आप अस्ताचलगामी पार्टी

Last Updated 08 May 2017 05:38:06 AM IST

अब समय आ गया है जब आम आदमी पार्टी के भविष्य का आकलन काफी निश्चयात्मक भाव से किया जा सकता है.


आप अस्ताचलगामी पार्टी
जिस तरह से कपिल मिश्रा को रातों-रात मंत्री पद से हटाया गया और उसके बाद उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर सत्येन्द्र जैन से रुपये लेने के आरोप लगाए हैं, वह  पार्टी के अंदर जारी चरम संघर्ष का द्योतक है. एक व्यक्ति जो स्वयं दूसरों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर सत्ता तक पहुंचा आज स्वयं आरोपों के कठघरे में खड़ा है. कई लोगों की यह सोच थी कि कुमार विश्वास प्रकरण में अरविंद केजरीवाल और उनके दाहिने हाथ उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने लचीलापन और विनम्रता दिखाकर पार्टी को बचाने की बुद्धिमतापूर्वक कोशिश की है. हालांकि, उसके बाद के कदम ऐसा नहीं बताते कि अंदर से भी अरविंद और मनीष इस मामले में उतने ही लचीले और उदार थे. 
 
कपिल मिश्रा उन्हीं के करीबी तो माने जाते हैं. या सोमनाथ भारती ने केजरीवाल से संयोजक पद छोड़ने को कहा तो यह कुमार विश्वास की ही वाणी थी. किंतु इसमें या ऐसे और मामले तो आप की लाइलाज व्याधि के उभरते हुए लक्षण मात्र हैं. मूल संकट दूसरा है. जिसने भी अप्रैल 2011 में जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के नेतृत्व में तीन दिवसीय अनशन से लेकर आम आदमी पार्टी के जन्म और उसके विकास पर गहराई से नजर रखी है वह इसके मूल संकट को आसानी से पहचान सकता है. किसी भी पार्टी की जीवन लीला उसके नेतृत्व,  विचारधारा, आम कार्यकर्ताओं और नेताओं का इनके प्रति समर्पण के आयाम और एक निश्चित या विस्तारित सामाजिक समीकरण के जनाधार पर निर्भर करता है. और अगर पार्टी  सत्ता में है तो फिर उसके काम एवं मंत्रियों के आचरण पर. 
 
इन सभी कसौटियों पर आप को कसिए और निष्कर्ष निकालिए. लंबे समय से देश के लिए सोचने-समझने वाला और सक्रियतावादियों का एक बड़ा वर्ग यह मानता रहा है कि देश को  एक बेहतर राजनीतिक विकल्प चाहिए. खासकर यूपीए के शासनकाल में जिस तरह के रिकॉर्ड भ्रष्टाचार सामने आए और उसके सामने सरकार लाचार दिखती रही उसके विरुद्ध व्यापक  असंतोष पैदा हुआ. उसमें स्वामी रामदेव और अन्ना हजारे दोनों ने लोगों को आकर्षित किया और भारी भीड़ इनके कार्यक्रमों में जुटती थी. लोगों को लगता था कि ये भले सीधे राजनीति में न आएं लेकिन इनके आंदोलन से राजनीतिक शक्तियों पर दबाव बढ़ेगा, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण होगा, भ्रष्टाचारी सजा पाएंगे और कुल मिलाकर राजनीतिक प्रतिष्ठान में  अनुकूल बदलाव हो सकता है. 
 
अरविंद केजरीवाल और मनीष पहले रामदेव के ही साथ थे और अन्ना भी. कम से कम अब यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि केजरीवाल का लक्ष्य कुछ और था इसलिए उन्होंने  अपने साथियों के साथ अन्ना को रामदेव से अलग करके अभियान आरंभ किया. देश में यह भी गलतफहमी पैदा हुई कि इनका अभियान समग्र भ्रष्टाचार के विरुद्ध था. इन्होंने लोकपाल का मसौदा तैयार किया था जिसे नाम दिया था, जनलोकपाल.
 
इनका पूरा अभियान जनलोकपाल के गठन कराने के लिए था. इनका मानना था कि जनलोकपाल का गठन होने के साथ सत्ता से भ्रष्टाचार का अंत हो जाएगा. किंतु जन लोकपाल की संरचना ऐसी थी, जिसे किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वीकृति नहीं मिल सकती थी. यह एक सुपर सरकार की संरचना थी. अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों के लिए यही बहाना बना राजनीति में आने का. जब असंतोष चरम पर होता है तो ज्यादातर लोग आपकी मंशा को लेकर ज्यादा नहीं सोचते और आपका समर्थन कर देते हैं. मीडिया का अनपेक्षित और एकपक्षीय समर्थन देकर इनको ऐसा लगने लगा कि ये राजनीति में सबसे बड़े राष्ट्रीय विकल्प बन सकते हैं. देश में भी राजनीतिक विकल्प की चाहत रखने वाले इनकी ओर इसी सोच से आकर्षित हुए. 
 
 
 
इसलिए आप के भविष्य का आकलन यदि करना है तो उसके आविर्भाव के समय के वातावरण और सोच के आधार पर भी करना होगा. यानी एक पार्टी, जो राजनीति में एक श्रेष्ठ  विकल्प देने के सपने से खड़ी हुई, जिसने-तंत्र में लोक की पुनप्र्रतिष्ठा का भरोसा दिलाया, जिसने नैतिक, सदाचारी और संयमित, अल्पव्ययी राजनीति का वायदा किया-वह आज कहां  खड़ी है? हालांकि, जिनको आंदोलनों और राजनीति की समझ थी, उनको इनकी गतिविधियों से यह अहसास होने लगा था कि ये ‘थोथा चना बाजे घना’ से ज्यादा कुछ नहीं हैं. यह भी  लगने लगा था कि इनकी कथनी और करनी में तो अंतर है ही, इनकी सोच और योजनाएं भी व्यवहार में उतरने वाली नहीं हैं. 
 
2014 के लोक सभा चुनाव में लोगों ने अहसास करा दिया कि आपके बारे में देश का जनमत क्या सोचता है. यह भी मानने में हर्ज नहीं है कि भाजपा में नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में उभार और उनके भाषणों एवं वायदों ने लोगों को ज्यादा आकर्षित किया. केजरीवाल की जगह लोगों ने उन पर विश्वास व्यक्त किया. तो यह एक ऐसा धक्का था, जिससे  सीख लेकर अगर वाकई इन्हें लंबी ईमानदार और आदर्श की राजनीति करनी होती तो फिर उसके लिए प्रयत्न करते. अपनी विचारधारा सामने रखते, लोगों के बीच सतत जाते, कार्यकर्ता बनाते, उनका प्रशिक्षण किया जाता और भविष्य की लड़ाई का देशव्यापी आधार बनाने की हर संभव कोशिश होती. ऐसा कुछ इन्होंने किया नहीं. मीडिया से मिली प्रसिद्धि को लेकर इन्होंने दिल्ली में अपने को केंद्रित किया यह सोचकर कि यहां एक आधार बन जाए तो फिर आगे का रास्ता तय किया जा सकता है. 
 
केजरीवाल को यह गलतफहमी हो गई कि उनके नाम में ही एक चमत्कार है और वे अपराजेय हैं.  जाहिर है, ऐसे नेता और उसके नेतृत्व में चलने वाली पार्टी का कोई बेहतर भविष्य हो ही नहीं सकता. होना भी नहीं चाहिए. इसलिए यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि आप अब एक अस्ताचलगामी पार्टी है. यह जीवित रहेगी लेकिन किसी प्रभावी भूमिका में नहीं. 

 

 

अवधेश कुमार


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