चारा कांड : फैसले के सियासी मायने
वर्ष 1996 में जिस चारा घोटाले की चर्चा सार्वजनिक हुई थी, वह कई मुकाम तय करते हुए कोई इक्कीस साल बाद आज एक नये मुकाम पर नमूदार हुई, जब सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने लालू प्रसाद यादव और अन्य की मुश्किलें काफी बढ़ा दीं.
![]() चारा कांड : फैसले के सियासी मायने |
2013 के आखिर में सीबीआई द्वारा लालू प्रसाद के विरुद्ध चल रहे कुल छह में से एक में पांच साल की सजा सुनाई थी और लालू प्रसाद को रांची स्थित जेल में महीनों रहना पड़ा था. बाद में उन्हें जमानत मिल गई.
नवम्बर 2014 में झारखंड हाईकोर्ट ने उन्हें थोड़ी राहत दी. उन्हें क्रिमिनल ब्रीच ऑफ ट्रस्ट और प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट से मुक्त कर दिया. सबसे बड़ी राहत यह दी कि सभी मामले चूंकि एक ही घोटाले से जुड़े हैं, इसलिए एक ही वाद में नत्थी होंगे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सब पर पानी फेर दिया. जस्टिस अरुण मिश्रा की पीठ ने इस मामले में सीबीआई को जबरदस्त फटकार लगाते हुए कहा कि उसने बहुत देर से इस मामले को यहां लाया. सीबीआई निदेशक को देरी करने वालों पर जिम्मेदारी तय कर रिपोर्ट करने की सख्त हिदायत भी दी. जस्टिस मिश्रा की पीठ ने झारखंड हाईकोर्ट के उस फैसले को भी निरस्त कर दिया, जिसमें लालू प्रसाद को आपराधिक षड्य़ंत्र रचने के आरोप से मुक्त कर दिया गया था. इसके साथ ही छहों मामले एक में नत्थी न होकर सब में अलग-अलग चलेंगे.
चारा घोटाले में कोई लालू प्रसाद अकेले मुजरिम नहीं हैं. पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र सहित कुल छप्पन लोगों पर मुकदमा चल रहा है. इनमें से कोई आधा दर्जन लोगों की मृत्यु हो चुकी है. नई पीढ़ी को शायद यह पता भी न हो कि यह घोटाला आखिर है क्या? पिछली सदी के 1980 के उत्तरार्ध और 1990 के पूर्वाद्ध के दशक में यह सब हुआ था. तब बिहार और झारखंड अलग-अलग नहीं थे. पशुपालन विभाग में पशुओं के चारे के नाम पर अलग-अलग जिला ट्रेजरी से भारी मात्रा में धन की निकासी हुई. यह भी नहीं देखा गया कि इस मद में इतना धन स्वीकृत है या नहीं. दरअसल, यह सरकारी खजाने में सेंधमारी थी. अनुमानित राशि लगभग 950 करोड़ रुपये, जो उन दिनों काफी बड़ी रकम थी. 1996 में जब सारा खुलासा हुआ तो राजनीतिक महकमे में सनसनी फैल गई. सियासी रूप से तब लालू प्रसाद महानायक थे. 1996 के ठीक पहले चारा घोटाले का पर्दाफाश हुआ और इसने चुनावी नतीजों को प्रभावित भी किया. लालू प्रसाद 1991 और 1995 की तरह शानदार प्रदर्शन नहीं कर पाए.
1991 की तरह यदि उनका प्रदर्शन 1996 में भी हुआ होता, तब उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनना संभव हो सकता था. 1998 और 1999 के लोक सभा चुनाव में भी उनका प्रदर्शन खराब रहा. अपराजेय समझे जाने वाले लालू का हारना, तब एक आश्चर्य की बात थी. लेकिन यह सब हुआ. 2000 के विधान सभा चुनाव में उन्हें बहुमत नहीं मिला, लेकिन कांग्रेस के सहयोग से वह सरकार बनाने में सफल हो गए. हां, 2004 के लोक सभा चुनवा में वह एक बार फिर थोड़े शीर्ष पर दिखे. केंद्र से भाजपा को हटाने में उनकी भूमिका को मीडिया ने भी रेखांकित किया. लेकिन 2005 विधान सभा चुनाव में नीतीश की राजनीति के सामने बौने साबित हुए. 2009 के लोक सभा चुनाव और 2010 के विधान सभा चुनाव में उनका ग्राफ गिरता गया.
