दूर तलक जाएगी यह आवाज
Last Updated 08 May 2017 05:23:19 AM IST
इस फैसले से न्यायपालिका में भरोसा बहाल हुआ है. इस फैसले ने मेरी सच्चाई का मान रखा है.
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नागरिक, औरत और मां के तौर पर मेरे हक बेरहमी से कुचले गए. मगर देश के लोकतंत्र पर मैंने यकीन किया. अब मैं बेखौफ जीवन फिर से शुरू कर सकती हूं. राज्य के जिन अफसरों ने मुजरिमों को बचाया, वे बच नहीं पाए, इसकी खुशी है. इंसाफ, बराबरी और सम्मान की लड़ाई में लोगों का साथ दें. सबसे मेरी अपील है कि धर्मनिरपेक्ष चरित्र में देश का भरोसा बनाए रखें. इस फैसले से नफरत खत्म नहीं हुई है, मगर इंसाफ पर यकीन पुख्ता हुआ है. मेरी लड़ाई बहुत लंबी, न खत्म होने वाली रही है. मगर आप जब सच के साथ होते हैं, तो आपको इंसाफ मिलता है.’
ये दिल को छू लेने वाला बयान है, उस बिलकिस बानो का, जिसे अपने और अपने परिवार पर हुए जुल्म का इंसाफ पाने के लिए अदालत से पूरे पंद्रह साल लगे. इस दरम्यिान कई ऐसे मौके आए, जब उनका हौसला टूट सकता था, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. और आखिरकार गुनहगारों को वह सजा मिली, जिसके वह हकदार थे. देर से ही सही मुम्बई हाई कोर्ट ने साल 2002 के गुजरात दंगों के दौरान बहुचर्चित बिलकीस बानो के सामूहिक बलात्कार और उसके रिश्तेदारों की हत्या के मामले में ट्रायल कोर्ट यानी विशेष अदालत द्वारा बारह गुनहगारों की दोषसिद्धि और उम्रकैद की सजा को बरकरार रखा है. जिसमें एक गुनहगार फैसला आने से पहले ही मर गया है. जिन मुल्जिमों को ट्रायल कोर्ट ने गुनहगार माना, उन्हें हाईकोर्ट ने भी गुनहगार माना है.
इस फैसले ने गुजरात के उन हजारों दंगा पीड़ितों में उम्मीद की किरण जगा दी है, जो आज भी इंसाफ पाने के लिए अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं. यह फैसला इसलिए भी अहम है कि मुजरिमों को बचाने के लिए हर मुमकिन कोशिश की गई. गोया कि मामले के चमदीद गवाह-भुक्तभोगी बिलकीस बानो और दंगों में यतीम हुए एक मासूम को मामला वापस लेने के लिए लगातार डराया-धमकाया गया. सबूतों से खिलवाड़ किया गया. अपराधियों का जब उन पर कोई जोर नहीं चला, तो तत्कालीन सरकार ने हार कर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की. लेकिन दंगों में अपना सब कुछ गंवा बैठी बिलकीस बानो ने हिम्मत नहीं हारी.
इंसाफ की आस पूरी होते न देख उसने देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. सर्वोच्च न्यायालय को मामले में सच्चाई नजर आई. लिहाजा उसने मामले की तहकीकात सीबीआई को सौंपी और हुक्म दिया कि इस मामले की सुनवाई गुजरात से बाहर हो, क्योंकि आरोपी रसूख वाले हैं और उनका तआल्लुक उस सियासी पार्टी से है जो गुजरात में सत्ता पर काबिज है. बहरहाल, साल 2004 में मामले की अदालती कार्यवाही अमदाबाद से स्थानांतरित कर मुम्बई कर दी गई.
बिलकीस बानो मामला ही नहीं, बल्कि ‘बेस्ट बेकरी’ मामले में भी ठीक इसी तरह के हालात बने थे. तब भी शीर्ष न्यायालय को हस्तक्षेप कर बेस्ट बेकरी मामले की सुनवाई गुजरात से बाहर करानी पड़ी थी. लेकिन उस वक्त बेस्ट बेकरी की चमदीद गवाह जाहिरा शेख आरोपितों के दबाव और दहशत की वजह से अपने बयान पर कायम नहीं रह पाई थी. जिसके चलते सभी मुल्जिम सबूतों की गैरमौजूदगी में बरी हो गए थे. हालांकि, गुजरात में आज भी सैकड़ों लोग हैं, जो अपनी हारी हुई लड़ाई को बिना थके लड़ रहे हैं. इंसाफ उनसे दूर सही, पर देश की अदालत और उसके कानून पर उनका यकीन यह हौसला बंधाता है कि इंसाफ और इंसानियत की लड़ाई वे इतनी जल्दी हारने वाले नहीं. इस तरह के मामलों में जहां तक सरकार के रवैये का सवाल है.
तत्कालीन गुजरात सरकार हो या मौजूदा राज्य सरकार. ये सरकारें, दंगा पीड़ितों को इंसाफ दिलवाने में पूरी तरह से नाकाम रहीं हैं. ऐसे विकट हालात में मुम्बई हाई कोर्ट का यह फैसला, ऐतिहासिक फैसला है. यह फैसला बतलाता है कि इंसाफ के घर देर है, अंधेर नहीं. अपराधी चाहे जितने रसूख वाले हों, लेकिन कानून की गिरफ्त से बच नहीं सकते. बस जरूरत इस बात की है कि इंसानियत मुखालिफ ऐसी ताकतों के खिलाफ जमकर खड़ा रहा जाए.
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