वामपंथ : एकता की यह कैसी पहल

Last Updated 25 Apr 2017 03:56:22 AM IST

हाल ही में संपन्न माकपा केंद्रीय समिति की बैठक में कम्युनिस्ट पार्टियों के एकीकरण का प्रस्ताव आया और जैसी अपेक्षा थी, तुरंत अस्वीकृत हो गया.


वामपंथ : एकता की यह कैसी पहल

होना भी यही था. राजनितिक परिस्थिति चाहे जितनी बदल गई हो, माकपा द्वारा परिस्थिति का मूल्यांकन जहां-का-तहां है. यदि यह समझ ठीक होती और परिस्थिति के अनुरूप रणनीति भी बनती तो शायद कम्युनिस्ट पार्टियों की, विशेषत: माकपा की इतनी दुर्गति न होती. सातवें-आठवें दशक के कम्युनिस्टों की कुर्बानियों से 1977 में प्राप्त बंगाल की सत्ता चौंतीस वर्षो के शासन के बाद ऐसी फिसली कि माकपा लगातार फिसलते हुए तीसरे-चौथे स्थान पर पहुंच गई, लेकिन रस्सी का बल नहीं गया! कारण शायद यह है कि हरकिशन सिंह सुरजीत के बाद माकपा के पास जेएनयू-ब्रांड, अंग्रेजीदां नेतृत्व तो है, जन-मनोविज्ञान को और सामान्य भारतीय वास्तविकता को समझने और उससे नाता जोड़ने वाला नेतृत्व नहीं है.

पिछले कई वर्षो से भाकपा-माकपा के विलय की चर्चा होती रही है पर विलय तो दूर, एकता की भी गंभीर कोशिश नहीं दिखाई देती. यथार्थ से अधिक शुद्धता हावी होने पर यही होता है. नि:संदेह विचारधारा, नीति और नेतृत्व के मसलों पर भाकपा और माकपा के बीच काफी मतभेद हैं. उन्हें सुलझाए बिना एकता की संभावना नहीं है. लेकिन जब भारत में वामपक्ष हाशिये पर जा रहा हो, दुनिया में दक्षिणपंथ का उभार खुद उदारपंथी पूंजीवाद के लिए चिंता का विषय बन रहा हो, तब व्यावहारिक नजरिया अपनाना अधिक समीचीन होगा. लेकिन भारत में कम्युनिस्ट पार्टयिां व्यावहारिक नजरिया अपनाने के मामले में कभी नहीं जानी गई. ज्यादा दूर क्या जाना, 2005 में माकपा के दिल्ली महाधिवेशन के पहले सुरजीत के महासचिव काल में ‘हिंदी क्षेत्र: तकलीफें और मुक्ति के रास्ते’ विषय पर एक सप्ताह की संगोष्ठी हुई.

उसने पूरे हिंदी क्षेत्र के वाम बुद्धिजीवियों को माकपा के निकट ला दिया. किन्तु प्रकाश करात ने महासचिव बनते ही पहला काम यह किया कि उस संगोष्ठी के कार्यभार को तिलांजलि दे दी और हिन्दी प्रदेश में पार्टी के विस्तार को अवरु द्ध दिया. यह स्थिति तो खुद पार्टी के दायित्व के प्रति थी, अन्य राजनीतिक मसलों पर हालत अधिक खराब है. आज देश में बढ़ती असहिष्णुता और सांप्रदायिकता का सबसे अधिक नुकसान राजनितिक दृष्टि से वामपक्ष को ही उठाना पड़ रहा है. लेकिन इसके लिए जिम्मेदार भी वामपक्ष खुद है. यह बात अभी भूली नहीं है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1986-87 के वर्षो में पहली बार जब अमरीकी दबाव भारत की नीतियों को गहरे रूप में प्रभावित कर रहा था, तभी राजीव गांधी की विराट बहुमत की सरकार ने आगामी भारत के लिए रूढ़िवाद और सांप्रदायिकता की आधारशिला तैयार की थी. पहले शाहबानो मामले में, फिर राममंदिर मामले में अपने प्रगतिविरोधी फैसलों द्वारा. इस तरह, आजादी की लड़ाई के बाद स्वाधीन भारत में फिर सांप्रदायिकता का साम्राज्यवाद से अटूट संबंध साफ-साफ दिखाई देता था.

