वैश्विकी : नेपाल पर भारत की दुविधा

Last Updated 30 Apr 2017 02:41:37 AM IST

किसी को भी ऊपरी तौर पर ऐसा लग सकता है कि नेपाल के प्रधानमंत्री प्रचंड और मधेशी दलों के बीच संविधान संशोधन के मसले पर हुए समझौते से स्थानीय निकायों के चुनाव का रास्ता साफ हो गया है.


वैश्विकी : नेपाल पर भारत की दुविधा

ये अटकलें भी लगाई जा रही हैं कि भारत के बदले रवैये को भांप कर मधेशी दलों ने संघर्ष के बजाय लचीला रुख अपना कर समझौता करना बेहतर समझा. हालांकि मुख्य विपक्षी दल सीपीएन-यूएमएल के विरोध के कारण यह कहना अभी मुश्किल है कि संविधान संशोधन विधेयक को संसद से मंजूरी मिल ही जाएगी. इसके लिए दो-तिहाई बहुमत आवश्यक है और सीपीएन-यूएमएल के समर्थन के बगैर इसका पारित होना नामुमकिन है. सीपीएन-यूएमएल का मानना है कि सत्तारूढ़ दल द्वारा प्रस्तावित संविधान संशोधन विधेयक समाज को विघटित और राष्ट्रीयता को कमजोर करने वाला है. दरअसल, यह तर्क बहुत कमजोर है. इसके पीछे का सच तो यह है कि सीपीएन-यूएमएल के नेताओं को भय सता रहा है कि संविधान संशोधन विधेयक पारित हो गया तो इसका श्रेय सत्तारूढ़ दल को जाएगा. चुनावों में भी उसे लाभ मिलेगा और उनकी पार्टी हाशिए पर चली जाएगी.

पिछले बीस साल में पहली बार वहां स्थानीय निकायों के चुनाव होने जा रहे हैं. जाहिर है कि वहां की राजनीतिक व्यवस्था में इसका इस लिहाज से विशेष महत्व है कि शासन की निचली इकाई में आम जनता की भागीदारी से लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी. इसलिए प्रधानमंत्री प्रचंड के लिए स्थानीय निकायों का चुनाव कराना उनकी पार्टी और गठबंधन सरकार दोनों के लिए जीवन-मरण का सवाल बन गया है. उन्होंने चुनाव में मधेशी दलों की भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भी मदद का अनुरोध किया है. प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें हर संभव मदद का आश्वासन भी दिया है. हालांकि यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि उन्होंने किस तरह की मदद का आश्वासन दिया है और नेपाल को किस तरह की मदद की अपेक्षा है. अहम सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री प्रचंड यह अपेक्षा रखते हैं कि संविधान संशोधन विधेयक पारित न होने की स्थिति में प्रधानमंत्री मोदी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके मधेशियों को चुनाव प्रक्रिया बाधित न करने के लिए राजी कराएंगे.
इसमें दो राय नहीं कि मधेशियों के चुनाव बहिष्कार से नेपाल की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को धक्का लगेगा. यह स्थिति भारत-नेपाल द्विपक्षीय संबंधों में भी प्रतिकूल असर डाल सकती है. दरअसल, भारत चाहता है कि मधेशियों को वहां की राजनीतिक व्यवस्था में उचित प्रतिनिधित्व मिले. अलबत्ता, नई दिल्ली उनके संविधान संशोधन की मांग का समर्थन भी करता आ रहा है. लेकिन भारत  पुराने अनुभवों को देखते हुए कभी नहीं चाहेगा कि मधेशियों के चुनाव बहिष्कार के मुद्दे पर उनके साथ खड़ा दिखाई दे. यह सीधे-सीधे किसी संप्रभु देश के अंदरूनी मामलों में दखल देने जैसा ही होगा. 2015 में काठमांडू की मीडिया ने भारत पर मधेशियों को भड़काने मनगढ़ंत का आरोप लगाया था. इसके बाद से ही नेपाल के संदर्भ में भारतीय विदेश नीति में कुछ बदलाव के संकेत भी मिलने लगे थे. बावजूद इसके मधेशियों के मुद्दे पर नई दिल्ली की दुविधा बराबर बनी हुई है.

डॉ. दिलीप चौबे
लेखक


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