एच 1 बी वीजा : तलाशनी होगी ट्रंप की काट

Last Updated 26 Apr 2017 04:53:18 AM IST

अमेरिका में एच1बी वीजा के नियमों में सख्ती का मुद्दा दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गया है.


एच 1 बी वीजा : तलाशनी होगी ट्रंप की काट

भले ही कई देश इस चिंता को खारिज कर रहे हैं लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका निश्चित तौर पर असर पड़ेगा. इसकी वजह साफ है कि अमेरिका में सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) के क्षेत्र में जितने एच1बी वीजा जारी किए जाते हैं उनमें से करीब 86 फीसद भारतीय पेशेवरों को दिए जाते हैं.

वीजा के नये नियमों के बाद भारत की यह हिस्सेदारी घटकर 60 फीसद पर आ जाएगी. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अमेरिकी चीजें खरीदो और स्थानीय नागरिक को रोजगार देने की संरक्षणवादी नीति से भारतीय आईटी कंपनियों पर आर्थिक बोझ बढ़ने के साफ संकेत दिख रहे हैं.

नई नीति के तहत इन कंपनियों ने अमेरिका में स्थानीय पेशेवरों की नियुक्तियां शुरू कर दी हैं. इनकी जगह पर वहां पहले से काम कर रहे भारतीय पेशेवर स्वदेश लौटना शुरू हो गए हैं. यह हकीकत है कि अमेरिका और यूरोप के कई बड़े देशों की अर्थव्यवस्थाएं अब भी सुस्ती के दौर से गुजर रही हैं जिसका असर आईटी सेक्टर पर भी पड़ा है. चूंकि भारतीय आईटी कंपनियों की आय का बड़ा हिस्सा विदेशी कारोबार से मिलता है. जाहिर है उनकी बैलेंस शीट पहले से ही दबाव में है.

अब इन कंपनियों को अमेरिका में भारतीय पेशेवरों की तुलना में काफी ज्यादा वेतन पर स्थानीय लोगों की भर्तियां करनी होंगी. इससे उनके मुनाफे पर और दबाव बढ़ेगा. इससे उबरने के लिए भारतीय कंपनियों को नियुक्तियों और वेतन एवं भत्तों का भुगतान को लेकर अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ सकता है. इसी रणनीति के तहत उन्हें कर्मचारियों की छंटनी का कदम भी उठाना पड़ सकता है. कुछ आईटी कंपनियों ने वेतन भत्तों में कटौती और छंटनी के संकेत दे भी दिए हैं.

ऐसे में अमेरिकी एच1बी वीजा नियमों में सख्ती से देश के 40 लाख लोगों को रोजगार देने वाले 100 अरब डालर के आईटी उद्योग के लिए भारी चिंता का विषय है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ट्रंप ने अपने राष्ट्रपति पद के चुनाव प्रचार के दौरान ही साफ संकेत दे दिए थे कि सत्ता में आने पर वह अपने युवा नागरिकों को रोजगार दिलाने के लिए वह कोई भी कड़े से कड़ा कदम उठाएंगे. साथ ही आउटसोर्सिग करा रही अमेरिकी कंपनियों पर अंकुश लगाएंगे. राष्ट्रपति बनते ही ट्रंप ने इस दिशा में पहल शुरू कर दी है. भारत इस कदम से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहा है इसलिए यह मुद्दा यहां सबसे ज्यादा गरमा रहा है. क्या ट्रंप इस तरह का कदम उठाने वाले दुनिया के पहले और एकमात्र नेता हैं ?

क्या ट्रंप पर दबाव डालकर उन्हें पीछे हटने को मजबूर किया जा सकता है? इस तरह के ऐसे कुछ बुनियादी सवाल हैं जिनकी तह में जाने की जरूरत है. इसमें दो राय नहीं कि वैश्विक अर्थव्यवस्था एक खुला बाजार है. विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाएं इस बाजार को और ज्यादा खोलने का सुझाव देती आ रही हैं. सभी देश अपने हिसाब से संरक्षणवाद की नीति को अपना रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आने से पहले स्वदेशीकरण का मुद्दा जोर-शोर से उठाया था. इसका भाजपा को लाभ भी मिला. सरकार बनते ही मोदी ने ‘मेक इन इंडिया’ अभियान शुरू किया. इसी का नतीजा है कि बुलेट प्रूफ वाहन और आधुनिक तोपों का निर्माण अब भारत में ही होने जा रहा है. यही नहीं, पिछले काफी समय से चीन में बने उत्पादों का बहिष्कार करने की मुहिम छिड़ी हुई है. इस बार दिवाली पर यह मुद्दा खूब गरमाया था. क्या यह मुद्दा संरक्षणवाद की श्रेणी में नहीं आता?

हकीकत यही है कि देश ही नहीं राज्यों में भी संरक्षणवाद खूब फल-फूल रहा है. देश के शिक्षा के क्षेत्र को ही ले लीजिए. दिल्ली में इंजीनियरिंग एवं प्रबंधन जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों में स्थानीय छात्रों का 85 फीसद कोटा है. देश के अन्य राज्यों के छात्रों को सिर्फ 15 फीसद सीटों पर दाखिले के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती है. इसी तरह उत्तर प्रदेश और बिहार समेत तमाम राज्य ज्यादातर नियुक्तियों में अपने राज्य के निवासियों को ही शामिल करते हैं. ऐसे में फिर हम ट्रंप की नीतियों को कैसे कोस सकते हैं?

वैश्विक स्तर पर संरक्षणवाद का यह कोई पहला मसला नहीं है. ब्रिटेन, फ्रांस और आस्ट्रेलिया भी इस तरह के कई कदम उठा चुके हैं. फिलहाल वैश्विक स्तर पर इस तरह का कोई कानून भी नहीं है कि इसके खिलाफ लड़ाई लड़ी जाए. ऐसे में बेहतर यही होगा कि एच1बी वीजा नियमों पर रूदन मचाने के बजाय हमें ट्रंप के फैसले की काट तलाशनी चाहिए. आईटी सेक्टर के ढांचे को मजबूत करना होगा. ऐसी सेवाएं देनी होंगी जिन्हें लेने के लिए विदेशी मजबूर हो जाएं.

देवेन्द्र शर्मा
लेखक


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