नजरिया : निज भाषा उन्नति अहै..
पिछले सप्ताह जब मैंने यह खबर पढ़ी कि भारत के आम लोग हिन्दी में भी पासपोर्ट के लिए आवेदन कर सकते हैं, और उन्हें प्राथमिकता दी जाएगी तो मुझे बहुत ही सुखद अनुभूति हुई.
नजरिया : निज भाषा उन्नति अहै.. |
कहने के लिए हिन्दी हमारी राजभाषा है, लेकिन एक बात जो मुझे आज तक समझ नहीं आई कि लगभग सभी सरकारी दफ्तरों में एक राजभाषा अधिकारी नियुक्त करने का क्या औचित्य है? जबकि होना इसके उल्टा चाहिए. हरेक दफ्तर में एक अंग्रेजी अधिकारी नियुक्त होना चाहिए जिससे किसी विशेष सामग्री का अनुवाद करने में उसकी सहायता ली जा सके. लेकिन इस पद के सृजन की गहरी पड़ताल करने पर पता लगता है कि जब अंग्रेजों का शासन था, तब हिन्दी मात्र कोरम पूरा करने की भाषा बनकर रह गई थी.
हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान का नारा बहुत पुराना है, इसका मूल मंतव्य यह था कि हिन्दी देश की भाषा है, या बने और हिन्दू का मतलब सात्विक जीवन पद्धति से था, और हिन्दुस्तान से सभी लोगों को समान अधिकार प्राप्त करने से, लेकिन आजादी के बाद भाषायी तुष्टीकरण की नीति को हमारे ही जनप्रतिनिधियों ने हवा दी. सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भौगोलिक रूप से तो भारत को एक सूत्र में बांध दिया लेकिन भाषायी एकता की आज भी दरकार है. व्यक्तिगत रूप से जब भी हिन्दी की महत्ता बढ़ती दिखती है, तो मुझे बेहद खुशी होती है. शायद भारतेन्दु हरिशचंद्र ने हिन्दी की इसी दुर्दशा को महसूस करते हुए कहा था : ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल. बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल..’
मैं या मेरे जैसे करोड़ों लोग जो ग्रामीण परिवेश से आते हैं, जब भी कोई प्रसंग उनके सामने अंग्रेजी में आता है, तो सबसे पहले उसे हिन्दी या अपनी मातृभाषा में समझने का प्रयास करते हैं क्योंकि हमारे सोचने की जो क्षमता है, वो हमारी अपनी मातृभाषा में ही होती है. प्रसिद्ध पत्रकार मार्क टुली ने अपने एक लेख में हिन्दी को लेकर भारत की विडम्बना का उल्लेख किया है, जिसमें वो लिखते हैं कि एक देश के लिए इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि उसकी जड़ों को गहराई से समझने वाले लोग उसकी अभिव्यक्ति को अंग्रेजी में नहीं रख पाते और जो लोग हिन्दुस्तान को नहीं समझते वो उसकी बात बाहर के मंचों पर अंग्रेजी में पूरी दुनिया में रखते हैं. शायद इसीलिए महात्मा गांधी ने किसी भी देश के विकास में उसकी मातृभाषा की भूमिका को बेहद अहम माना था. उन्होंने किसी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए पांच बिंदुओं को रेखांकित किया था.
पहला, सरकारी अधिकारी उसे आसानी से सीख सकें; दूसरा, समस्त भारत में धार्मिंक और राजनीतिक प्रयोग के लिए पूरी तरह सक्षम हों; तीसरा, अधिकांश भारतवासियों द्वारा बोली जाती हो; चौथा, सारे देश को इसे सीखने में आसानी हो; तथा पांचवां, राष्ट्र भाषा के चुनाव के समय किसी वर्ग विशेष के क्षणिक हितों पर ध्यान न दिया जाए. उपरोक्त सभी बिंदुओं पर वह हिन्दी को खरा मानते थे. गांधी और उनसे सहमत राजनेताओं के प्रयासों का ही प्रतिफल था कि संविधान सभा ने हिन्दी को 24 सितम्बर, 1949 को राजभाषा का दर्जा दिया और 26 जनवरी, 1950 को जब संविधान लागू हुआ तब से देवनागरी लिखित हिन्दी देश की राजभाषा बनी. किसी देश के राष्ट्रीय प्रतीकों मसलन राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान आदि की जो महत्ता होती है, उतनी ही महत्ता उसकी राजभाषा की भी होती है. किसी भी लोकतांत्रिक देश में भाषा जनता और उसके शासक के बीच में अवरोध के रूप में नहीं होनी चाहिए.
