फारुख अब्दुल्लाह की बदजुबानी
फारुख अब्दुल्लाह ने जिस तरह बिना किसी हिचक के कश्मीर मामले पर पाकिस्तान से मध्यस्थों के जरिए बात का बयान दिया है उस पर यदि किसी आम देशवासी की प्रतिक्रिया लीजिए तो आपको अंदाजा हो जाएगा कि उनके खिलाफ लोगों में कितना गुस्सा है. हो भी क्यों न!
![]() फारुख अब्दुल्लाह की बदजुबानी |
जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री और केंद्र में मंत्री रहा हुआ एक व्यक्ति यदि भारत की नीतियों के खिलाफ जाकर इस तरह बात करता है, जो पाकिस्तान की भावना और सोच को अभिव्यक्त करता है तो फिर आम भारतीय का उत्तेजित होना स्वाभाविक है. लोग पूछ रहे हैं कि अगर इस व्यक्ति की यही सोच है तो फिर यह मुख्यमंत्री रहते हुए किस प्रकार की सरकारी नीतियों का वरण करता रहा होगा? किंतु क्या फारुख पर देशव्यापी गुस्से का कोई असर है? ऐसा लगता नहीं. अगर होता तो वे अपने बयान को वापस लेते, उसके प्रति खेद प्रकट करते या फिर ऐसी सफाई देते जिससे देश आस्त होता. ऐसा वे नहीं कर रहे हैं तो इसका अर्थ यही है कि वे अपने मंतव्य पर कायम हैं. इसका अर्थ क्या माना जाए? वे कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बात करिए. आपको बात करनी पड़ेगी. जब आप चीन से बातचीत करने को तैयार हैं तो पाकिस्तान से क्यों नहीं कर सकते? खुद नहीं कर सकते तो अपने दोस्तों के माध्यम से करिए. आप कहते हैं कि दुनिया में आपके बहुत दोस्त हैं.
जब उनसे पूछा जाता है कि क्या आप कश्मीर में तीसरे पक्ष की मध्यस्थता की बात कर रहे हैं तो वे जो जवाब देते हैं उसे देखिए. अभी ट्रंप ने कहा कि वो कश्मीर समस्या का समाधान करना चाहते हैं. हमने तो नहीं कहा उनसे ऐसा कहने के लिए. चीन कह रहा है कि वो मध्यस्थता करना चाहता है. इन दो देशों का नाम लेने का यह मतलब निकालना बिल्कुल आसान है कि आप इनमें से किसी की मध्यस्थता में कश्मीर मामले पर पाकिस्तान से बातचीत का समर्थन कर रहे हैं. यह सुझाव आपत्तिजनक ही नहीं भारत विरोधी भी है.
भारत की यह घोषित नीति है कि कश्मीर मामले में किसी तीसरे पक्ष की आवश्यकता नहीं है, यह द्विपक्षीय मामला है. जब दुनिया का कोई देश खुलकर भारत की नीति को ध्यान में रखते हुए मध्यस्थता की बात करने से हिचकता है उसमें भारत का कोई नेता ऐसा बयान दे वह भी जो कश्मीर का मुख्यमंत्री रहा हो, तो पाकिस्तान की बांछे खिल जातीं है. वहां मीडिया में इस बयान पर बहस आरंभ हो जाती है और बताया जाता है कि किस तरह भारत कश्मीर के एक नेता के बयानों की अनदेखी कर रहा है.
फारुख से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या पाकिस्तान से बातचीत करने की कोशिश नहीं हुई है? लगातार हुई है? वर्तमान सरकार ने भी आरंभ में पाकिस्तान से संबंध सामान्य करने की ही पहल की. 25 दिसम्बर 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बिना निमंत्रण के नवाज शरीफ के घर तक जाना भारत की पहल की चरम स्थिति थी. किंतु परिणाम में पठानकोट हो गया. इसके बावजूद भारत ने पाकिस्तान से संपर्क और संवाद खत्म नहीं किया. फारुख का बयान ऐसे समय आया है जब अमेरिका ने अपनी ‘कंट्री रिपोर्ट ऑन टेररिज्म’ में पाकिस्तान को आतंकवाद का सुरक्षित पनाहगाह कहा है और उसको मिलने वाली वित्तीय सहायता रोक दी है. इस रिपोर्ट और अमेरिकी कार्रवाई से पाकिस्तान भारी दबाव में है. ऐसे समय फारुख बयान देकर उस देश को क्यों ऑक्सीजन देने पर तुल गए?
