लोकपाल : अस्तित्व में आने की उम्मीद
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भारतीय लोकतंत्र में लोकपाल के जन्म की उम्मीदें बढ़ गई हैं.
लोकपाल : अस्तित्व में आने की उम्मीद |
हालांकि यह तय नहीं है कि वह कब जन्म लेगा और कितना स्वस्थ होगा. अदालत ने सरकार की उन सारी दलीलों को दरकिनार कर दिया है, जिनके आधार पर एनडीए सरकार ने अपने गठन के तीन साल बाद भी सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता के लिए बनी इस संस्था के जन्म को मुल्तवी कर रखा है. आखिर सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा कि केंद्र सरकार लोकपाल की नियुक्ति के लिए जिन अड़चनों की बात कर रही है, वे गंभीर नहीं हैं.
उनके बिना भी नियुक्ति की जा सकती है. अदालत ने यह भी कहा कि 2013 का लोकपाल और लोकायुक्त कानून पर्याप्त है, जो 2014 से अमल में आ चुका है और उस पर कारगर ढंग से अमल किया जा सकता है. साफ है, शीर्ष अदालत के इस फैसले के बाद अब लोकपाल अधिनियम को देश में लागू करने का जिम्मा सरकार के कंधों पर आ गया है. कुल मिलाकर लोकपाल नियुक्त न करने के जितने भी तर्क सरकार के थे, अदालत में नहीं टिक सके. तो क्या अब यह मान लिया जाये कि वह दिन आ गया है जब लोकपाल नियुक्त हो सकेगा. क्या सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करते हुए मोदी सरकार लोकपाल के गठन की तरफ आगे बढ़ेगी. अहम सवाल यह भी है कि छोटी-छोटी बातों पर सदन में हंगामा करने और कार्रवाई ठप्प करने वाला विपक्ष इस मुद्दे पर भी सदन में सरकार का साथ देंगी.
बता दें कि सरकार लोकपाल के मौजूदा स्वरूप में कई संशोधन करना चाहती है और इसी वजह से अब तक इसे लागू नहीं किया गया है. लोकपाल के मौजूदा स्वरूप को लागू करने में सबसे बड़ा रोड़ा लोकपाल की नियुक्ति करने वाली चयन समिति में नेता प्रतिपक्ष को शामिल करने को लेकर माना जा रहा है. ज्ञात हो कि लोक सभा में आधिकारिक तौर पर कोई नेता प्रतिपक्ष नहीं है. कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है, लेकिन उसे न ही मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा दिया गया है और न ही उसके विधायक दल के नेता को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा मिला है. मौजूदा कानून के मुताबिक चयन समिति के तीन सदस्यों में प्रधानमंत्री और प्रधान न्यायाधीश या उनके प्रतिनिधि के तौर पर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश के अलावा लोक सभा में विपक्ष के नेता का होना जरूरी है. फिलहाल विपक्ष के नेता का पद खाली है क्योंकि नियमों के मुताबिक सबसे बड़ी पार्टी के पास भी इसके लिए जरूरी दस प्रतिशत सदस्य संख्या नहीं है. यह कोरा बहाना है अगर सरकार की मंशा साफ होती तो निश्चित ही कोई उपाय तलाशा जा सकता था.
गौर करने वाला बात यह है कि लोकपाल भले न आया हो, लेकिन इसके आने को लेकर जो आंदोलन हुआ उससे निकल कर कई लोग सत्ता में आ गए. 2011 से 13 के साल में ऐसा लगता था कि लोकपाल नहीं आएगा तो कयामत आ जाएगी. 2013 में लोकपाल कानून बन गया. बता दें कि लोकपाल शब्द का जिक्र सब से पहले 1963 में कांग्रेस के सांसद एल.एम. सिंघवी ने किया था. जवाहर लाल नेहरू के जमाने में भ्रष्टाचार की शुरु आत हुई. भारत-चीन जंग के दौरान खरीदी गई जीपों में भ्रष्टाचार उजागर हुआ था. तब भ्रष्टाचार की जांच के लिए निष्पक्ष लोकपाल की बात उठी. पांच साल बाद इंदिरा गांधी के जमाने में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंचना शुरू हो गया था. तब जन दबाव में पहली बार 1968 में चौथी लोकसभा में लोकपाल बिल पेश हुआ था. जाहिर है,कानून बनने में 45 साल लग गए तो कानून बनने के बाद लोकपाल नियुक्त होने में कम से कम दस-बीस साल तो लगने ही चाहिए थे. अभी तो लोकपाल कानून के बने चार ही साल हुए हैं.
हकीकत तो यह है कि लोकपाल जैसी संस्था को कोई भी पार्टी तभी पसंद करती है, जब वह विपक्ष में होती है. सत्ता में आते ही वह उसके औचित्य पर तमाम तरह के सवाल उठाने लगती है. चाहे कांग्रेस हो या भाजपा सभी ने लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति में अपने-अपने तरीके से अड़ंगे लगाए हैं. विडंबना तो यह है कि जिस अरविंद केजरीवाल ने लोकपाल गठित करने के लिए धरती आसमान एक कर दिया था, वे अब इसका नाम नहीं लेते. हालांकि उनकी दलील यह भी है कि यह वैसा ताकतवर लोकपाल नहीं है जैसा वे चाहते थे और असली लोकपाल तो जन-लोकपाल होगा. लेकिन असली सवाल यह है कि कठिन और लंबे आंदोलन और संसदीय प्रयासों के बाद जो संस्था इस देश के लोकतंत्र और जनता को हासिल हुई है उसे क्यों न मूर्त रूप दिया जाए? देखना है कि लोकपाल का जन्म कब होगा और वह किस तरह काम करेगा?
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