1857 : आजादी से क्रांति का रिश्ता
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में 10 मई का दिन ऐतिहासिक ही नहीं, गौरवशाली भी है.
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कारण आज से 160 साल पहले सन् 1857 में इसी दिन देश में ब्रिटिश साम्राज्यवाद, जिसके राज्य में सूर्यास्त ही नहीं होता था, के खिलाफ प्रथम राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध की शुरुआत हुई थी. साथ ही 25 मई इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इस दिन समूचे देश में क्रांति का स्वरूप ही बदल गया. इस दिन समूचे देश में एक साथ 20 से अधिक जगहों पर किसान-मजदूरों के सहयोग से देशज तबकों, कंपनी शासन के सिपाहियों और राजे-रजवाड़ों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजाया.
सच यह है कि 90 साल बाद मिली आजादी के परिप्रेक्ष्य में 10 मई और 25 मई 1857 का एक विशेष महत्व ही नहीं, एक अलग इतिहास भी है. विडम्बना है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के साथ यह भयंकर त्रासदी रही कि जहां अंग्रेजों ने इसे सिपाही विद्रोह ठहराया, वहीं जवाहरलाल नेहरू ने इसे ‘गदर’ की संज्ञा दी जबकि असलियत में यह न सिपाही विद्रोह था और न गदर, यह जनक्रांति थी जो किसान-असंतोष और अभिजात्य वर्ग के अधिकारों का अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे दमन से उपजी थी. इन्हीं हालातों ने देशवासियों, जिनमें सभी वगरे, धर्मो और विभिन्न संप्रदायों के लोग शामिल थे, को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक होकर संघर्ष के लिए प्रेरित किया.
असल में भारतीय स्वतंत्रता स्ांग्राम की ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ शुरुआत के पीछे कुछ महत्त्वपूर्ण कारण हैं, जिनपर विचार करना जरूरी है. इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसने सबसे पहले देशज तबकों को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ एकता के सूत्र में बांधने का काम किया. निष्कर्ष यह कि सबसे पहले देश में 1857 की क्रांति के समय बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय एकता कायम करने में कामयाबी मिली थी. इस समय लोग धर्म, जाति,, संप्रदाय और वर्गभेद को भुलाकर अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ एकजुट होकर खड़े थे. यह हमारे देश के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी. गौरतलब है कि यह काल वास्तव में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के उद्भव और विकास का काल था. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यदि गौर करें तो इस काल में अधिकाधिक उपनिवेशों को जीतकर साम्राज्य के विस्तार की ललक यूरोपीय देशों की विदेश नीति का एक प्रमुख अंग बन गई थी.
नतीजन यूरोपीय देशों की इस खूनी साम्राज्यवादी विस्तार नीति का कुछ लैटिन अमरीकी, एशियाई और अफ्रीकी देशों ने उन्नीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में मुक्ति आंदोलन के जरिये खिलाफत की. असलियत में ये आंदोलन औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ राष्ट्रीय संप्रभुता के संघर्ष के लिए समर्पित थे, जो 19वीं सदी के अंत तक इस स्थिति तक पहुंच गए थे कि इनको ‘राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन’ कहा जा सके. असल में बहुत कम वेतन, मनमानी छंटनी से कंपनी के सिपाही फिरंगी शासन से उतने ही नाराज थे, जितनी कि शासन की दमनात्मक कार्रवाई से आम जनता दुखी थी. इस नाराजगी के चलते ही आम जनता का असंतोष चरम पर जा पहुंचा था. ऐसी हालत में रजवाड़ों की विलयन की नीति ने आग में घी डालने का काम किया. ब्रिटिश राज में अवध को मिलाने के इस कारनामे से रजवाड़ों में जो पहले से दुखी थे, बेचैनी फैल गई. इससे भारी संख्या में किसानों को बेदखली का शिकार होना पड़ा.
इस स्थिति में भूतपूर्व राजाओं ने अपने दरबारों को भंग कर दिया. नतीजन हजारों दरबारी-कर्मचारी-सेवक और कारीगर अपनी आजीविका से हाथ धो बैठे. बरतानिया हुकूमत द्वारा लगान बढ़ा दिए जाने से किसानों की हालत बेहद खराब हो गई. प्राकृतिक प्रकोप, फसलें खराब होने की स्थिति में किसानों को हुकूमत न कोई मुआवजा और न ही कोई छूट देती थी. रियासतों, रजवाड़ों की विलयन की नीति ने राजाओं की हैसियत, सम्मान को ठेस पहुंचाई, वहीं आम जनता को गरीबी, भुखमरी और फटेहाली के स्तर से भी नीचे धकेलकर बर्बाद करने की कोशिशें की गई. नतीजन उनमें पहले से मौजूद अंर्तविरोध और मुखर हो उठे. आज जरूरत है हम उन महान देशभक्तों, क्रांतिकारियों के त्याग, तपस्या और बलिदान को स्मरण करें, जिन्होंने आजादी की खातिर हंसते-हंसते प्राणोत्सर्ग किया और आजाद भारत का सपना लिये शहीद हो गए. आज हम सभी तमाम जातीय, धार्मिक, वर्गीय व सांप्रदायिक भेदभावों से परे उठकर, देश की आजादी की रक्षा का संकल्प लें. 1857 की क्रांति का यही मूल संदेश भी है. असलियत में इस दिन के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी.
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