प्रसंगवश : उच्च शिक्षा की त्रासदी

Last Updated 30 Apr 2017 02:51:46 AM IST

लगता है अब देश में विश्वविद्यालयों की संरचनाएं थक-सी रही हैं.


प्रसंगवश : उच्च शिक्षा की त्रासदी

वे बदलती आवश्यकताओं के साथ संगति नहीं बिठा पा रही हैं. ऐसे में विश्व स्तर के शिक्षा संस्थान स्थापित करने और उत्कृष्टता और नवाचार लाने का जो सपना देखा जा रहा है, कैसे पूरा होगा? ‘डिजिटल भारत’, ‘मेक इन इंडिया’ और ‘कौशलपूर्ण भारत’ का सपना कैसे पुरेगा? सारे प्रयासों के बावजूद उच्च शिक्षा गुणात्मक रूप से अपेक्षित गति नहीं पकड़ पा रही है. उच्च शिक्षा  समवर्ती सूची का विषय होने के कारण राज्य तथा केंद्र, दोनों का साझा दायित्व बन जाती है. अधिकांश प्रदेशों की राज्य सरकारों की उच्च शिक्षा में कोई खास रु चि नहीं है, और वे इसका भार नहीं उठाना चाह रहीं. अनेक प्रदेशों में यूजीसी से स्वीकृत पदों को राज्य सरकार की सहमति नहीं मिल पाती और वे ‘लैप्स’ हो जाते हैं. सेवानिवृत्त होने वाले अध्यापकों के पद नहीं भरे जाते. उनकी जगह अंशकालिक अध्यापकों, शोध-छात्रों या अतिथि अध्यापकों से काम चलाया जाता है. चूंकि कोसरे में बदलाव कभी-कभार होता है, थोड़ी-बहुत देखभाल से भी काम चल निकलता है.

यह बात साफ हो चली है कि जनसंख्या में युवा वर्ग के बढ़ते अनुपात को देखते हुए अगले दस-बारह साल में उच्च शिक्षा पाने वाले युवाओं की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि होगी जिनके लिए हमारे पास आवश्यक शैक्षणिक व्यवस्था और संसाधनों की स्पष्ट और सार्थक योजना नहीं है. देश के सामने खड़े बड़े प्रश्नों में यह भी है कि हम अपने देश-काल की समस्याओं के प्रति कितने सतर्क और संवेदनशील हैं. उच्च शिक्षा की स्वीकृत और प्रचलित शिक्षण और मूल्यांकन की पद्धति सर्जनात्मकता और आलोचनात्मक दृष्टि के विरोध में खड़ी दिखती है. प्रवेश परीक्षा से लेकर अंतिम परीक्षा तक कामयाबी के लिए सोच-विचार कम और रटना अधिक उपयोगी सिद्ध होता है. पूरी की पूरी शिक्षा पुनरु त्पादन या दुहराव के पाए पर टिकी हुई है. परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों की संख्या सीमित होती है, और प्रतिरोध के चलते पाठ्यक्रम में कोई खास बदलाव नहीं लाया जाता है. थोड़े से प्रश्नों के उत्तर  कंठस्थ कर सहज ही अच्छे अंक पाए जा सकते हैं.
भारत में अध्यापन का गौरवशाली अतीत रहा है. उसे सर्वोच्च स्थान दिया गया है. माना जाता है कि वह प्रकाश द्वारा समाज का मार्ग आलोकित करेगा. अर्थात गुरु  या अध्यापक बनना सबके बस की बात नहीं है. पर अध्यापकी भी अब दूसरे व्यवसायों की ही तरह हो चली है. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नौकरी का प्रवेश द्वार है नेट या जेआरएफ, जिसमें बहु विकल्प वाले वस्तुनिष्ठ प्रश्न हल करने होते हैं. यदि कहीं पीएच. डी की डिग्री मिल जाए तो और भी अच्छा है. पर उच्च शिक्षा के काम को करने के लिए किसी तरह के प्रशिक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है. परिणाम यह होता है कि लोग स्वच्छंद रूप से आगे बढ़ते हैं, अपने सारे पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों समेत. ‘शिक्षा’ और ‘अधिगम में परिष्कृत’ होना ही प्रमुख होता है पर चालू व्यवस्था में इसकी संभावना धूमिल हो जाती है.
नौकरी के राजमार्ग पर गाड़ी चढ़ने भर की देर होती है. नौकरी में उन्नति के रीति-रिवाज अब अध्यापन-कौशल या गुणवत्ता को ज्यादा महत्त्व नहीं देते. शोध-प्रकाशन पर अतिरिक्त बल देने का खमियाजा यह है कि गली-गली से शोध की पत्रिकाएं छप रही हैं, जिनका कोई मूल्य नहीं है और एपीआई की रस्म अदायगी का खेल धड़ल्ले से चल रहा है. अध्यापकों की वित्तैषणा उफान ले रही हैं. इसके  फलस्वरूप उन्हें अपने काम के साथ तरह-तरह के समझौते करने पड़ते हैं. ऐसे में ज्ञान, शिक्षा और आदर्श के प्रति लगाव कम हो रहा है. कोचिंग तथा टय़ूशन आदि के संस्थानों से जुड़ कर परीक्षा के प्रश्न पत्र आउट करने जैसे गलत काम भी किए जा रहे हैं. यौन अपराध में संलिप्तता और परीक्षा में धांधली के चलते अध्यापकीय-कर्म पर धब्बा लग रहा है. शोध-प्रकाशनों में नकल की बढ़ती घटनाएं भी इस व्यवसाय की शुचिता को और भी दूषित कर रही हैं. कुल मिला कर अध्यापन को लेकर जो नैतिक भरोसा था, वह अब टूट-बिखर रहा है. स्थिति को नियंत्रित करने के प्रयास हो रहे हैं पर चतुर सुजान लोगों द्वारा उनकी काट भी खोज ली जाती है.
शिक्षा या कोई भी उपक्रम आंतरिक शक्ति और अपने संदर्भ की सतत उपेक्षा करते हुए अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता. प्रासंगिकता और दायित्वबोध को अपने दायरे में लाए बिना उच्च शिक्षा अपनी वह जगह नहीं बना सकेगी जिसकी उससे अपेक्षा की जाती है.

गिरीश्वर मिश्र
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment