मीडिया : चुप कराने की कोशिश
कोई हल्के में बात लेना चाहे तो मान सकता है कि भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा को एक लाइव चर्चा से जाने को कहना एनडीटीवी की एंकर को भारी पड़ गया.
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कोई उससे भी सरलता से बात लेना चाहे तो कह सकता है कि प्रणव राय और एनडीटीवी ने काफी घोटाले किये थे और एक लेक्चरर से इतनी जल्दी एक चैनल का मालिक बने राय ने जरूर वित्तीय अनियमितता बरती होगी और देश से कालाधन और भ्रष्टाचार को समाप्त करने में लगी मोदी सरकार के ‘तोते’ सीबीआई ने उसे पकड़ने की पहल कर दी है.
आखिर कितने दिन तक कोई मीडिया की आजादी की आड़ लेकर अपना गोरखधंधा चला सकता है-और वह भी एनडीए के राज में. पर यह सब मन बहलाने के ही नहीं बेवकूफी के तर्क हैं. लगातार सरकार की आलोचना करने से ज्यादा उसके निर्देश, इशारों और आंख तरेरने को नजरअंदाज करके अपना काम करते जा रहे इस मीडिया हाउस को निशाना बनाना मोदी सरकार की एक सोची-समझी नीति का हिस्सा है और सम्भव है कि डॉ. राय के खिलाफ सरकारी और संघ परिवार की तरफ से अगले दो साल तक दुष्प्रचार जारी रहेगा. उसके बाद क्या होगा, यह किसे पता है, पर यह सारा सरकारी गोरखधंधा 2019 के चुनाव को जीतने, अपने झूठ को आगे रखने, अपनी गलतियों व असफलताओं को छुपाने और मीडिया से अपना प्रचार कराने की रणनीति के तहत किया गया है. और उसमें किसी एक मीडिया संस्थान को निशाना बनाना, कोई दर्जन भर पत्रकारों के बोलने-छपने के खिलाफ गिरोहबंदी करना और कुछ पत्रकारों को निशाना बनाकर डराना-धमकाना शामिल है.
कहना न होगा, इन चीजों की जरूरत कम ही पत्रकारों के लिए है वरना मीडिया का काफी बड़ा वर्ग तो पहले से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ‘दीवाना’ हुआ बैठा है. और उससे भी बड़ा वर्ग ऐसा है, जिसने हवा का रु ख पहचानकर खुद ही भगवा लहरा दिया है. यह चीज शायद इमरजेंसी से भी आगे पहुंच गई है, जिसके बारे में लालकृष्ण आडवाणी का यह कथन सभी याद करते हैं कि मीडिया को तब झुकने के लिए कहा गया (इंदिरा गांधी सरकार की तरफ से) पर वह तो लेट ही गया. कुछ बड़े अखबारों, कुछ ही बड़े चैनलों को अपना दास/भगत बनाने की जरूरत है, बाकी का तो बहुत मतलब भी नहीं है और अगर कोई छोटा समूह या व्यक्ति विरोध और आलोचना करना जारी भी रखे तो उसकी बात कितनों तक पहुंचेगी. जब ऊपर वाले पट जाएंगे तब छोटों को पटाना मुश्किल नहीं है.
न्यू दिल्ली टेलीविजन (एनडीटीवी) के छापों को इसी संदर्भ में देखना चाहिए. किन-किन पत्रकारों को इसी तरह निशाना बना कर छपने और बोलने से रोका गया है, या उनका लिखना-बोलना कम हुआ है, यह सूची बहुत बड़ी है. हालांकि यह आरोप भर नहीं है. एक-आधी गलती पर किस तरह एक दमदार अंग्रेजी पत्रिका के संपादक को विदा कराके उस पत्रिका को नाश कर दिया गया, यह किस्सा ज्यादा पुराना नहीं है. पर जिस दौर में संसद और कार्यपालिका पर एनडीए का एकछत्र राज कायम हो चुका है, उसमें न्यायपालिका और मीडिया की स्वतंत्रता और भी महत्त्वपूर्ण हो गई है. न्यायपालिका और सरकार का टकराव जारी है. एक संगठित और साफ व्यवस्था होने के चलते न्यायपालिका के लिए अपनी आजादी बचाने की लड़ाई को ढंग से लड़ना संभव है. लेकिन पूरी तरह निजी क्षेत्र में चलने और पचास किस्म के व्यावसायिक हितों से संचालित होने के चलते मीडिया के लिए दबाव में आना बहुत आसान है.
जरा से विज्ञापन, कुछेक मुकदमे, कंपनी के कामकाज में कभी भी हुआ कानून का उल्लंघन या उसका आरोप मीडिया कंपनी के मालिक और उसके माध्यम से उस संस्थान के पत्रकारों को दबाव में ला देता है. और पत्रकार भी बिना श्रम कानून के ठेके की नौकरी कर-कर के इस हालत में हैं कि अपना परिवार चलाने की चिंता सबसे ऊपर है. इसमें सच के लिए लड़ने, गलत कामों और नीतियों के लिए आलोचना करने और संतुलित समीक्षा करने का शउर काने कितनों के लिए प्राथमिकता रह गया है.
जो सरकार वेतन आयोग की रिपोर्ट को और श्रम कानूनों को लागू कराने में कोई रुचि नहीं लेती वही किसी एक गलती या अविसनीय व्यक्ति के आरोप पर सीधे सीबीआई लगाकर सुधार करने लगे तो साफ है कि निशाना कुछ और है.
हैरानी नहीं कि यह सब कार्रवाई संबित पात्रा को गेटआउट कहने के कुछ समय बाद तो हुई ही राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा प्रेस की आजादी और पत्रकार की आजादी की वकालत करने के तत्काल बाद हुई है. प्रेस की आजादी के लिए सबसे ज्यादा लड़ाई लड़ने वाले रामनाथ गोयनका के नाम पर शुरू व्याख्यानमाला का दूसरा व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि बड़े फैसलों के पहले सार्वजनिक चर्चा और पक्ष-विपक्ष की बात आए, आलोचना हो. जिस दिन लोकतंत्र में हम अपने अलावा दूसरों की बात सुनना बंद कर देंगे लोकतंत्र का बहुत नुकसान हो जाएगा. पर ऐसी आदर्शवादी बातों को सुनता कौन है?
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी एक तो अपने संवैधानिक दायित्व-कर्त्तव्यों के तकाजे के तहत ऐसा कहते रहे हैं. कई मौकों पर उन्होंने सरकार को सचेत करने का भी काम किया है. दूसरे, वह उनकी छवि एक स्वतंत्रचेत्ता व्यक्ति की है, जो राष्ट्रपति पद की गरिमा के मुताबिक ही निर्भीकता और पारदर्शिता के साथ अपनी बात रखता है. ऐसे में कोई भी उनके पदों की मर्यादा को देखते हुए यही कह सकता है कि सरकार को मीडिया घराने पर कार्रवाई करने में कम से कम टाइमिंग का तो खयाल रखना चाहिए था. मगर मोदी जी के लिए यही सही टाइमिंग है, यही सही तरीका है, यही काम करने का ढंग है और यही उद्देश्य है. इसीलिए एक मीडिया संस्थान के ऊपर छापों को गंभीरता से लेना चाहिए. पहले उसे एक दिन बंद कराने की कोशिश हो चुकी है. अब सदा के लिए मुंह बंद कराने की कोशिश है. यह लोकतंत्र के लिए कहीं से शुभ नहीं है.
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