नजरिया : चौंकाएगी ट्रंप-मोदी की मुलाकात

Last Updated 25 Jun 2017 05:16:22 AM IST

मोदी-ट्रंप पहली बार मुलाकात करने वाले हैं, लेकिन पृष्ठभूमि ऐसी है जैसे वे मुद्दतों बाद मिलने वाले हों और दोनों नेताओं को इस मुलाकात का इंतजार हो.


नजरिया : चौंकाएगी ट्रंप-मोदी की मुलाकात

न व्हाइट हाऊस पीएम नरेन्द्र मोदी के लिए नया है और न ट्रंप के लिए भारतीय समुदाय. राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ट्रंप ने कहा था कि भारत और हिंदू समुदाय अमेरिका के सच्चे दोस्त हैं. लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद एच1 वीजा पर सख्ती और पेरिस जलवायु समझौते से हटते हुए भारत-चीन पर अप्रिय टिप्पणी ने द्विपक्षीय सहयोग के भविष्य को लेकर शंकाओं को जन्म दिया है. भारत और अमेरिका ही नहीं, दुनिया की नजर इस बात पर है कि मोदी-ट्रंप इस मुलाकात मंथन से क्या कुछ निकाल पाते हैं. शंकाएं दूर होती हैं, या मजबूत.

भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ताकत है-राष्ट्रवाद. एक इंडिया फस्र्ट के नारे लगाते हैं, दूसरे अमेरिका फस्र्ट के. एक का राष्ट्रवाद देश को इस्रइल के करीब ले जाता है, और पाकिस्तान से दूर, तो दूसरे का राष्ट्रवाद ईश्वरान और पाकिस्तान से दूरी बनाता है. वहीं दोनों का साझा हित चीन की प्रभुत्ववादी नीतियों के समानांतर एकजुट होने की जरूरत भी पैदा करता है. आतंकवाद से सैद्धांतिक लड़ाई के लिए तैयार होकर दोनों राष्ट्रवादी नेताओं के पास एक दूसरे से हाथ मिलाने और मुस्कुराने की वजह है, वहीं ओबामा-मोदी ने जिस द्विपक्षीय संबंध को गहराई दी, उसे आगे बढ़ाने के लिए भी मोदी-ट्रंप पर आंतरिक दबाव इस मुलाकात में नई उम्मीद जगाता है.

मोदी-ट्रंप की मुलाकात पर वही लोग संशय देख रहे हैं, जिन्हें इन दोनों नेताओं को समझने की राजनीतिक तमीज नहीं है. यह मुलाकात किसी मजबूरी में नहीं हो रही है. इसे टाला भी जा सकता था. फिर टला क्यों नहीं, मुलाकात क्यों हो रही है? इसका जवाब ही उम्मीद है. ट्रंप भारत का जब जिक्र करते हैं, तो उनके जेहन में हिंदुओं के प्रभुत्व वाला भारत और उनके नेतृत्वकर्ता के रूप में मोदी होते हैं. उनकी सोच संकीर्ण बोलकर आप निंदा कर सकते हैं, लेकिन नीति स्पष्ट है. र्वल्ड ट्रेड टॉवर की घटना के बाद से लेकर ओसामा बिन लादेन के अंत तक लड़ते हुए अमेरिका के लिए आतंकवाद का जो खतरा पैदा हुआ है, उससे अमेरिकी राष्ट्रवाद लोहा लेने के लिए कमर कस रहा है. एच1 वीजा की सख्ती इस नजरिये की पुष्टि के साथ-साथ रोजगार के लिए राष्ट्रवादी चिंता को जाहिर करता है. 

पेरिस जलवायु समझौते से हटना ट्रंप प्रशासन का अति राष्ट्रवादी चरित्र है, जो अपने स्वार्थ के लिए वैश्विक जिम्मेदारी की कुर्बानी देने से भी नहीं झिझकता. दुनिया भर में निंदा के बावजूद ट्रंप प्रशासन अपनी नीति पर अड़ा हुआ है. स्वार्थपरक अमेरिकी राष्ट्रवाद का हित ही वह वजह है, जो भारत और चीन की ओर उंगली उठाने से भी संकोच नहीं करता. इसलिए इस स्थिति को भी ‘ट्रंप प्रशासन का भारत विरोधी ‘रवैया’ नहीं माना जाना चाहिए. भारत का नाम विरोध के नैतिक आधार को तैयार करने की जद्दोजहद में आया मानकर हम उम्मीद भरे भावी संबंध की अपेक्षा रख सकते हैं. 

