मीडिया : हिंदी के नए दुश्मन

Last Updated 25 Jun 2017 05:12:26 AM IST

बेंगलुरू में मेट्रो चली. मेट्रो के ‘साइनेजों’ यानी ‘संकेत पट्टिकाओं’ पर तीन भाषाओं में संकेत लिखे थे. पहली भाषा कन्नड़ थी, दूसरी हिंदी तीसरी अंग्रेजी. यानी पूरी तरह त्रिभाषा फॉर्मूला.


मीडिया : हिंदी के नए दुश्मन

सीएनएन न्यूज अठारह नामक एक अंग्रेजी चैनल के एंकर जैकब ने मेट्रो के साइनेजों की भाषा पर जो चर्चा कराई. उसके अनुसार ‘यह कन्नड़ भाषी जनता पर हिंदी को जबर्दस्ती थोपना था’. एंकर के तर्क थे : साइनेजों में हिंदी जबर्दस्ती थोपी जा रही है. यहां कन्नड़ और अंग्रेजी काफी हैं.

केंद्र सरकार हिंदीवादी है. हिंदी थोपने के चक्कर में है. बीच-बीच में वह मेट्रो के ‘साइनेज’ दिखाता जाता था और हिंदी के इस तरह ‘थोपे जाने’ पर अपने दांत पीसकर क्रोध जाहिर करता जाता था कि इधर हिंदी की क्या जरूरत? कन्नड़ और अंग्रेजी काफी हैं. तमिल वालों पर केंद्र सरकार हिंदी थोपने की कोशिश कर रही है. कोच्चि मेट्रो में मलयालम और अंग्रेजी में साइनेज लगे हैं, उनमें हिंदी नहीं है. इस मेट्रो में भी नहीं होनी चाहिए इत्यादि.

चरचा में एक कन्नड़भाषी ने हिंदी को खतरा बताया तो दूसरे ने कहा कि गांधी जी ने कहा था कि हिंदी को लिंक लैंग्वेज बनाया जाना चाहिए. एक कांग्रेसी नेता ने जरूर बताया कि मेट्रो केंद्र सरकार की योजना है, और हिंदी ऑफिसियल लैंग्वेज है. तीन भाषा फॉर्मूला के अंतर्गत पहली भाषा स्थानीय होनी चाहिए. दूसरी हिंदी तथा भाषा तीसरी अंग्रेजी होनी चाहिए. यही तो लिखा है. अब इसमें थोपने जैसी क्या बात है? हो सकता है कि निजी तौर पर हिंदी किसी एंकर को पसंद न हो, लेकिन आप अपने पर्सनल विचार प्रोग्राम पर न थोपें. एंकर तो पक्ष-विपक्ष से एकदम तटस्थ होना चाहिए. उसका काम हर तरह के विचारों को जगह देना है, न कि अपने विचारों को थोपना.

जिस एंकर यानी जका जैकब साहब की हम बात कर रहे हैं, वह पूरे एक घंटे, जाने या अनजाने, हिंदी और तीन भाषा फॉरमूले के एकदम खिलाफ बातें करता रहा. उसको अंग्रेजी से परेशानी नहीं थी. मानो इस देश या कर्नाटक में सब अंग्रेज रहते हों. उसको आपत्ति थी, तो सिर्फ हिंदी से. क्यों? और हिंदी विरोध के इस पुण्यकर्म में सिर्फ सीएनएन न्यूज अठारह ही शामिल नहीं है, बल्कि कई दूसरे अंग्रेजी चैनल भी शामिल नजर आते हैं. इसके बावजूद इन हिंदी विरोधी अंग्रेजी चैनलों का काम हिंदी के विज्ञापनों के बिना नहीं चलता. चरचा के दौरान ही सीएनएन न्यूज अठारह में हिंदी के विज्ञापन आ रहे थे. अगर हिंदी से इतनी ही नफरत है, तो हिंदी के विज्ञापनों से पैसा बटोरना बंद क्यों नहीं कर देते?

हम जानते हैं कि प्रकटत: कोई भी मीडिया किसी एक भाषा का द्वेषी नहीं हो सकता, लेकिन परोक्षत: ऐसे द्वेष का एजेंडा तो चलाया  ही जा सकता है, या चैनल की आड़ में कोई एंकर अपनी भाषायी  राजनीति तो पेल  ही सकता है. एंकर कोई देवता नहीं होते. उनके भी ‘हिडिन एजंडे’ हो सकते हैं. एक घंटे के प्रोग्राम में हमें बराबर लगता रहा कि सीएनएन न्यूज अठारह का वह एंकर हिंदी के विरोध की पूरी तैयारी करके आया है. अपने अंध-हिंदी विरोध में वह आंकड़ों को भी अपने तरीके से मरोड़ता जाता था कि बेंगलुरू में सिर्फ चार फीसद हिंदी भाषी हैं; कि हिंदी भारत में ‘अल्पमत’ की भाषा है यानी बहुमत तो अहिंदीभाषियों का है.

भाषा के अल्पमत या बहुमत का मुद्दा तो था ही नहीं. मुद्दा सिर्फ इतना था कि केंद्र की योजनाओं में कानूनन तीन भाषा फॉर्मूला लागू होता है, जिसके अंतर्गत सबसे पहला स्थान स्थानीय भाषा का होता है. दूसरा हिंदी का क्योंकि हिंदी कानूनन ‘आफिसियल लैंग्वेज’ है, और तीसरा अंग्रेजी का. ऐसी ही एक बहस कुछ पहले एनडीटीवी की एक अंग्रेजी एंकर ने कराई थी. उसका भी सारा बल हिंदी के विरोध में था कि तमिलनाडु में हिंदी थोपी जा रही है.

प्रसंग इतना था कि तमिलनाडु की एक सड़क पर तीन भाषा फॉर्मूला के अंतर्गत बने साइनेज से, एक आदमी हिंदी वाले हिस्से पर कालिख पोते जा रहा था. और अंग्रेजी एंकर इधर तमिल पर ‘हिंदी को थोपा जा रहा है’, कहे जा रही थी. उससे यह न कहा गया कि हिंदी मिटाई जा रही है जबकि वही मिटाई जा रही थी. इन देसी अंग्रेजों को कौन कहे कि अपने अंध हिंदी विरोध को छोड़कर पहले ‘राजभाषा कानून’ और ‘त्रिभाषा फॉर्मूला’ पढ़ लो ताकि समझ सको कि यह त्रिभाषा फॉर्मूला है, जिस पर केंद्र  सरकार अमल करती है, और यह हिंदी भाषा थोपना नहीं है, कानून का अनुपालन मात्र है. और थोपना भी तब होता जब कन्नड़ मिटाकर हिंदी कर दी जाती लेकिन ऐसा तो नहीं था.

सुधीश पचौरी
लेखक


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