मीडिया : खबर की मौत

Last Updated 30 Apr 2017 02:56:37 AM IST

इन दिनों मीडिया में कुछ नए अंग्रेजी शब्द जम के दुहराए जाते हैं जैसे वाइरल, हॉर्सटेग, टेंडिंग न्यूज, टोलिंग, नेरेटिव आदि. इन शब्दों की परिभाषाएं अगर शब्दकोशों में देखने चलें तो उनसे काम नहीं चलता.


मीडिया : खबर की मौत

इस लेखक ने सोशल मीडिया के कई होलटाइमरों से बात करके इन शब्दों के अर्थ समझने की कोशिश की. वे उनके तकनीकी अर्थ तो समझाते रहे, लेकिन जब-जब पूछा कि क्या ओपिनियन खबर होती है? क्या ओपेनियन तथ्य होती है, तो वे साफ जवाब न दे सके. तो जो अर्थ हमें फील हुए उन्हीं के हिसाब से हमने इन शब्दों के कुछ अर्थ अपनी भाषा में लिखे हैं. इतने शब्द हैं, इतनी बाइटें हैं, इतने वीडियोज हैं, इतनी ओपिनियनें हैं, इतनी ‘खबरें’ हैं कि संभाले नहीं संभलतीं. कौन इनमें से किस चीज को वाइरल की तरह फैला देता है? इसका पता कोई नहीं लगा सकता. इस तरह हम एक ‘लापता खबर’ के समय में रहते हैं. अब तक जिसे ‘मीडिया-जनित शोर’ कहा जाता था, या ‘डंबिंग डाउन करने की कला’ कहा जाता था; ये बातें पुरानी हुई. अब खबरें दो प्रकार से ‘बनती’ हैं.

हमारे अनुमान से ऐसा कोई दिन नहीं होता जब सोशल मीडिया की हैशटेगिया या टेंडिंग खबरें ट्विटर से उतारी वचनावलियां मुख्य मीडिया की बड़ी खबरें नहीं बनतीं. किसी ‘जानी-मानी’ सोशलाइट या विचारक या नेता या सेलीब्रिटी या किसी सेट ने कुछ अक्षरों में कोई महान उक्ति कही है, तो वह देखते ही देखते ‘जनमत’ बन जाती है, और वही ‘सत्य’ और ‘तथ्य’ बन उठती है. ओपिनियन का विचार बनना, विचार का सच बनना, सच का तथ्य की तरह लिया जाना, अब चैनलों का रोजमर्रा का चलन है. ऐसा माल चैनलों की पच्चीस से तीस फीसद तक जगह तक घेर लेता है, जबकि न यहां ‘स्रोत’ की कोई गारंटी होती है, न उसकी ‘शिनाख्त’ की जाती है. इस प्रक्रिया में खबर बनाने वालों की एक श्रेणी-सी बन जाती है, जिसमें ओपिनियन देने वाले सोशलाइट, सेलीब्रिटी, खिलाड़ी, नेता आदि बड़े लोग ही खबर होते हैं. अब वे ही विचारक हैं, और चिंतक हैं, और वे ही मूवर और शेकर हैं, वे ही ताकतवर आदमी/औरत हैं. खबर बनाने वालों की यह एक नई हाइरार्की है, जो सोशल मीडिया में तो छाई ही रहती है, आजकल टीवी और अखबारों तक में छाई रहती है. टीवी के पास दूसरी खबरें फील्ड से आती हैं जैसे कश्मीर या छत्तीसगढ़ से या ऐसे ही उपद्रवग्रस्त इलाकों या गोरक्षकों के एक्शन से. वजन के हिसाब सोशल मीडिया के माल की मात्रा बहुत नहीं होती, लेकिन राजनीतिक उत्तेजना बनाने की क्षमता के कारण ये बड़ी खबरें बनकर आती हैं. लेकिन इनमें भी किसी का ‘सलेक्शन’ काम करता है यानी उनका ‘चयन’ किया जाता है. हम यह भी देखें कि चाहे सोशल मीडिया हो या रेग्युलर मीडिया चयनकर्ता के पास चुनने के लिए जो भी है, वह सीमित ही है क्योंकि खबर बनाने वाले, उनको हंगामे बदलने वाले ‘बहुत विविध’ नहीं हैं. कुछ गिने-चुने ‘गैंग मानसिकतावादी’ तत्व ही हैं, जो कहीं न कहीं से रेग्युलर मीडिया तक फीड पहुंचाया करते हैं, और उस पर नजर भी रखते हैं कि चैनल ने उनका दाना चुगा कि नहीं.
आजकल नैरेटिव एंकरों का प्रिय शब्द है. यही समकालीन राजनीति का भी प्रिय शब्द है. इसकी भरमार के फलस्वरूप मीडिया एक प्रकार के अविरल और निरंतर बहाव में रहता है, जिसमें हर पल हजार-लाख नई लहरें-दर-लहरें पैदा की जाती हैं, और फैलाई जाती रहती हैं. आप एक लहर को देखते हैं, उसे छूने की कोशिश करते हैं तो वह तुरंत हाथ से फिसल कर बाहर हो जाती है, और उसकी जगह दस नई आ जाती हैं. नैरेटिवों का यह बेटिकाऊपन, यह चंचलता ही दर्द होते हुए भी दर्द नहीं कहने देती. प्रतिरोध का भाव होते हुए भी उसे पूरी तरह व्यक्त नहीं होने देती. हर सवाल संदेहास्पद हो जाता है, और हर शंका अपराध बन जाती है क्योंकि वह इस ‘साइबरी खबरों’ के निरंतर बरसते स्वर्ग के आनंद में बाधक बनने लगती है. और जिसे विकल्प की मीडिया कहते हैं, या कहा जाता है, वह भी इसी को जगत मान कर चलता है. इसलिए इसकी छलना का शिकार होता रहता है. इसीलिए हमारा कहना है कि हम संदेशों की अतियों में हर संदेश को रिसता और खाली होता देखते रहते हैं.
हर साइबरी संदेश में तमाशा तो पूरा होता है, लेकिन संदेश नहीं होता जो हमें प्रतिक्रियायित करे,  हमें आकुल करे, कुछ सच कहने को विवश करे. और कहने से पहले हम जान जाते हैं कि कहेंगे भी तो सुनेगा कौन? कहने की जरूरत नहीं कि यह खबर की मृत्यु का क्षण है!

सुधीश पचौरी
लेखक


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