मुद्दा : शिक्षा का स्वयंवर और स्त्री

Last Updated 12 May 2017 05:38:05 AM IST

देश में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे चाहे जितने अभियान चला लिए जाएं, पर समाज के स्तर पर महिलाओं को लेकर इस खास सोच में तब्दीली लाना आसान नहीं है कि उनकी अक्ल घुटनों में होती है.


मुद्दा : शिक्षा का स्वयंवर और स्त्री

यह आम धारणा है कि महिलाएं हिसाब-किताब में कच्ची होती हैं. रु पये-पैसे या कारोबार से लेकर घरेलू खर्च आदि में उनकी भूमिका सिर्फ  इतनी मानी जाती है कि वे पैसे कमाने की चिंता से इतर कामकाज देखें. 

यह विभाजन पढ़ाई-लिखाई के स्तर पर भी बना हुआ है, जहां कला विषय लड़कियों के और साइंस-मैथ्स आदि लड़कों के माने जाते हैं. पर दो वर्षो के अंतराल पर इस लीक को तोड़ती घटनाएं यूपी के मैनपुरी में हुई हैं, उन पर देश का ध्यान जाना चाहिए. हाल में, मैनपुरी के कुरावली में रहने वाली एक लड़की के रिश्ते की बात फरुर्खाबाद के एक युवक से हुई. पता चला कि लड़का 12वीं पास है और लड़की को उसके मां-बाप ने पांचवीं से आगे पढ़ने नहीं दिया. तय हुआ कि शादी से पहले लड़का-लड़की मैनपुरी के नुमाइश मैदान में अपने परिवारों के संग मिलने जाएंगे. बातचीत के दौरान लड़के ने अपनी मर्दवादी श्रेष्ठता साबित करने के लिए लड़की को एक डायरी में हिन्दी के कुछ शब्द लिखने को दिए. लड़की ने सब कुछ सही लिख दिया.

तब लड़की ने भी ऐसी ही परीक्षा की मांग के साथ लड़के से ‘सांप्रदायिक’, ‘दृष्टिकोण’, ‘परिश्रम’ जैसे शब्द और घर का पता लिखने को कहा. डायरी की जांच हुई तो 12वीं पास लड़का परीक्षा में फेल पाया गया, जबकि पांचवीं पास लड़की पास. लेकिन शैक्षिक अग्निपरीक्षा से आहत लड़की ने तय किया कि वह खुद से कमतर लड़के संग ब्याह नहीं करेगी और रिश्ता टूट गया. इस किस्म की यह अकेली घटना नहीं है. दो साल पहले वर्ष 2015 में इसी मैनपुरी की आठवीं पास लड़की खुशबू बीच मंडप में दूल्हे को अनपढ़ जान कर शादी तोड़ चुकी है. ‘शैक्षिक स्वयंवर’ रचाए जाने पर उसने भी दूल्हे से गणित के कुछ मामूली सवाल किए थे, जिनके वह जवाब नहीं दे पाया था.

इसके बाद उसने हाईस्कूल पास एक किसान अमित से ब्याह रचाया, जो इस शैक्षिक-स्वयंवर में खरा उतरा था. लीक तोड़ने वाली इन घटनाओं का उल्लेख विशेष रूप से इस संदर्भ में करना उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले वि बैंक ने ‘महिला, कारोबार और कानून-2015’ नामक जो रिपोर्ट जारी की थी, उसमें भारतीय कामकाजी महिलाओं पर कई ऐसी पाबंदियों का उल्लेख किया गया, जिनका संबंध पढ़ाई-लिखाई, हिसाब-किताब या रु पये-पैसे की समझ से ही होता है. इन पाबंदियों के पीछे लागू होने वाला आम तर्क यह है कि चूंकि महिलाएं आजीविका के लिए घर के मदरे पर आश्रित हैं और उन्हें दुनियादारी और हिसाब-किताब की कोई समझ नहीं होती, लिहाजा वे ऐसे मामलों से दूर ही रहें तो बेहतर. दुनिया के मोर्चे पर देखें, तो कुल उत्पादक श्रमिकों में महिलाओं की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत तक है.

इसमें शायद ही एक या दो प्रतिशत महिलाएं ऐसी हों, जिन्हें मन-मुताबिक काम मिला हुआ है और जिन्हें पुरु ष सहकर्मिंयों के बराबर योग्य माना जाता है. लेकिन अन्य सभी महिला श्रमिकों को रोजगार और वेतनमान में उपेक्षित ही रहना पड़ता है. लंबे समय तक इस शैक्षिक भेदभाव के लिए एक आधार यह बनाया जाता था कि घर से बाहर के असुरक्षित वातावरण और महिलाओं के अनुकूल ढांचागत सुविधाओं का अभाव महिलाओं को कामकाज या मजदूरी करने से रोकता है. इससे यह धारणा बना ली गई कि महिलाएं कुछ खास किस्म के सरल प्रवृत्ति वाले काम ही कर सकती हैं और कभी भी-कहीं भी काम करने को तैयार नहीं हो पाती हैं. लेकिन अब तो लड़ाकू विमान उड़ाकर और सेना के अग्रिम मोचरे पर काम करके महिलाओं ने इस धारणा को धराशायी कर दिया है.

शहरों में तो अब यह चलन भी जोर पकड़ रहा है कि महिला कामकाजी तो ज्यादा बेहतर. इसके पीछे गृहस्थी का आर्थिक बोझ कम करने की मानसिकता काम कर रही है. लेकिन यहां विडंबना यह है कि एक तरफ घरेलू महिलाओं के कामकाज को अनुत्पादक श्रेणी का मान लिया गया तो दूसरी तरफ घर से बाहर काम करने वाली महिलाओं से दफ्तर के साथ-साथ घर के कामकाज में भी योगदान की अपेक्षा की जाने लगी. अंतरराष्ट्रीय वूमेंस राइट ग्रुप का कहना है कि जब तक कि महिलाएं खुद इस बराबरी के लिए आवाज नहीं उठाएंगी, तब तक इस दिशा में और महिलाओं की दशा में कोई बड़ा परिवर्तन होना संभव नहीं है. मैनपुरी से उठी सराहनीय आवाजें इसी का प्रतिफलन हैं, लेकिन सवाल है कि क्या महिलाएं बड़े पैमाने पर खुद इस परिवर्तन के लिए तैयार हैं?

मनीषा सिंह
लेखक


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