यह उनकी नीयत पर प्रश्न खड़ा करता है. अमेरिकी रिपोर्ट एवं कदम के बाद भारत के नेताओं की नीति एक ही होनी चाहिए, हर दृष्टि से पाकिस्तान को ज्यादा-से-ज्यादा दबाव में लाने की कोशिश. फारुख का बयान इसके विपरीत पाकिस्तान की नीति को आगे बढ़ाने वाला है. और चीन? आश्चर्य है कि ऐसे समय जब चीन ने डोकलाम में सड़क बनाए जाने को भारत द्वारा रोके जाने के बाद हमारे खिलाफ क्या नहीं कहा है, फारुख उसका भी नाम मध्यस्थता के लिए ले रहे हैं. पाकिस्तान की पीठ पर यदि किसी एक देश का इस समय हाथ है तो वह चीन है. इतना ही कहना पर्याप्त है कि चीन का मध्यस्थ बनना पाकिस्तान के लिए मुंहमांगा वरदान की तरह होगा. आखिर हमारे पाक अधिकृत कश्मीर का एक बड़ा भाग पाकिस्तान ने चीन को दे दिया है. हमारा लक्ष्य पाक अधिकृत कश्मीर को पूरी तरह भारत का अंग बनाना है और उसमें चीन से भी टकराव लेना पड़ सकता है.
फारुख का यह कहना भी गलत है कि चीन ने मध्यस्थता की बात की है. चीन ने यह कहा है कि जिस तर्क के आधार पर भारत डोकलाम में आया है उसी तर्क के आधार पर चीन पाकिस्तान के कहने पर कश्मीर में घुस सकता है. यह भारत विरोधी बयान है. पता नहीं फारुख को इसमें कहां से मध्यस्थता सूझ गई. इसी तरह ट्रंप ने भी कभी मध्यस्थ बनने की बात नहीं की. संयुक्त राष्ट्र तक पाकिस्तान की मध्यस्थता की अर्जी फेंक चुका है. फारुख को यह भी पता होगा कि भारत स्थित पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित चीन के राजदूत से मिलने के बाद भूटान के राजदूत से मिल रहे हैं. भारत के साथ तनाव में भारत की भूमि का इस्तेमाल वो भारत विरोधी गतिविधियों के रूप में कर रहे हैं. यह वही भूटान है, जिसने इस्लामाबाद में दक्षेस शिखर सम्मेलन में भारत के साथ भाग लेने से इनकार कर दिया था. ऐसे पाकिस्तान और चीन के प्रति फारुख का झुकाव समझ से परे है. किंतु फारुख ऐसा कह रहे हैं तो वे अकेले नहीं हैं. जम्मू-कश्मीर में हुर्रियत के सारे अलगाववादी नेता इसी विचार के हैं. यह बात अलग है कि पिछले दिनों दिल्ली में गृहमंत्री से मुलाकात के बाद मुख्यमंत्रक्ष महबूबा ने कह दिया कि यह एक जंग है. फारु ख महबूबा के भी उस बयान को भूल गए, जिसमें उन्होंने कहा कि अब चीन भी कश्मीर में भूमिका निभा रहा है.
वैसे फारुख इसके पहले पत्थरबाजों को वतनपरस्त करार दे चुके हैं. हुर्रियत को कह चुके हैं कि आप हमें अपना दुश्मन न मानो. इसलिए कोई यह कह सकता है कि उनके बयान पर हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए. किंतु फारुख इस समय भी संसद सदस्य हैं और भारतीय संविधान के तहत उन्होंने शपथ लिया है. हालांकि, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उनकी बातों को नकार दिया है. भाजपा ने भी नकारा है. किंतु भाजपा ने पार्टी के स्तर पर इस पर अपनी ओर से पत्रकार वार्ता बुलाकर प्रतिक्रिया नहीं दी है. यह चिंता का विषय है.
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