कैसे रुके मजदूरों का विस्थापन

Last Updated 01 May 2017 05:26:02 AM IST

जो मई दिवस दुनिया के मजदूरों के एक हो जाने के पर्याय से जुड़ा था, भूमंलीकरण और आर्थिक उदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद वह किसान और मजदूर के विस्थापन से जुड़ता चला गया.


कैसे रुके मजदूरों का विस्थापन

मई दिवस का मुख्य उद्देश्य मजदूरों का सामंती और पूंजी के शिकंजे से बाहर आने के साथ उद्योगों में भागीदारी भी था, जिससे किसान-मजदूरों को राज्यसत्ता और पूंजी के षड्यंत्रकारी कुचक्रों से छुटकारा मिल सके. लेकिन भारत तो क्या वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भी ऐसा संभव हुआ नहीं. यही कारण है कि करीब पौने दो सौ जिलों में आदिवासी व खेतिहर समाज में सक्रिय नक्लवाद भारतीय-राज्य के लिए चुनौती बना हुआ है.

हाल ही में छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के 26 जवानों को हमला बोलकर हताहत कर दिया. इसके पहले भी छत्तीसगढ़ में हुए दो हमलों में करीब सौ से ज्यादा जवान मारे जा चुके हैं. नक्सली कुछ साल पहले ओडिशा में भाजपा विधायक और छत्तीसगढ़ में कलक्टर का अपहरण करके नक्सलवाद ने संविधान के दो स्तंभ विधायिका और कार्यपालिका को सीधी चुनौती पेश कर दी थी. दरअसल, कथित औद्योगिक विकास के बहाने वंचित तबकों के विस्थापन का जो सिलसिला तेज हुआ है, उसके तहत आमजान आर्थिक बदहाली का शिकार तो हुआ ही, उसे अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के भी संकट से जूझना पड़ रहा है. मसलन, एक ओर तो उसकी अस्मिता कुंद हुई जा रही है, वहीं दूसरी ओर वैश्विक नीतियों ने उसकी आत्मनिर्भरता को परावलंबी बनाकर आजीविका का संकट पैदा कर दिया है.


फिरंगी हुकूमत के पहले भारत में यूरोप जैसा एकाधिकारवादी सामंतवाद नहीं था और न ही भूमि व्यक्तिगत संपत्ति थी. भूमि व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी, इसलिए उसे बेचा व खरीदा भी नहीं जा सकता था. किसान भू-राजस्व चुकाने का सिलसिला जारी रखते हुए भूमि पर खेती-किसानी कर सकता था. यदि किसान खेती नहीं करना चाहता है तो गांव में ही सामुदायिक स्तर पर भूमि का आवंटन कर लिया जाता था. इसे मार्क्स ने एशियाई उत्पादन प्रणाली नाम देते हुए किसानी की दृष्टि से श्रेष्ठ प्रणाली माना था. किंतु अंग्रेजों के भारत के वर्चस्व के बाद भू-राजस्व व्यवस्था में दखल देते हुए भूमि के साथ निजी स्वामित्व के अधिकार जोड़ दिए. भूमि के निजी स्वामित्व के इस कानून से किसान भूमि से वंचित होने लगा.



वामपंथी मार्क्‍सवदियों ने ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ का नारा दिया, इसके उलट राष्ट्रीय स्वयं सेवक संगठन के आनुषांगिक संगठन भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी ने नारा दिया था कि ‘आओ दुनिया को एक करें.’ इस नारे में जहां वि एकता की झलक मिलती है, वहीं मार्क्‍स के नारे में वर्ग संघर्ष का भेद स्पष्ट नजर आता है. यही वजह रही कि जिस सोवियत संघ से मजदूरों के एक होने की बात उठी थी, वह सोवियत संघ कई टुकड़ों में विभाजित हो गया. आजादी के बाद सही मायनों में खेती, किसानी और मजदूर के वाजिब हकों को इंदिरा गांधी ने अनुभव किया नतीजतन हरित क्रांति की शुरुआत हुई और कृषि के क्षेत्र में रोजगार बढ़े. 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा निजी बैंकों और बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. इस व्यवस्था में किसानों को खेती व उपकरणों के लिए कर्ज मिलने का सिलसिला शुरू हुआ. नरेन्द्र मोदी सरकार स्टार्टअप और डिजिटल इंडिया के माध्यम से युवाओं को रोजगार के यही उपाय कर रही है. लोकतंत्र की जिस व्यवस्था से भी हम नेता चुनते हैं, वह कुर्सी पर बैठते ही अंग्रेजों की व्यवहार करने लग जाता है. जनता को बांटता है, लूटता है और सिर्फ राजनीति करता है.


अधिकारी और कर्मचारी इसी लूट प्रणाली को औजार बनाकर जनता के शोषण में भागीदार बनते हैं. इसी कारण उससे जल, जंगल और जमीन छिनने में आसानी तो हुई ही, जो शिक्षित तबका था, उसे भी सरकारी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नौकिरियों में संविदा कर्मचारी बनाकर उसे बंधुआ मजदूर बनाने का काम करती है. वैीकरण के बाद ये हालात इतने नाजुक हो गए कि शोषण से जुड़ा कोई भी वर्ग अपने हितों के लिए आवाज भी बुलंद नहीं कर पा रहा है. आज वे सभी राजनैतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संगठन नदारद हैं, जो कभी मजदूरों के हितों के लिए लाल झंडा उठाये फिरते थे. गोया समय की पुकार है कि किसान एवं मजदूर को फिर से जल जंगल और जमीन से जोड़ा जाए और प्राकृतिक संपदा के दोहन के आधार पर विकास की अवधारणा पर लगाम लगाई जाए.
 

 

 

प्रमोद भार्गव


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