नजरिया : फैसले से मानवीय गरिमा बहाल
16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली के वसंत विहार इलाके में मानवता को झकझोर देने वाली घटना ने पूरे देश के हर एक इंसान के मन में यह सवाल खड़ा कर दिया कि कोई व्यक्ति इतना क्रूर, नरभक्षी और पैशाचिक वृत्ति का कैसे हो सकता है?
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मानवता को झकझोर देने वाली इस घटना ने सभी के मन में सवाल पैदा किया कि कोई भी व्यक्ति या कोई भी समाज अपनी सभ्यता की सीढ़ियों से गिरते हुए इतने रसातल तक कैसे पहुंच सकता है? लिहाजा, देखते ही देखते निर्भया एक आंदोलन बन गई. पूरी दिल्ली में जिस तरह लोग सड़कों पर उतरे वैसा आंदोलन शायद इससे पहले कभी नहीं हुआ था. इस पर बहुत कुछ लिखा भी गया, बहुत कुछ बोला भी गया. लेकिन सबके मन में एक ही बात थी कि निर्भया को न्याय मिलना चाहिए. उसके गुनहगारों को फांसी मिलनी चाहिए.
इस तरह के मसले हल करने के लिए कानून पहले से हैं. तमाम अदालतों के फैसलों की एक लम्बी फेहरिस्त है. और जब यह मामला पुलिस की कार्रवाई से होता हुआ अदालत पहुंचा तो इस पर बहस हुई और सुनवाई भी. इन चारों अपराधियों के लिए शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जिसके मन में ख्याल न आया हो कि इन सबको मृत्यदंड दिया जाना चाहिए. इन दोषियों को दिल्ली हाईकोर्ट ने 13 मार्च, 2015 को फांसी की सजा सुनाई. इस फैसले को चुनौती देते हुए अभियुक्तों ने 2 जून, 2016 को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने चारों अभियुक्तों को हाईकोर्ट की तरफ से दी गई फांसी की सजा बहाल रखी.
सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में दिया गया फैसला मानवता की गरिमा बढ़ाने वाला है. मैं अपने हृदय की गहराइयों से जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस आर भानुमति को धन्यवाद देता हूं. जिस तरह जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच ने कहा, ‘इस हिंसक दुर्घटना ने सामूहिक चेतना को झकझोरा है.’ उनका पूरा वाक्य यह दिखाता है कि कैसे इन चार लोगों ने दरिंदगी की सारी सीमाओं को तोड़ डाला. न्यायमूर्ति का कहना था,‘ जिस तरह की दरिंदगी वाली मानसिकता इन दोषियों ने दिखाई है, वह स्तब्धकारी, चौंकाने वाली और सदमे की सुनामी की तरह है, जिसने संभ्रांत समाज की चेतना को ऊपर से नीचे तक झकझोर दिया. पीठ ने कहा,‘हाईकोर्ट के फैसले में दखल देने की जरूरत नहीं है. इन चारों दोषियों को फांसी ही होनी चाहिए.’ और फिर न्यायालय ने इन चारों दोषियों की अपील खारिज कर दी.
वहीं जस्टिस आर भानुमति ने अपने फैसले में लिखा है कि इस घटना के बाद दिल्ली समेत देश के समस्त शहरों और स्थानों पर एक अलग तरह की चेतना पैदा हुई, और इस घटना से देश से लेकर विदेश तक लोगों के मन में एक नई चेतना पैदा हुई. दिल्ली में जिस तरीके से लोग सड़कों पर उतर आए, वह बंद आंखों को खोलने वाली घटना थी. महिलाओं के खिलाफ अपराध बंद हो और उनका आदर किया जाए, इसके लिए आम लोगों को संवेदनशील बनाने की जरूरत है. और जेंडर जस्टिस की लड़ाई तभी जीती जा सकती है, जब आम लोगों को संवेदनशील बनाया जाएगा. उम्मीद की जाती है कि यह घटना लोगों को रास्ता दिखाएगी. और इस तरह की मानसिकता रखने वाले लोगों को एक तगड़ा संदेश जाएगा.
आखिर में सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद इस बात की भी पड़ताल होनी चाहिए कि इस तरह की मानसिकता वाले लोग हमारे ही समाज में रहते हैं, हमारे बीच ही रहते हैं, उनको हम क्यों पहचान नहीं पाते? इस तरह की बीमारी या इस तरह की मानसिकता कैंसर से भी ज्यादा खतरनाक है. आचार्य रजनीश ने कामवासना पर एक प्रवचन में बोलते हुए कहा था कि ‘मैं एक गांव से गुजर रहा था, वहां कुछ विचारक साधु-संत मिलकर अश्लील पोस्टर विरोधी एक सम्मेलन कर रहे थे. उनका ख्याल था कि जो अश्लील पोस्टर दीवार पर लगते हैं, इस वजह से लोग कामवासना से परेशान रहते हैं.’ इस पर आचार्य रजनीश ने कहा था कि ‘मेरा सोचना तो बिल्कुल उलट है.
लोग कामवासना से पीड़ित हैं, इसलिए इस तरह के पोस्टरों में मजे लेते हैं. अगर उनके अंदर कामवासना दबी नहीं होगी तो इन पोस्टरों में किसको मजा आएगा. पोस्टर देखने वही जा रहा है जो स्त्री और पुरु ष के शरीर को अभी तक देख नहीं पाया है. शरीर की सहजता का अनुभव नहीं कर पाया है. पोस्टर इन्हीं गुरु ओं की कृपा से लग रहे हैं क्योंकि ये स्त्री-पुरु ष को मिलने जुलने नहीं देते. इसी का विकृत रूप है कि कोई गंदी किताबें पढ़ रहा है, कोई गंदी तस्वीरें देख-दिखा रहा है, कोई गंदी फिल्में बना रहा है.’ और जिस तरीके से पूरी दुनिया में पोनरेग्राफी का व्यवसाय ट्रिलियन डॉलर का बन चुका है, वह सिर्फ इसलिए है कि हिंदुस्तान हो या अमेरिका या यूरोप कामवासना आम आदमी के जीवन में सबसे बड़ा फैक्टर है, जिसको सहजता से देखना, सहजता से स्वीकार करना कम से कम हमारे देश में संभव नहीं हो पाया है.
पिछले दिनों मैंने अखबार में पढ़ा था कि जितने लोग अपने देश में आतंकवादी घटनाओं में नहीं मरते, उससे ज्यादा प्रेम प्रसंगों के कारण चलने वाले विवादों में अपनी जान गंवा बैठते हैं. समाज में इस तरह की गहरे में दबी विकृत कामवासना से मुक्ति तभी पाई जा सकती है, जब स्त्री और पुरुष के बीच हमने जो एक बड़ी दीवार खड़ी कर रखी है, उसे गिराया जाए. हमारे मन में कहीं न कहीं यह संदेह चौबीसों घंटे रहता है कि स्त्री-पुरु ष के मिलन की घटना पाप को जन्म देगी. सही अथरे में पाप वहीं से शुरू होता है, जब हम यह दीवार बनाते हैं. जिस क्षण हम सब यह दीवार गिराने के लिए सहमत हो जाएंगे, उसी क्षण स्वत: एक सहज स्फूर्त समाज का जन्म होगा जहां सहज भाव से स्त्री-पुरु ष अपने बीच के फासले मिटाएंगे, और तब इसके गहरे परिणाम होंगे. समाज की अश्लीलता, गंदा साहित्य, गंदी फिल्में, बेहूदी वृत्तियां अपने आप गिर जाएंगी. शायद तब एक स्वस्थ मनुष्य का जन्म हो सकेगा.
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