तेलंगाना : मुस्लिमों को आरक्षण सही

Last Updated 25 Apr 2017 03:49:05 AM IST

जिस दिन भाजपा ने पसमांदा (पिछड़े) मुस्लिमों के लिए काफी कुछ किए जाने की भुवनेश्वर में इच्छा जताई, तभी तेलंगाना विधान सभा ने नौकरियों और शिक्षा क्षेत्र में ओबीसी मुस्लिमों के लिए मौजूदा चार प्रतिशत आरक्षण बढ़ाकर 12 प्रतिशत किए जाने संबंधी कानून पारित कर दिया.


तेलंगाना : मुस्लिमों को आरक्षण सही

उसने केंद्र से आग्रह किया कि संविधान की नौंवी अनुसूची में राज्य में 62 प्रतिशत आरक्षण को उसी तरह शामिल किया जाए जैसा तमिलनाडु के मामले में है, जहां 69 प्रतिशत आरक्षण है.

दरअसल, पचास प्रतिशत आरक्षण की हद एक न्यायिक ईजाद है, और संविधान में इसका उल्लेख नहीं है. तेलंगाना की 90 प्रतिशत जनसंख्या अनुसूचित जाति/जनजाति और ओबीसी है; इसलिए राज्य के मामले में पचास प्रतिशत आरक्षण की हदबंदी तार्किक नहीं है.

तकनीकी रूप से कहें तो हालिया कानून को मुस्लिमों के लिए आरक्षण करार नहीं दिया जा सकता क्योंकि इसके लाभ राज्य के सभी मुस्लिमों को नहीं मिलेंगे. ये लाभ मुस्लिमों की कसाई, बढ़ई, माली और नाई जैसी कुछेक जातियों को ही मिल पाएंगे. हिंदुओं की ऐसी जातियां पहले से ही आरक्षण से लाभान्वित हो रही हैं. इसलिए तेलंगाना विधान सभा द्वारा पारित कानून उन वगरे को ही लाभान्वित करने वाला है, जिनकी सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर पहले से ही पहचान की जा चुकी है.

तथ्य तो यह है कि ऐसा आरक्षण संविधान के अनुच्छेद 15(1) के खिलाफ नहीं है. यह अनुच्छेद ‘केवल धर्म के आधार’ पर भेदभाव को निषिद्ध करता है. बीएस रामुलू की अध्यक्षता वाले पिछड़ा वर्ग आयोग ने जी. सुधीर आयोग (2016) की सिफारिशों को माना था, जो पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए मंडल आयोग द्वारा सुझाए गए ग्यारह पैमानों पर खरी उतरती हैं, और जिन्हें सुप्रीम कोर्ट भी इंदरा साहनी मामले स्वीकार कर चुका है. इंदरा साहनी मामले में आरक्षण के लिए जो पैमाने गिनाए गए हैं, उनकी फिर से समीक्षा किए जाने की जरूरत नहीं है. अब ये बेमानी हैं.

सच तो यह है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का यह कहा जाना उचित है कि आरक्षण नीति की वस्तुपरक समीक्षा किया जाना चाहिए. जाट आरक्षण के मामले में शीर्ष अदालत इस जरूरत की ओर ध्यान दिलाया है कि पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए नये मानदंड तय किए जाएं और हमें जाति-केंद्रित पैमानों को तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए. 2004 में आंध्र प्रदेश सरकार ने अपने अल्पसंख्यक कल्याण आयुक्त कार्यालय को निर्दिष्ट किया था कि मुस्लिम समुदाय के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन की रिपोर्ट पेश करें. आयुक्त कार्यालय से प्राप्त रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने एक 2004 में एक आदेश जारी किया था कि समूचे मुस्लिम समुदाय को पिछड़ा वर्ग मानते हुए पांच प्रतिशत आरक्षण मुहैया कराया जाए.

उच्च न्यायालय ने टी. मुरलीधर राव मामले (2004) में सुनवाई करते हुए आरक्षण व्यवस्था संबंधी इस आदेश को इस तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया था कि आदेश जारी किए जाने से पूर्व पिछड़ा वर्ग आयोग से परामर्श नहीं लिया गया था. अदालती व्यवस्था के मद्देनजर राज्य सरकार ने इस मुद्दे को पिछड़ा वर्ग आयोग के समक्ष पेश किया. आयोग की रिपोर्ट के आधार पर राज्य सरकार ने 2005 में एक अध्यादेश जारी करते हुए घोषणा की कि मुस्लिम समुदाय पिछड़े वर्ग की श्रेणी में है. इस समुदाय को पांच प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की घोषणा की गई. हाईकोर्ट ने बी. अर्चना रेड्डी मामले (2005) की सुनवाई करते हुए इस घोषणा को  फिर से इस तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया कि समूचे मुस्लिम समुदाय को लाभान्वित करने से पूर्व पिछड़ा वर्ग आयोग ने इस समुदाय के सामाजिक पिछड़ेपन की अच्छे से पहचान-पड़ताल नहीं की थी.

पांच सदस्यीय पीठ ने हालांकि यह दोहराया कि मुस्लिमों को एक समुदाय के तौर पर सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा घोषित किए जाने में कोई हरज नहीं बशत्रे वे सामाजिक पिछड़ेपन की कसौटी पर खरे उतरें. इन खामियों से पार पाने के लिए राज्य सरकार ने इस मामले को फिर से पिछड़ा वर्ग आयोग के पास भेज दिया और 2007 में एक एक्ट तैयार किया. लेकिन हाईकोर्ट ने आयोग की सिफारिशों को खारिज कर दिया. यह कहते हुए कि आयोग मुस्लिम के सापेक्ष पिछड़ेपन का किसी तार्किक तरीके से आकलन करने में नाकाम रहा. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इंदरा साहनी मामले में कहा कि ‘समूचा मुस्लिम समुदाय संभव है कि सामाजिक रूप से पिछड़ा हो.’ उम्मीद करते हैं कि इस मुद्दे को चुनावी गुणा-भाग के लिए समाज का ध्रुवीकरण करने की गरज से इस्तेमाल नहीं किया जाएगा.

फैजान मुस्तफा
लेखक


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