फ्रांस चुनाव : वैश्विकरण को संजीवनी

Last Updated 10 May 2017 05:41:53 AM IST

फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव को उस देश में ही नहीं बल्कि यूरोप और पूरी दुनिया में उत्सुकता से देखा जा रहा था.


फ्रांस चुनाव : वैश्विकरण को संजीवनी

सबसे अधिक ध्यान इस ओर था कि क्या दुनिया में राष्ट्रवादी रुझान, संरक्षणवादी अर्थ व्यवस्था और लोकलुभावन नीतियों का दौर यूरोप के प्रमुख देश फ्रांस को भी अपनी चपेट में ले लेगा. अमेरिका में अप्रत्याशित रूप से डोनाल्ड ट्रंप का राष्ट्रपति बनना भूमंडलीकरण और नव उदारवादी व्यवस्था के लिए बड़े खतरे के रूप में देखा गया. ट्रंप की जीत के पहले ब्रिटेन के लोगों ने जनमत संग्रह में देश को यूरोपीय संघ से अलग करने का फैसला किया था. 
दुनिया को एक बाजार मानने और किसी भी देश में हस्तक्षेप करने में विश्वास करने वाली ताकतें इस राष्ट्रवादी और लोकलुभावन आर्थिक नीतियों के ढर्रे को पलटना चाहती थीं. नवउदारवादी वि व्यवस्था में निहित स्वार्थ रखने वाला ‘सत्ता प्रतिष्ठान’ (एस्टेब्लिशमेंट) अमेरिका और ब्रिटेन में मिले झटकों के बाद कम-से-कम यूरोप में अपनी किलेबंदी जारी रखना चाहता था. उसकी यह उम्मीद फ्रांस में कुछ सीमा तक पूरी हुई जब स्वयं को मध्यमार्गी घोषित करने वाले एमैनुएल मैक्रो ने धुर दक्षिणपंथी प्रतिद्वंद्वी मरीन ली पेन को भारी अंतर से हरा दिया. फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव के निर्णायक दूसरे दौर में मैक्रो को 66 प्रतिशत  और ली पेन को 34 प्रतिशत वोट मिले. जीत का यह अंतर मैक्रो की आशा से भी अधिक था.