अंग्रेजी शासन के दौर में यह भाषायी खाई स्पष्ट थी. जहां शासन की भाषा अंग्रेजी थी, वहीं जनता की भाषा हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाएं थीं. लेकिन उच्च पदों पर बैठे व्यक्ति जब अंग्रेजी में बोलते हैं, तो समाज भी उनका अनुकरण करने लगता है. लेकिन वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हिन्दी में बोलते हैं, वो चाहे देश में हों या विदेश के किसी मंच पर. इसका हमारे जनमानस पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है. राष्ट्रभाषा को और प्रभावशाली बनाने के लिए जरूरी है कि हमारे जनप्रतिनिधि, जो देश की 125 करोड़ जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं, हिन्दी को अपनी बोलचाल और कामकाज में प्रमुखता दें. अगर उनके द्वारा यह प्रयास शुरू किया गया, जैसा कि प्रधानमंत्री ने किया है, तो निश्चित रूप से हिन्दी मजबूती से उभरेगी. हमारे देश में कहीं न कहीं गुलामी से गुजरे हुए वक्त का प्रभाव बहुत गहरे में दिखता है. अगर शहर का आदमी गांव जाकर चार लाइन अंग्रेजी बोलता है, तो उसे सहज ही पढ़ा-लिखा आदमी मान लिया जाता है.
बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि आजादी के पहले जब अंग्रेज गांवों में आते थे तो उन्हें देखने के लिए लोगों की भीड़ लग जाती थी, और लोगों की इच्छा होती थी कि वो कुछ अंग्रेजी में बोलें और वे सुनें. कहीं न कहीं इसके पीछे गुलामी की हमारी लंबी मानसिकता का बड़ा योगदान है. आजादी के सत्तर साल बाद भी अपनी राष्ट्र भाषा को हम वो मजबूती नहीं दे पाए हैं, जो देनी चाहिए थी. अब यह जरूरी है कि हम हिन्दी का इस्तेमाल उसी तरीके से करें जैसे एक फ्रेंच अपनी भाषा का करता है. वो अंग्रेजी जानने के बावजूद तभी उसका इस्तेमाल करता है, जब उसे लगता है कि इसके इस्तेमाल के बिना उसका काम नहीं चलेगा. इसके बावजूद फ्रांस और इंग्लैंड की दूरी हमारे दो बड़े शहरों से ज्यादा नहीं है.
और यह बात मैं अपने निजी अनुभव के बतौर बता रहा हूं. मैं जब भी फ्रांस गया और वहां लोगों से कुछ पूछने की जरूरत पड़ी तो उन्हें फ्रेंच भाषा में ही बोलते देखा. और मुझे संवाद में बेहद असुविधा का सामना करना पड़ा. ठीक इसी तरह जब जापान के, फ्रांस के और रूस के राष्ट्राध्यक्ष भारत आते हैं, तो सबके सब अपनी-अपनी राष्ट्र भाषा में बात करते हैं. सिर्फ हमारा ही देश ऐसा है, जहां के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जब दूसरे देशों में जाते हैं, तो अपना वक्तव्य अंग्रेजी भाषा में रखते हैं. मुझे लगता है कि हिन्दुस्तान के जनप्रतिनिधियों को अपने अंदर यह साहस पैदा करना चाहिए कि जब वो दूसरे देशों की यात्रा पर जाएं तो अपने संवाद की भाषा हिन्दी रखें और हिन्दी में ही बात करें.
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