परत-दर-परत : जरूरत है यहां दिमाग लगाने की

Last Updated 30 Apr 2017 02:47:23 AM IST

तमिलनाडु के कई सौ किसान दिल्ली आए, उन्होंने जंतर मंतर पर धरना दिया तथा असंतोष प्रगट करने के अनेक नये उपाय अपनाए. लेकिन केंद्र सरकार का कोई भी प्रतिनिधि उनके पास नहीं गया, जिससे वे अपनी व्यथा-कथा कह सकते.


परत-दर-परत : जरूरत है यहां दिमाग लगाने की

वे खाली हाथ आए थे, और खाली हाथ ही लौट गए. वे कह गए हैं कि उनकी मांगें पूरी नहीं हुई, तो वे फिर दिल्ली आएंगे. क्या तब तक दिल्ली की संवेदना का स्तर बदल चुका होगा? किसानों के प्रति उसके दृष्टिकोण में क्या कोई परिवर्तन आ चुका होगा? मेरे आशावाद की सीमाएं हैं.
अगर यही किसान प्रधानमंत्री से मिलने उनके आवास पर जाना चाहते, संसद भवन के सामने प्रदर्शन करना चाहते, या दिल्ली शहर में जगह-जगह घूम कर यहां की जनता को अपनी स्थिति से अवगत कराना चाहते, तो क्या होता? हर जगह उन्हें रोका जाता और वे नहीं रु कते, तो पहले उन पर लाठी चार्ज होता, फिर भी नहीं मानते तो उन पर गोली चलाई गई होती. उसके बाद इन किसानों के शवों पर आंसू बहाने के लिए लगभग सभी दलों के नेता घटना स्थल पर पहुंचते और आंखों को गीला कर देने वाले भाषणों की बौछार करते. यह भी एक संभावना है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रत्येक मृत किसान के परिवार वालों को एक-एक करोड़ की क्षतिपूर्ति की घोषणा कर देते (करुणा या उदारता दिखाने की यह शैली मुझे बहुत खराब लगती है, क्योंकि पैसा किसी की अपनी गांठ से तो जाता नहीं है; टैक्स भरने वालों के पैसे का यह मनमाना इस्तेमाल है).

उसके बाद क्या होता? कुछ भी नहीं. जो किसान जिंदा रह जाते, वे अपने ‘वतन’ लौट जाते और तीन-चार दिनों में ही स्थिति शांत हो जाती. दिल्ली को शांति पसंद है. शांति भंग न हो, इसलिए संसद और राष्ट्रपति निवास के लगभग तीन किलोमीटर के दायरे में हमेशा धारा 144 लगी रहती है. ऐसा लगता है कि केंद्रीय सत्ता को हमेशा खतरा महसूस होता रहता है. धारा 144 के दायरे के बाहर वह काम नहीं कर सकती. वैसे, यह धारा जंतर मंतर क्षेत्र में भी लागू है, इसीलिए वहां चौबीसों घंटे पुलिस का पहरा रहता है, और लोगों को गिरफ्तार करके ले जाने के लिए पास में ही जंतर मंतर थाना भी खोल दिया गया है. सरकार चाहती है कि जिस वर्ग या समूह को कोई तकलीफ हो, वह जंतर मंतर आए, तय स्थान पर अपनी बात कहे और चला जाए. कोई चाहे तो सालों यहां जमा रह सकता है. कोई उठाने नहीं आएगा कि हुजूर, बहुत हो चुका. अब आप यह स्थान दूसरों के लिए खाली कर दीजिए ताकि वे आएं तो उन्हें भी बैठने के लिए जगह मिल सके. जाहिर है, सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता. ऐसे में तमिलनाडु के किसानों की सहज बुद्धि की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने दिल्ली में कई दिनों तक धरना दिया पर मुठभेड़ किसी से नहीं की. मुठभेड़ अब एक खतरनाक शब्द है.
अगर यह स्थिति किसी को असाधारण नहीं लग रही है, तो इसीलिए कि सरकार ने किसानों की लाशों की गिनती करना छोड़ दिया है. प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी किसानों की आत्महत्या और दुर्दशा पर आंसू बहा कर रह जाते हैं, यह नहीं बताते कि खेती के इस संकट को दूर कैसे किया जाए. कभी-कभी किसानों को राहत पहुंचाने वाले कुछ कार्यक्रमों की चर्चा होती है. ये कार्यक्रम अक्सर टीबी के मरीज को खांसी का सीरप पिलाने जैसे होते हैं. सच यह है कि खेती की यह विफलता वास्तव में भारत के उद्योगीकरण की विफलता है. अगर भारत ने कृषि प्रधान देश ही बने रहने का निश्चय किया होता, तब ज्यादा मुश्किल नहीं थी. पर औद्योगीकीकृत भारत में इतनी बड़ी आबादी खेती पर निर्भर नहीं रह सकती. इसलिए खेती की समस्या का समाधान खेती में नहीं, बल्कि उद्योग में है. उद्योगों का जितना विस्तार होगा, उनमें मानव श्रम जितना ज्यादा लगेगा, खेती को उतनी ही राहत मिलेगी. औसतन, किसी भी देश की बीस-पचीस प्रतिशत से ज्यादा आबादी को खेती में नहीं लगे रहना चाहिए.
पर इस मानक को हम कभी छू तक नहीं पाएंगे क्योंकि देश में जिस तरह के उद्योगों में अधिकतम निवेश हो रहा है, वे रोजगार बढ़ाने वाले नहीं, बल्कि रोजगार घटाने वाले हैं. जैसे-जैसे उद्योग-धंधों में स्वचालन की प्रक्रिया तेज होगी, निवेश बढ़ेगा, मुनाफा भी बढ़ेगा, और बाजार फले-फूलेगा, सरकार की आमदनी बढ़ेगी, पर शिक्षित, अर्धशिक्षित और अशिक्षित बेरोजगारों की संख्या भी बढ़ती जाएगी. खेती में फाजिल हो गए लोगों को उद्योग नहीं खपा पाएंगे और उद्योगों के छंटनीग्रस्त लोगों को खेती नहीं खपा पाएगी. इस तरह हम एक ऐसी भूलभुलैया में फंस गए हैं, जिससे निकलने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता. हमें देश के पूरे आर्थिक विकास कार्यक्रम पर ही विचार करना होगा. बड़े उद्योगों की सीमा रेखा कहां तय की जाए? किन-किन उद्योगों को लघु और कुटीर उद्योगों में आरक्षित किया जाए? खेती के अलावा अन्य स्रोतों से भी किसानों को आय हो सके, इसके लिए क्या किया जा सकता है? कृषि उपज का उचित मूल्य कैसे दिया जा सकता है? लेकिन इनके लिए कुछ दिमाग लगाने की भी जरूरत होगी. दुखद यह है कि दिमाग हैं जरूर पर वे और-और काम में लगे हुए हैं.

राजकिशोर
लेखक


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