मानवाधिकार : सुर्खियों का आयोग
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग-जिसकी सिफारिशें सुर्खियों में रहा करती थीं-इन दिनों खुद सुर्खियां बना हुआ है.
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वजह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार उच्चायुक्त के पास भेजी गई यह सिफारिफ कि भारत के इस अग्रणी आयोग का अक्रिडिशन नवम्बर, 2017 तक टाल दिया जाए. इसका मतलब होगा कि आने वाले नवम्बर माह तक भारत का राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार परिषद में भारत का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकेगा. आखिर, ऐसा क्या हुआ कि इतना बड़ा फैसला संयुक्त राष्ट्र संघ से संबद्ध आयोग की तरफ से लिया गया.
दरअसल, भारत के मानवाधिकार आयोग में जिस तरह लोगों का चयन होता है, और जिस तरह नियुक्तियां की जाती हैं, उसमें कोई समरूप पैमाना नहीं अपनाया जाता. न ही उच्च पदों की रिक्तियों को लेकर विज्ञापन निकाले जाते हैं. वही मसला इस बार निशाने पर आया है. प्रस्तुत सिफारिश संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार आयोग से संबद्ध ग्लोबल एलायंस फॉर नेशनल ह्यून राइट्स इंस्टिटय़ूशंस की तरफ से की गई है. ग्लोबल अलायंस की तरफ से कहा गया है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से जुड़े स्टाफ में महज 20 फीसदी महिलाएं हैं.
वर्ष 2004 से उसके संचालक मंडल पर एक भी महिला नहीं रही है. आयोग के ढांचे में जिस तरह पूर्व मुख्य न्यायाधीश को प्रमुख बनाने और न्यायपालिका के वरिष्ठ सदस्यों से सदस्य चुनने की जरूरत को अनिवार्य किया गया है, उससे महिलाओं को नियुक्त करने में जबरदस्त बाधा आती है. रिपोर्ट ने यह भी पूछा है कि आखिर, आयोग के जांच विभाग में किस आधार पर पूर्व या मौजूदा पुलिस अधिकारियों को रखा जाता है. यह प्रश्न इस वजह से भी अहम हो जाता है कि आयोग को सरकार एवं उसकी एजेंसियों, जिसमें पुलिस भी शामिल होती है, द्वारा अंजाम दिए गए मानवाधिकार उल्लंघन की जांच करनी होती है. अब हम स्टेटस ऑफ नेशनल इंस्टिटय़ूशंस, 1993/पेरिस प्रिन्सिपल्स/पर गौर करें तो औपचारिक तौर पर यही बात उसमें दर्ज है कि मानव आयोगों को कार्य के स्तर पर एवं वित्तीय मामलों में स्वतंत्र होना चाहिए.
याद कर सकते हैं कि कुछ साल पहले संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार उच्चायुक्त ने अपने पांच पेजी पत्र में इस बात को स्पष्ट किया गया था कि 1993 के कानून द्वारा गठित राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कई स्तरों पर इन्हीं पेरिस सिद्धांतों का उल्लंघन करता दिखता है, जिसमें उसकी संरचना से लेकर कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े किए गए थे. मालूम हो वर्ष 1991 में पेरिस में आयोजित मानवाधिकार के लिए सक्रिय राष्ट्रीय संस्थाओं के पहले अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में इन सिद्धांतों को परिभाषित किया गया था, जिनको बाद में संयुक्त राष्ट्रसंघ के मानवाधिकार आयोग ने (1992) में अपनाया. प्रस्तुत पत्र में मुख्यत: पांच बिंदुओं पर आयोग की आलोचना की गई थी. पहला सवाल आयोग की संरचना में विविधता के अभाव से जुड़ा था. दूसरा अहम सवाल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दो अहम पदों-सेक्रेटरी जनरल और डायरेक्टर जनरल ऑफ इंवेस्टिगेशंस-से जुड़ा था. आयोग के संविधान के हिसाब से इन दो पदों पर नियुक्त व्यक्ति सरकार की तरफ से भेजे जाएंगे.
पत्र के मुताबिक इस प्रावधान के चलते आयोग की स्वतंत्रता पर असर पड़ता है. तीसरी आपत्ति मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ सीमित अन्तरक्रिया से जुड़ी थी. एक अहम बात यह नोट की गई थी कि आयोग द्वारा गठित विशेषज्ञ समूह नागरिक समाज के साथ अन्तरक्रिया और सहयोग नहीं करते. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा तैयार की जाने वाली वाषिर्क रिपोटरे को सार्वजनिक दायरे में पहुंचने में होने वाले विलंब को लेकर पत्र में आपत्ति दर्ज की गई है. भले ही आयोग के निर्माण के वक्त यह प्रावधान बनाया गया था कि आयोग की सालाना रिपोर्टे सरकार द्वारा तैयार कार्रवाई रिपोटरे (एक्शन टेकन रिपोटरे) के साथ जारी होंगी.
फिलवक्त इस बात का कयास नहीं लगाया जा सकता कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इस मामले में किस कदर आगे बढ़ेगा. क्या केंद्र सरकार इसे गंभीरता से लेगी. मगर उसे कितना सफर तय करना है, यह इससे भी स्पष्ट होता है कि पिछले दिनों से वह इस वजह से विवादों में था. सत्ताधारी पार्टी से जुड़े एक व्यक्ति को उसका सदस्य नियुक्त किया गया था, और नागरिक अधिकार संगठनों तथा न्यायप्रेमी लोगों द्वारा आपत्तियां दर्ज करने के बावजूद उसमें तत्काल कोई परिवर्तन नहीं किया गया.
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