कश्मीर : आजादी से जिहाद की ओर

Last Updated 03 May 2017 04:59:46 AM IST

कश्मीर घाटी भारी उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है. कहा जाता था कि पहले वहां आंदोलन कश्मीरियत की रक्षा के लिए था मगर कश्मीरियत एक मुखौटा साबित हुआ.


कश्मीर : आजादी से जिहाद की ओर

अब कश्मीर की आजादी का संघर्ष नहीं रहा वह जिहाद बन चुका है. तभी तो बुरहान वानी जैसे आतंकवादी के मारे जाने पर कश्मीर 120 दिन हड़ताल पर रहा. युवा सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकते हैं. सैनिकों के साथ मुठभेड़ों में मारे जानेवालों को लोग शहीदों-सा दर्जा दे रहे हैं. उनके अंतिम संस्कार में हजारों लोग शरीक होते हैं. लोक सभा के उपचुनाव में केवल चार प्रतिशत वोट पड़ते हैं. आजकल तो लड़कियां और महिलाएं भी सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने लगी हैं. यह जिहाद का नजारा है. कई बार तो ऐसा लगता है कि कश्मीर हाथ से निकलता जा रहा है. मोदी सरकार की कठोर नीतियां कारगर नहीं हो रहीं या वे उतनी कठोर नहीं हैं, जितना कठोर उन्हें होना चाहिए.

लोग जब कश्मीर के बदले मिजाज पर चिंता जता रहे थे तभी हिजबुल मुजाहीदीन के सरगना जाकिर मूसा का बयान आया, जिसने  पर्यवेक्षकों की आंखें खोल दीं. जिसमें कहा गया था कश्मीर में जारी आतंकी हिंसा किसी भी तरह से कश्मीर की आजादी के लिए नहीं है. यह सिर्फ  कश्मीर में इस्लामिक राज और शरियत बहाल करने की जंग है. राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और देशभक्ति इस्लाम में हराम है. यहां इस्लाम की जंग चल रही है और पत्थरबाज भाई जब भी पत्थर उठाएं, वह इस्लाम के लिए ही पत्थर उठाएं.

जाकिर मूसा का यह बयान कश्मीर के इतिहास का एक मील का पत्थर है. एक बात जिसे हर कोई जानता था मगर जिस पर चुप्पी साधे रहते थे, वह बात अब खुलकर सामने आ गई. अक्सर कहा जाता है कि कश्मीर की जंग आजादी की जंग है. मगर यह बात ढकोसला है. इसका मकसद मुस्लिम बहुल कश्मीर राज्य के लिए अन्य समुदायों का समर्थन हासिल करना था. मगर अब कश्मीर घाटी  में अन्य समुदाय के लोग बहुत थोड़े ही बचे हैं, जम्मू और लद्दाख में कश्मीर की आजादी के लिए कोई आंदोलन हो नहीं रहा. इसलिए कश्मीरियत के मुखौटे की जरूरत नहीं बची. इसलिए इस्लाम के लिए संघर्ष का खुल्ला खेल शुरू हो गया है.

वैसे कश्मीर के इतिहास को जानने वाले लोगों का कहना है कि कश्मीर का संघर्ष हमेशा ही इस्लाम का संघर्ष  रहा है. शेख अब्दुल्ला जिन्होंने कश्मीर की आजादी के आंदोलन की शुरुआत की उनकी पार्टी का नाम मुस्लिम कांफ्रेंस ही था. बाद में उसका नाम रखा गया नेशनल कॉन्फ्रेंस. मगर शेख राजनीति तो मुस्लिम सांप्रदायिकता की ही करते रहे. विभाजन के दौरान वे द्वि-राष्ट्रवाद के विरोधी थे, इसका मतलब था कि वे चाहते थे त्रि-राष्ट्रवाद यानी भारत के अलावा  मुसलमानों के दो देश बने पाकिस्तान और कश्मीर. चाहते तो वे भी इस्लामी राज्य ही थे मगर जम्मू और लद्दाख में हिन्दुओं और बौद्धों की तादात अच्छी खासी थी इसलिए उन्होंने इस्लामी राज्य के बजाय कश्मीरियत के लिए आजादी की बात कहना शुरू किया. शेख अब्दुल्ला किस तरह से सांप्रदायिक और इस्लामपरस्त थे, यह उनके भाषणों से स्पष्ट है. मगर शेख अब्दुल्ला का हालात पर बस नहीं चला. कश्मीर भारत का हिस्सा बना पर शेख अब्दुल्ला 370 के नाम पर कश्मीर को स्वायत्त बनाने और कश्मीर के मुस्लिम स्वरूप को बनाए रखने में लगे रहे.