2014 में भी वह बुरी तरह पिट गए. यह वही समय था, जब भाजपा से अलग होकर नीतीश कुमार भी कमजोर हो गए थे. 2015 विधान सभा चुनाव में पिछले सत्रह साल से एक दूसरे के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे लालू और नीतीश राजनीतिक रूप से इकट्ठे हुए और करिश्मा कर दिखाया. लालू कानूनी तौर पर चुनाव नहीं लड़ सकते थे. उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत कार्यकर्ताओं के बदले अपने पुत्रों को सौंपी. 2015 के विधान सभा चुनाव में नीतीश के मुकाबले उनके विधायक अधिक थे, लेकिन उन्होंने नीतीश को ही मुख्यमंत्री बनाया. उनके दो बेटों में से छोटा, तेजस्वी, उप मुख्यमंत्री बना. बड़ा बेटा तेजप्रताप भी कैबिनेट मंत्री बना. इस तरह बिहार की राजनीति एक नये दौर में प्रवेश कर गई. इस नये दौर की सबसे बड़ी मुश्किल नरेन्द्र मोदी की राजनीति है. वह भाजपा नेता हैं, लेकिन पिछड़े वर्ग से आते हैं, और स्वयं को चतुराई के साथ पिछड़ावर्गीय घोषित भी करते हैं. अभी हाल में उत्तर प्रदेश के चुनाव में मोदी ने मुलायम और मायावती की राजनीति को ध्वस्त किया है. दिल्ली में केजरीवाल भी पस्त पड़ चुके हैं.
ऐसे में बिहार की राजनीति पर लालू से जुड़े इस फैसले का क्या असर होगा, यह सवाल लोगों के मन-मिजाज को मथ रहा है. अदालती फैसलों की कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती, लेकिन जो तथ्य हैं, और जिनके आधार पर सीबीआई अदालत ने उन्हें सजा सुनाई, वे अपनी जगह बने हुए हैं. यदि लालू प्रसाद जेल जाते हैं, तो उम्मीद की जाती है कि उनके कनिष्ठ पुत्र तेजस्वी यादव राष्ट्रीय जनता दल की कमान संभालेंगे. लेकिन सवाल उठता है कि क्या वह यादव समाज के वोटरों को भाजपा की ओर जाने से उसी प्रभाव के साथ रोके रख सकेंगे जैसे लालू रोकते थे? उत्तर संदेहास्पद होगा. भाजपा ने बिहार की पार्टी कमान एक युवा यादव सांसद नित्यानंद राय को सौंपी है.
पिछले लोक सभा चुनाव में पटना संसदीय सीट पर भाजपा की ओर से रामकृपाल यादव ने लालू की पुत्री मीसा भारती को हरा दिया था. रामकृपाल को एक अनुमान के अनुसार कोई तीस प्रतिशत यादव मत हासिल हुए थे. यदि यह प्रदेश स्तर पर हुआ तो नतीजा वही होगा जो पिछले लोक सभा चुनाव में पटना क्षेत्र में हुआ था. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने बिहार की राजनीति में तूफान ला दिया है. इसकी तुलना कुछ-कुछ 12 जून 1975 के उस फैसले से की जा सकती है, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को दोषी करार दिया था. इस बार हाईकोर्ट की जगह सुप्रीम कोर्ट है. सीबीआई और झारखंड हाईकोर्ट द्वारा दी गई हिदायतें जनता के मनोविज्ञान को यकीनन प्रभावित करेंगी. भाजपा विरोधी सियासी एकजुटता पर इसका कैसा प्रभाव होगा, इसका आकलन करना थोड़ा मुश्किल भरा कार्य हो गया है.
| Tweet![]() |