ी जातियों के युवाओं को संगठित किया. लोहिया के बाद रामानंद तिवारी और भोला प्रसाद सिंह के साथ वे बिहार की समाजवादी राजनीति के प्रमुख केंद्र बन गए. 1952 से आठवें दशक तकमृत्युपर्यन्त कपरूरी ठाकुर दो बार मुख्यमंत्री और एकबारउप मुख्यमंत्री रहे.

इसी दौरान रामविलास पासवान, लालू और नीतीश सरीखे युवा कपरूरी ठाकुर की अंगुली पकड़ कर युवा समाजवादी के रूप में उभरे. 1974 में जेपी आंदोलन के दौरान छात्र नेता के रूप में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही. आठवें दशक में कपरूरी ने चौधरी चरण सिंह के साथ मिलकर लोकदल नेता के रूप में पिछड़ों की राजनीति शुरू की. रामविलास, लालू और नीतीश बाद में कपरूरीठाकुर के नेतृत्व को चुनौती देने लगे और इसके साथ बिहार मेंयादव, कुर्मी और दलितों की राजनीति शुरू हो गई. इस तरह लालू यादव और नीतीश कुमार की राजनीति दरअसल उसी प्रक्रिया को आगे ले गई, जिसे कपरूरी ठाकुर ने शुरू किया था. दोनों ने अपनी-अपनी राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुरूप कपरूरी ठाकुर की विरासत पर कब्जा जमाने की कोशिश की.

बाद में ठाकुर के अनुयायियों समेत समाजवादी नेता अलग-अलग पार्टियों में बिखर गए. जनता पार्टी और जनता दल का प्रयोग असफल होने के बाद नब्बे के दशक में लालू , नीतीश और पासवान ने अलग होकर पिछड़ों और दलितों की राजनीति शुरूकर दी. लालूके बिहार पर दस साल तक राज के बाद नीतीश ने बीजेपी के साथ मिलकर लालूको उखाड़ फेंका. इस बीच लालू चारा घोटाले में फंस गए. पिछले लोक सभा चुनाव में नीतीश नरेन्द्र मोदी के सांप्रदायिक एजेंडे को मुद्दा बनाकर बीजेपी से अलग हो गए थे. लोक सभा चुनाव में मोदी की लोकप्रियता के आगे नीतीश और लालू परास्त हो गए.मगर 2015 का विधान सभा चुनाव उन्होंने लालू और कांग्रेस के साथ महागठबंधन बना कर लड़ा और बीजेपी को बिहार से खदेड़ने में सफल हुए.

लालू के बेटों के साथ मिलकर नीतीश ने सरकार बनाई. बीस महीनों तक वे सरकार चलाते रहे. इसी बीच लालू परिवार पर केंद्रीय जांच एजेंसियों के छापों के बाद अपने को असहज पाकर और भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की बात कहकर नीतीश ने लालू की पार्टी से गठबंधन त्याग कर एक बार फिर बीजेपी के साथ मिलकरअपनी सरकार बना ली है. और शपथ ग्रहण के बाद नीतीश ने कहा कि मैंने बिहार के हित में फैसला लिया है. मेरी जवाबदेही बिहार के प्रति है. वक्त आने पर सबको जवाब दूंगा. उधर, लालू यादव ने आरोप लगाया कि उनके परिवार पर छापों के पीछे नीतीश का ही हाथ था. नीतीश और हमने सांप्रदायिकता के खिलाफ जनादेश प्राप्त किया था मगर नीतीश ने जनता के साथ विश्वासघात किया.

बालमुकुंद ओझा
लेखक


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