तलाक के बाद गुजारा भत्ता देने के सवाल पर उच्चतम न्ययालय ने शाहबानो के पक्ष में एक प्रगातिशील फैसला दिया, जिसे संसद से कानून बनाकर निरस्त कर दिया गया. उसके बाद मुसलिम समुदाय के भीतर सुधार और परिवर्तन के समर्थक हाशिए पर ठेल दिए गए और कठमुल्लों की आवाज ही समुदाय की आवाज़ के रूप में मान्यता पाने लगी. कम्युनिस्ट पार्टियों को उस समय मुस्लिम कट्टरपंथियों के खिलाफ और उन्हें बल प्रदान करने वाली कांग्रेसी नीतियों के खिलाफ जोरदार आवाज उठानी थी. यह उन्होंने नहीं किया. परिणाम, पार्टी के भीतर प्रगतिशील मुसलमानों की संख्या कम हुई और बाहर मुस्लिम समुदाय पर कट्टरपंथियों की जकड़बंदी मजबूत हुई. दूसरी तरफ 1949 में सरदार पटेल द्वारा राममंदिर पर ताला जड़ दिए जाने के बाद मामला शांत था, लेकिन राजीव गांधी के समय 1987 में ताला खोलकर हिन्दू संप्रदायवाद को भी जमीन मुहैया की गई. राममंदिर आंदोलन का उद्भव उसके बाद हुआ, बाबरी मस्जिद का विध्वंस उसके बाद हुआ.

जिस तरह मुस्लिम कट्टरपंथ के हाथ मजबूत करने बाद तथाकथित मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस के हाथ से निकल गया, उसी तरह हिन्दू रूढ़िवाद को आधार देने के बाद हिन्दू वोट बैंक भी क्रमश: भाजपा के इर्द-गिर्द गोलबंद होता गया. बेशक, यह परिणति एक दिन में नहीं हुई, पूरी तरह आज भी नहीं हुई है, लेकिन इस परिस्थिति से कांग्रेस को नुकसान हुआ, उससे अधिक वामपंथ को नुकसान हुआ. कांग्रेस ने यह दांव वामपक्ष को नियंत्रित करने के लिए खेला था. लेकिन वामपक्ष अपने हितों के अनुरूप मुस्लिम और हिन्दू संप्रदायवाद का विरोध करने में अक्षम रहा. इस अक्षमता का पहलू यह है कि हिंदी प्रदेश में अपनी कमजोरी को अतिरंजित रूप में देखने के नाते उसने सांप्रदायिकता से लड़ने के लिए जातिवाद से समझौता किया. यह नीति आत्मघाती सिद्ध हुई. दूसरा पहलू यह है कि सांप्रदायिकता-विरोधी संघर्ष को वामपक्ष ने केवल राजनितिक स्तर पर सुलझाने की कोशिश की, उसे आर्थिक प्रश्न से जोड़कर देखने की क्षमता का परिचय उसने नहीं दिया.

शुद्धातावाद की हालत यह थी कि कांग्रेस के उदारीकरण के विरु द्ध भाजपा ने स्वदेशी का नारा दिया इसलिए वामपक्ष ने स्वदेशी के विचार को प्रतिक्रियावादी नहीं तो कम-से-कम अस्पृश्य मानकर जरूर देखा. जनता को यह समझाना उसके वश में नहीं था कि भाजपा के नारे और नीतियों में आकाश-पाताल का फर्क है.  वामपक्ष अब इस स्थिति में भी नहीं रहा कि भाजपा के स्वदेशी नारे से वर्तमान विदेशी निवेश के अंतराल को मुद्दा बना सके. जिस समय कांग्रेस के विकल्प के रूप में स्वतंत्र आधार विकसित करने का दायित्व और अवसर था, तब उसमें चूक, अब भाजपा की विभाजनकारी सामाजिक नीतियों के विरुद्ध व्यापक मोर्चे की आवश्यकता है, तब उससे किसी संबंध को स्वीकार न करना, यह सब उसी अव्यावहारिक समझ का परिणाम है, जिसने वामपक्ष को, विशेषत: माकपा को हाशिए पर पहुंचाया है.

अजय तिवारी
लेखक


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