अनुमान लगाया जा रहा था कि मैक्रो की बढ़त 20 प्रतिशत तक रहेगी. राजनीतिक विचारधाराओं की गहरी पैठ वाले फ्रांस में  मैक्रो जैसे प्राय: गैरराजनीतिक व्यक्ति का राष्ट्रपति निर्वाचित होना किसी अजूबे से कम नहीं है. 39 वर्ष के मैक्रो पेशे से बैंकर हैं. राजनीति में उनका अनुभव कुछ ही वर्षो का है. वह निवर्तमान राष्ट्रपति फ्रांसुआ ओलांद के आर्थिक सलाहकार और बाद में अर्थमंत्री बने थे. लेकिन कुछ ही समय बाद पद छोड़ दिया  था. पिछले वर्ष उन्होंने अपने नये मंच  एन  मार्चे (आगे बढ़ो) का गठन किया था और इसी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था. उनकी प्रतिद्वंद्वी ली पेन चरम राष्ट्रवादी पार्टी नेशनल फ्रंट की उम्मीदवार थीं. इस पार्टी को  देश में कोई बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं माना जाता था.  फ्रांस में चुनाव में मुख्यत: अनुदारवादी रिपब्लिकन पार्टी और समाजवादी रुझान वाले सोशलिस्ट पार्टी के बीच ही मुकाबला होता रहा है. राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी इन्हीं के होते हैं. सात मई को दूसरे दौर के निर्णायक मतदान में  मैक्रो और लेपेन आमने-सामने रह गए. चुनाव नतीजों से यह स्पष्ट हुआ कि सीधे मुकाबले में  मैक्रो को पहले दौर से 42 प्रतिशत वोट अधिक मिले, जबकि ली पेन को पहले दौर से केवल 13 प्रतिशत वोट अधिक मिले. यह मतदान व्यवहार गठबंधन की राजनीति और वोट ट्रांसफर करने का अनोखा उदाहरण है. भारत में जहां विपक्षी दल वर्ष 2019 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने की कवायद में लगे हैं, उनके लिए फ्रांस का चुनाव बड़ी सीख बन सकता है.  मैक्रो की भारी अंतर से जीत का एक कारण मुख्य धारा के दोनों दलों और पूर्व राष्ट्रपतियों द्वारा उनका समर्थन करना भी था.
यथास्थिति का विरोध करने वाले दल भी ली पेन जैसी चरम राष्टवादी नेता का समर्थन नहीं करना चाहते थे. विरोधियों ने उनकी छवि भावी मुसोलिनी और हिटलर के रूप में प्रचारित की थी. ट्रंप की तर्ज पर ली पेन ने ‘फ्रांस सर्वोपरि’ का नारा दिया था. वह नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और अंध भूमंडलीकरण का विरोध कर रही थीं और देश को विदेशी प्रवासियों  की बाढ़ से बचाने का ऐलान कर रही थीं. इस्लामी आतंकवाद से जूझ रहे फ्रांस में वह कड़े सुरक्षा उपायों का वायदा कर रही थीं. ब्रिटेन के यूरोपीय संघ छोड़ने के फैसले की तरह ही वह फ्रांस को अपने राष्ट्रीय  हितों के अनुरूप रास्ता चुनने की सलाह दे रही थीं. मैक्रो इन मुद्दों पर एकदम उलट राय  रखते थे. उन्होंने ली पेन को ‘भयाक्रांत करने वाला सौदागर’ बताया. इस चुनाव में फ्रांस के बौद्धिक तबके और प्राय: पूरी मीडिया ने मैक्रो का ही साथ दिया. चुनाव नतीजे इन सभी तबकों के लिए संतोष का विषय रहे कि यूरोपीय संघ को संभावित विभाजन या विघटन से बचा लिया गया. ब्रिटेन और अमेरिका में संकट का सामना कर रही वैश्विक व्यवस्था को कम-से-कम यूरोप में  सजीव रखा गया.
जर्मनी के साथ ही अब फ्रांस पिछले कई दशकों से कायम वि व्यवस्था को ताकत दे सकेगा. लेकिन मैक्रों के लिए आगे की राह आसान नहीं है. देश में अगले महीने ही राष्ट्रीय संसद के चुनाव होने वाले हैं. 577 सदस्यीय संसद मैक्रो का मंच बहुमत हासिल कर पाएगा इसमें संदेह है. ली पेन भले ही चुनाव हार गई हैं लेकिन उनका दल नेशनल फ्रंट  एक प्रमुख पार्टी के रूप में उभरा है. संसदीय चुनाव में यदि उनका दल अच्छी सफलता हासिल करता है तो वह राष्ट्रीय नीतियों को प्रभावित करने की स्थिति में होगा. यदि संसदीय चुनाव के बाद देश में कोई ऐसा प्रधानमंत्री बना, जिसका तालमेल राष्ट्रपति मैक्रो से नहीं बन पाया तो देश के सामने मौजूद समस्यायों का समाधान करने का काम और मुश्किल हो जाएगा. जहां तक ली पेन का संबंध है; वह अपनी हार में भी जीत देख रही हैं. अगले महीने के संसदीय चुनाव में तो वह पूरी ताकत से उतरेंगीं ही वर्ष 2021 के राष्ट्रपति चुनाव में भी एक प्रमुख दावेदार बनेंगी. इस बीच मैक्रो पर यह जिम्मेदारी रहेगी कि वह देश में बेरोजगारी, आर्थिक मंदी, इस्लामिक आतंकवाद के खतरे का सामना कारगर तरीके से करें. देश में बेरोजगारी की दर 10 प्रतिशत है. युवाओं में बेरोजगारी की दर 20 प्रतिशत है.
पिछले दो साल में इस्लामिक आतंकवाद के कारण 230 नागरिक मारे गए हैं. सीरिया के गृह युद्ध में फ्रांस ने असद विरोधी विद्रोहियों को मदद दी है. सत्ता परिवर्तन की इस विदेश नीति के कारण फ्रांस और रूस के संबंध तनावपूर्ण बने हुए हैं. फ्रांस से बड़ी संख्या में मुस्लिम नागरिक सीरिया के जेहाद में भाग लेने गए हैं. वैसे भी फ्रांस में मुस्लिम जनसंख्या करीब दस प्रतिशत है, जो पश्चिम यूरोप के किसी देश में सर्वाधिक है. इन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में कैसे लाया जाए यह मैक्रों के लिए चुनौती है. यदि वह इसमें सफल नहीं हुए तो देश का मतदाता चरम राष्ट्रवादी ली पेन की ओर झुक सकता है.

 

सुफल कुमार
लेखक


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