राष्ट्रपति पद : लोकतंत्र का कमाल

Last Updated 21 Jun 2017 02:53:20 AM IST

इसे लोकतंत्र का कमाल ही मानना चाहिए कि हजारों साल से हाशिये पर रहे दलित समुदाय का दूसरा सदस्य उसी भारत की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठने जा रहा है.


राष्ट्रपति पद : लोकतंत्र का कमाल

 

 

और अगर भाजपा की तरफ से घोषित राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को कोई चुनौती मिलेगी भी तो लगभग तय है कि वह भी एक दलित उम्मीदवार से ही. विपक्ष जिन नामों पर सबसे गंभीर है, उनमें मीरा कुमार का नाम सबसे आगे है. 

मजेदार बात यह है कि राष्ट्रपति पद एक दलित को देने की पहल इस बार उस भाजपा ने की है, जिसे ब्राह्मण-बनियों की पार्टी माना जाता है, और उसके पीछे खड़े संघ को ब्राह्मणवाद का रखवाला. निश्चित रूप से इस कदम के साथ वोट की राजनीति जुड़ी है पर दलित को आगे लाने की मजबूरी महत्त्वपूर्ण है. और दलित से कोई दूसरा मुकाबला नहीं कर पाएगा, यह राजनैतिक स्थिति भी महत्वपूर्ण है. पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करके घोषणा करने तक शायद ही किसी को अंदाजा था कि बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद एनडीए की तरफ से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बन रहे हैं. और सच कहें तो यह नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की राजनैतिक शैली है वरना यह एक ऐसा नाम है, जिस पर भाजपा आसानी से सर्वसम्मति बना सकती थी. संघ की बुनियादी ट्रेनिंग से दूर रहे रामनाथ कोविंद से किसी को कोई शिकायत हो सकती है, यह सोचना मुश्किल है. अपनी सादगी, अपनी ईमानदारी, अनुभव और निष्ठा के लिए पहचाने जाने वाले इस व्यक्ति को किसी पद की जोड़-तोड़ में भी कभी नहीं देखा गया है. शायद इसी का नतीजा है कि पहले राज्यपाल और अब राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी उन्हें मिली है, जिसका व्यावहारिक मतलब यही है कि वे देश के अगले राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं. 

 

राजनीति का अगला दौर जितना महत्त्वपूर्ण बनने जा रहा है,  और जितने बड़े कानूनों को पास कराने की तैयारी है, उसमें नरेन्द्र मोदी के लिए अपने भरोसे का व्यक्ति चुनना और छोटी महत्त्वाकांक्षा से ऊपर उठे व्यक्ति को चुनना जरूरी है. रामनाथ कोविंद इन कसौटियों पर खरे उतरते हैं. अब यह अलग बात है कि कहीं-कहीं मुल्क और मोदी की इच्छा/हितों में टकराव हो तो वे क्या करेंगे, यह साफ नहीं है. फिर यह आशंका भी बेवजह नहीं है कि कहीं सीधे-सादे कोविंद मोदी की इच्छाओं के आगे रबर स्टांप न बन जाएं. उनका नाम सामने आने पर विपक्ष को भी आलोचना का एक ही मुद्दा मिला कि उसे पहले भरोसे में क्यों नहीं लिया गया. कई लोगों ने उनके अचर्चित रहने को लेकर मुद्दा बनाया कि उनके बारे में जानने के लिए विकीपीडिया की मदद लेनी पड़ी. कोविंद दलित समाज से आते हैं, सो बसपा नेता मायावती ने बहुत सावधानी से प्रतिक्रिया दी क्योंकि उनके लिए विरोध और समर्थन दोनों ही आसान न होगा. वे यूपी से हैं, और गैर-जाटव, कोरी समाज से आते हैं. भाजपा कब से दलितों में गैर-जाटवों के सहारे दरार डालने की कोशिश कर रही है.

पर यह पद जितना बड़ा है, और अगले पांच साल जितने महत्त्वपूर्ण होने वाले हैं, उसमें राष्ट्रपति पद पर लड़ाई न हो, यह निष्कर्ष निकाल लेना गलत होगा. निश्चित रूप से अनुभव और कद के हिसाब से भाजपा के पास ही कई और बड़े नाम थे, मुल्क की बात तो छोड़ ही दें और अगर नरेन्द्र मोदी और अमित शाह सिर्फ  अपनी राजनीति और सुविधा के लिए ही नाम चुनते हैं, तो उन्हें चुनाव के लिए भी तैयार रहना चाहिए. 

निश्चित रूप से कोविंद का नाम उनके दलित होने और पार्टी का अनुशासित सिपाही होने के चलते भी आया है. भाजपा की अगली राजनाति में सारा जोर दलित-आदिवासी पर जाना तय लग रहा है. यह कोई बुरी बात नहीं है. पर भाजपा या कोई पार्टी सिर्फ  वोट के लिए ऐसा करे यह ठीक नहीं है.

और इस चुनावी रणनीति में राष्ट्रपति जैसे पद को समेटा जाए, यह तो और भी गलत है. पूर्व में कांग्रेस और अन्य दलों ने भी ऐसे खेल किए हैं, और उस दफे का राष्ट्रपति कमजोर साबित हुआ है. इसलिए राष्ट्रपति चुनते समय अच्छा राष्ट्रपति चुनना प्राथमिकता होनी चहिए. पर मोदी-शाह की जोड़ी की रणनीति में जाहिर तौर पर कई और चीजें शामिल हैं. 

भाजपा का उम्मीदवार एनडीए को मान्य होगा और बहुमत से थोड़ा ही कम वोट हाथ में रहने के चलते अपने उम्मीदवार के लिए बाहर से समर्थन जुटाने की सुविधा ने भाजपा नेताओं को आराम की स्थिति में ला दिया है. और जिसके पास ताकत हो वह क्यों दूसरों की परवाह करेगा? इसलिए भाजपा नेता अगर सर्वसम्मति कहते हुए विपक्ष से मिले तब भी कोई नाम बताना उन्हें अच्छा नहीं लगा.

पर द्रौपदी मुर्मू जैसा नाम सामने न लाने का मतलब यह भी है कि उन्हें भी डर था कि कहीं कमजोर उम्मीदवार देखकर उनके साथी और विपक्ष कुछ और न कर दें.  आखिर, इस चुनाव में व्हिप तो चलता नहीं. दूसरे विपक्ष तो हारने की मानसिक स्थिति में है ही, भाजपा का मौजूदा नेतृत्व राष्ट्रपति चुनाव में अपने उम्मीदवार के हारने का जोखिम नहीं उठा सकता. अगर ऐसा हुआ तब तो सारी राजनीति ही बदल जाएगी. रामनाथ कोविंद का नाम मुर्मू से बड़ा जरूर है, पर पूरी तरह निश्चिंत होने लायक भी नहीं है. 

 

अरविन्द मोहन
लेखक


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