मायावती : नये सियासी दर्शन का औचित्य

Last Updated 29 Jul 2017 05:43:58 AM IST

18 जुलाई का दिन निश्चित ही भारत के इतिहास में दर्ज हो गया है. मायावती का राज्यसभा में इस्तीफा देना किन्हीं के लिए सुखद रहा तो कुछ के लिए दुखद.


मायावती : नये सियासी दर्शन का औचित्य

चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं मायावती ने दलितों की नई और पुरानी पीढ़ी को वह कर दिखलाया, जिसकी उन्हें उम्मीद न थी. हालांकि, उनके आलोचकों ने उनके द्वारा दिए गए इस्तीफे को महज एक राजनैतिक नाटक बतलाया.

भाजपा के कुछ धुरंधर नेताओं ने तो राज्य सभा कार्यकाल के शेष रहे उनके दिनों को तुरता-फुरती में गिनकर भी बता दिए. पर सत्ता तो एक दिन की भी बहुत होती है. सत्ता का सुख और सत्ता से मिलने वाली सुविधाओं को कोई भी छोड़ना नहीं चाहता. पर मायावती ने लंबे समय से सत्ता में रहते हुए भी सत्ता को छोड़ ही दिया. राज्य सभा से इस्तीफा देने से कुछ घंटे पूर्व उन्होंने सममुच पहली बार दलित या बहुजन समाज के मन की बात कह दी-बसपा प्रमुख मायावती ने कहा, अगर मैं दलितों के खिलाफ हो रही ज्यादतियों को लेकर अपनी बात ही सदन में नहीं रख सकती तो मुझे इस सदन में बने रहने का नैतिक अधिकार भी नहीं है. दलितों पर अत्याचार के मुद्दे पर अपनी पूरी बात रखने के लिए पर्याप्त समय न मिलने की वजह से बसपा सुप्रीमो मायावती इस कदर नाराज हो गई कि वह न सिर्फ सदन से बाहर चली गई, बल्कि उन्होंने बाद में राज्य सभा से इस्तीफा भी दे दिया. सदन से बाहर निकलने के बाद मायावती ने संवाददाताओं से कहा, ‘जब सत्ता पक्ष मुझे अपनी बात रखने का भी समय नहीं दे रहा है तो मेरा इस्तीफा देना ही ठीक है.’

इससे पहले, उन्होंने सुबह राज्य सभा में दलितों पर अत्याचार की घटनाओं पर बोलने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलने का आरोप लगाते हुए कहा था कि अगर उन्हें अपनी बात नहीं रखने दी जाती है तो वह सदन से इस्तीफा दे देंगी.इसके बाद वह विरोधस्वरूप रोष में सदन से बाहर चली गई थीं. मायावती ने सभापति हामिद अंसारी से संसद भवन में उनके कार्यालय में भेंटकर उन्हें अपने इस्तीफे का तीन पृष्ठ का पत्र सौंपा. 18 जुलाई को उप्र के सहारनपुर में कथित दलित विरोधी हिंसा को लेकर उपसभापति पीजे कुरियन ने उन्हें अपनी बात जल्द खत्म करने (तीन मिनट में) को कहे जाने पर नाराजगी जाहिर करते हुए बसपा प्रमुख मायावती ने कहा कि वह एक गंभीर मुद्दा उठा रही है जिसके लिए उन्हें अधिक समय चाहिए.उन्होंने यह भी कहा कि जिस समाज से वह संबंध रखती है, उस समाज से जुड़े मसले उठाने से उन्हें कैसे रोका जा सकता है? डॉ. आंबेडकर के दौर में जाएं तो राजनीतिक विश्लेषकों को पता चलेगा कि इतिहास में घटनाओं की पुनरावृत्ति कैसे होती है? मंत्रीपद से इस्तीफा देने के तुरंत बाद बाबा साहेब ने हार्डिग एवेन्यू स्थित बंगला खाली कर दिया था.उनका मन कांग्रेस से बहुत क्षुब्ध हो चुका था. तत्पश्चात 18 नवम्बर, 1951 को वे बम्बई लौट आए. और वहां दो-तीन सभाएं लीं. इस बीच दिल्ली में उनके सामने राहने की समस्या थी. उस समय राजा सीहोर ने 26 अलीपुर रोड, दिल्ली के अपने खाली पड़े बंगले में बाबा साहेब से रहने के लिए निवेदन किया.जिसे डॉ. आंबेडकर ने मान लिया था.