अमेरिका, भारत और इंग्लैंड में नेतृत्व परिवर्तन ने दुनिया के समीकरणों को नए सिरे से बुनना शुरू किया है. जहां पाकिस्तान अमेरिका से दूर हुआ है, वहीं चीन ने पाकिस्तान को शरण दी है. भारत-अमेरिका संबंध का नया अध्याय अभी लिखा जाना बाकी है, लेकिन तय है कि चीन-पाकिस्तान की धुरी के विपरीत यह वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों के बीच अंतर्सबंध का कवर पेज बनेगा. इंग्लैंड यूरोपीय यूनियन से अलग हो रहा है, तो जर्मनी के नेतृत्व में यूरोपीय यूनियन अपनी आर्थिक दशा को दुर्दशा की ओर जाने से रोकने के लिए भारत के सहयोग को आतुर है. चीन भी भारत की इस बढ़ती अहमियत को देखते हुए एक दूरी बनाए हुए है, और भारत की घेराबंदी करते हुए दुश्मनी को टालने की नीति पर चल रहा है.

जाहिर है नए बन रहे समीकरण में अमेरिका और भारत एक पाले में हो जाते हैं, और उन्हें परस्पर सहयोग करना ही होगा. यही वजह है कि मोदी-ट्रंप की मुलाकात हो रही है. चीन जो रवैया भारत के साथ रखे हुए है, अमेरिका का रवैया चीन के साथ भी बहुत कुछ वैसा ही है. एक अमेरिका थिंक टैंक ने कहा है कि ट्रंप प्रशासन चीनियों के साथ घनिष्ठ संबंध भी चाहता है, और उसके बढ़ते प्रभाव पर अंकुश भी. इसलिए उसे भारत की मदद की हर हाल में जरूरत होगी. लेकिन नजरअंदाज नहीं करने योग्य सच्चाई यह भी है कि नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री के तौर पर यह सबसे संक्षिप्त और सीमित यात्रा है.

अमेरिका की ईश्वरान और अफगान नीति में दिख रहे बदलाव भी भारत के अनुकूल नहीं हैं. भारत जहां ईश्वरान और अफगानिस्तान से द्विपक्षीय संबंध मजबूत बना रहा है, वहीं अमेरिका सऊदी अरब के जरिए कतर के खिलाफ मोर्चा बंदी और ईश्वरान से संबंध को तनातनी के स्तर पर ले जाता दिख रहा है जबकि अफगानिस्तान में तालिबान से बातचीत को प्राथमिकता देता हुआ अमेरिका एक बार फिर खतरनाक रास्ते पर चलने की कोशिश करता नजर आ रहा है. भारत के लिए अमेरिका की यह नीति हजम करने वाली नहीं है, क्योंकि पाकिस्तान और चीन की गुटबंदी के रहते भारत इस रास्ते पर अमेरिका के साथ चलने की गलती नहीं कर सकता. उधर,  भारत ईश्वरान और अफगानिस्तान में आर्थिक संबंध का नए सिरे से तानाबाना बुनने में जुटा है.

ट्रंप-मोदी मुलाकात पर चीन की कितनी करीबी नजर है,  वह इस बात से समझा जा सकता है कि चीन ने दोनों देशों को आगाह करने वाला एक संदेश जारी कर दिया है. चीन ने कहा है कि दक्षिण चीन सागर की शांति में कोई गैर-क्षेत्रीय देश खलल न डाले और यहां के विवादों में सकारात्मक भूमिका निभाए. चीन दरअसल दक्षिण चीन सागर में अपने संपूर्ण प्रभुत्व की गारंटी चाहता है, लेकिन अमेरिका की वियतनाम और ताईवान से और भारत की मलयेशिया से बढ़ती नजदीकी के साथ-साथ अमेरिका से संभावित दोस्ती को वह शक की नजरों से देख रहा है. खुद ट्रंप प्रशासन ने भी मोदी से मुलाकात को लेकर अच्छे नतीजे की उम्मीद जताई है.

आतंकवाद का खासकर जिक्र किया गया है, और द्विपक्षीय संबंध को मजबूती देने की बात अमेरिका ने की है. इसलिए ऐसा नहीं है कि भारत और अमेरिका के शीर्ष नेता पहली बार मिलते हुए ब्लैंक हैं. उनके दिमाग में भावी संबंधों का खाका है, विश्व स्तर की कूटनीति है, राष्ट्रवाद की रक्षा और आतंकवाद के खिलाफ रणनीति भी है. आर्थिक संबंध को नई ऊंचाई तक ले जाने और विश्व की कारोबारी दुनिया में अपनी भूमिका बढ़ाने के लिए सहयोग की संभावना देखने का मौका है यह शिखर बैठक. इसलिए निश्चित है कि बातचीत के नतीजों को लेकर तमाम शंकाओं के उलट यह संक्षिप्त मुलाकात भारत-अमेरिका संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने वाली साबित हो सकती है.

उपेन्द्र राय
तहलका के सीईओ व एडिटर इन चीफ


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