कश्मीर घाटी के मुस्लिम बहुल स्वरूप के कारण वहां सरकार भी मुस्लिम परस्त थी और विपक्ष भी. कश्मीर की राजनीति में नया मोड़ आया जब विपक्षी जमात-ए-इस्लामी के विभिन्न धड़ों ने खुद को मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के रूप में संगठित किया और 1987 के चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस तथा कांग्रेस के गठबंधन के सामने मुख्य विपक्षी दल की तरह सामने आई. जनता का उत्साह इस कदर था कि इस चुनाव में लगभग 75 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया लेकिन  मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट को केवल 4 सीटें मिलीं. इससे चुनावों से किसी बदलाव की उम्मीद पूरी तरह ध्वस्त हो गई. बड़ी संख्या में युवाओं ने हथियार उठाए और कश्मीर ने नब्बे के दशक का वह खूनी खेल देखा, जिसमें कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी तो हजारों की संख्या में मुस्लिम नौजवान मारे गए. अब कश्मीर घाटी में 95 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम ही हैं. यह एक तरह से जनसंख्या जिहाद ही था.

इन दिनों  हुर्रियत कांफ्रेंस प्रमुख विपक्ष है. यह 23 इस्लामवादी  संगठनों का गठबंधन है. जो कश्मीर के भारत से अलगाव की वकालत करता है. हुर्रियत कांफ्रेंस ने अभी तक एक भी विधान सभा या लोक सभा चुनाव में हिस्सा नहीं लिया है मगर वह खुद को कश्मीरी जनता का असली प्रतिनिधि बताती है. मोदी सरकार ने उससे बात करने से इंकार कर दिया है. कश्मीर आंदोलन के जिहाद बनने की वजह यह है कि कश्मीर में इस्लाम की सबसे  असहिष्णु धारा वहाबीवाद का प्रभाव तेजी से बढ़ा है. इसके पीछे सऊदी अरब का पैसा काम कर रहा है. तभी तो दुनिया और कश्मीर और पाकिस्तान के ज्यादातर आतंकी संगठन वहाबी है. यों तो घाटी में शिया भी है और सूफी भी है मगर वे वहाबियों के धनबल और बाहुबल का मुकाबला करने में सक्षम नहीं है. ऐसे में युवक बहाबियों के दबाव में आ रहे हैं, जिसका असर कश्मीर घाटी में दिख रहा है. दूसरी तरफ आईएस के बढ़ते प्रभाव के निशां मिलते रहे हैं.

दरअसल, कश्मीर के संघर्ष को इस्लाम के संघर्ष में बदलने का मतलब है कि अब इस्लाम का संघर्ष स्वायत्तता या आजादी के लिए नहीं उसे इस्लामी राज्य बनाने के लिए होगा. शरीयत को लागू करने के लिए होगा. इसके पीछे एक रणनीति भी काम कर रही है. कश्मीर के संघर्ष को इस्लाम का संघर्ष बनाने से कश्मीर के संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय बनाया जा सकेगा, जिस तरह अफगानिस्तान का संघर्ष बना था, जिसमें भाग लेने दुनियाभर के इस्लामी योद्दा आए थे. जैसे आईएस के लिए दुनियाभर से इस्लामी मुजाहिद गए थे उसे जिहाद समझकर. इस तरह कश्मीर में दुनियाभर से मुस्लिम योद्धा आ सकेंगे पाकिस्तान उनकी मदद करेगा. इस तरह कश्मीर को आजादी के बजाय इस्लामी संघर्ष  बनाने के पीछे बहुत खतरनाक अंतरराष्ट्रीय साजिश काम कर रही है.

सतीश पेडणेकर
लेखक


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