बाबा साहेब का बनाया हुआ संविधान लागू हुआ और उसी की छतछ्राया में देश में प्रथम आम चुनाव हुए. कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी हिन्दुओं ने संगठित हो कर मध्य बम्बई लोक सभा के जनवरी, 1952 के चुनाव में आंबेडकर को हरा दिया व उनके मुकाबले खड़े दलित वर्ग के दसवीं तक पढ़ें कजरोलकर को हिन्दुओं के वोट दिलाकर जिता दिया. आंबेडकर स्वयं ही नहीं जयप्रकाश नारायण भी उनकी पराजय से विस्मित रह गए. शेडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन जनवरी, 1952 के आम चुनाव में बुरी तरह हार चुकी थी.कुछ लोग उनकी पार्टी छोड़ रहे थे तो कुछ आंबेडकर का दिल तोड़ने में लगे थे. हम अगर तथ्यों पर जाएं तो भारतीय दलित राजनीति में डॉ. आंबेडकर के बाद मायावती दूसरी ऐसी नेता हैं, जिन्होंने दलित समाज के मान-सम्मान को ध्यान में रखते हुए इस्तीफा दिया.वरना राज्य सभा क्या लोक सभा में भी ऐसी अनेक अप्रिय घटनाएं हुई जब दलित प्रतिनिधियों को अपनी बात कहने से बलपूर्वक रोका गया. इस्तीफा देने के बाद मायावती ने नई दिल्ली में पार्टी के बड़े नेताओं की बैठक में बड़ा फैसला किया है.

मायावती के मंच से अब पार्टी के दूसरे नेता भी भाषण देंगे. शायद मायावती को लगने लगा है कि अन्य नेताओं को आगे बढ़ाए बिना जनाधार वापस पाना आसान नहीं है क्योंकि कई पिछड़े, दलित और सवर्ण वर्ग के बड़े नेता उनका साथ छोड़ कर जा चुके हैं.उन्होंने 18 सितम्बर, 2017 से 18 जून, 2018 तक उत्तर प्रदेश के दौरे का कार्यक्रम भी बनाया है. ध्यान रहे कि जिस राज्य की मायावती चार बार मुख्यमंत्री रहीं, उसी में जिला और शहर स्तर पर पार्टी कार्यालय तक नहीं हैं.

पार्टी संगठन के चुनाव में भी लोकतांत्रिक आधार नहीं रहा है.एक समय था जब स्वयं कांशीराम की ताकत का अहसास कांग्रेस हाईकमान ने भी किया था. तब उनके पास न कोई मुख्यमंत्री का पद था और न प्रधानमंत्री का. सच कहा जाए तो वे दलित आंदोलन के सूत्रधार थे. यह भी सच ही था कि सत्ता के लिए दलित/पिछड़ों और अति पिछड़ों में उन्होंने भूख जगाई थी. उसी भूख की परिणति थी मायावती. बहुत से उनके साथियों का यह भी मानना था कि उन्होंने पहले चरण में (प्रथम और दूसरी बार मुख्यमंत्री रहते हुए) पूंजीपतियों का हाथ थाम लिया था.फिर दूसरे चरण में (तीसरी और चौथी बार मुख्यमंत्री बनने पर) ब्राrाण नेताओं से रिश्ते बनाने शुरू कर दिए थे. यही कारण रहा कि उन्हीं के दस-बीस नहीं बल्कि हजारों साथ नाराज होकर उनसे दूर चले गए थे.

कुछ को तो उन्होंने स्वयं भी बाहर का रास्ता दिखला दिया था.
भारत में लोकतंत्र की बहाली के बाद थोक में तथाकथित जनता के सेवकों ने तो मतदाताओं को यह सबक दिया है.लोकतांत्रिक प्रतिनिधियों के प्रति उनके अनुभव कड़वे हुए हैं.क्या मायावती मौजूदा राजनैतिक दर्शन में आमूलचूल परिवर्तन करेगी, क्या मायावती अपनी राजनीति को सामाजिक सरोकारों से जोड़ेगी, क्या मायावती पीछे मुड़कर बामसेफ के इतिहास के संग्रहालय में जाकर धूल-मिट्टी से सने उन जीवित पात्रों को याद करेगी, जिन्होंने उन्हें एक बार नहीं चार बार देश के सबसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने में अपना सर्वस्व लुटाकर सिंहासन तक पहुंचाया.

मोहनदास नेमिशराय
लेखक


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