परत-दर-परत : ट्रंप का अमेरिका किसके हित में?

Last Updated 22 Jan 2017 05:27:51 AM IST

यह शब्द विपर्यय का युग है. हमने देखा है कि किस तरह स्वतंत्रता का अर्थ पराधीनता, समाजवाद का अर्थ पूंजीवाद और धर्म का अर्थ अराजकता हो सकता है.


ट्रंप का अमेरिका किसके हित में?

अब ग्रेट शब्द का अर्थ बदलने जा रहा है. रिपब्लिकन पार्टी के विजयी उम्मीदवार रोनाल्ड ट्रंप ने जब 20 जनवरी को संयुक्त राज्य अमेरिका के पैंतालिसवें राष्ट्रपति की शपथ ली, तो उनका जोर एक ही बात पर था : हम अमेरिका को फिर से महान बनाएंगे.’ अमेरिका कब महान था, जो उसमें फिर से महान होने की भूख जगाई जा रही है? ट्रंप जिस अर्थ में अमेरिका को महान बनाना चाहते हैं, उस अर्थ में अमेरिका कब महान नहीं था? एक बीमार अवधारणा को किस तरह एक उत्कृष्ट अवधारणा के रूप में पेश किया जा सकता है, आज के समय में इसके उदाहरण अनेक हैं. ट्रंप ने उसमें एक और की वृद्धि कर दी है.

ट्रंप की कुछ  चिंताएं जायज हैं और हम उनका स्वागत करते  हैं. उनका कहना है कि पिछले कुछ समय से अमेरिका व्यर्थ में करोड़ों डॉलर विदेश में झोंकता रहा है और अपनी फौज को बाहर भेजता रहा है. यह कोई ऐसी बात नहीं है जो पहली बार कही जा रही हो. अमेरिका के साम्राज्यवाद का विरोध तब से हो रहा है, जब वह वियतनाम में साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए एक अवैध और बेहया युद्ध लड़ रहा था. इराक पर अमेरिकी आक्रमण विश्वव्यापी चिंता का विषय बना. सोवियत संघ और कम्युनिस्ट चीन से उसकी प्रतिद्वंद्विता एक रुग्ण मानिसकता की देन थी.  वास्तव में अमेरिका की विदेश नीति न अमेरिका के हित में रही है न विश्व के हित में. इसलिए ट्रंप अगर विव्यापी अमेरिकी जाल को समेटने जा रहे हैं, तो यह अमेरिका और विश्व के हित में है.

लग सकता है कि यह अमेरिका का अपनी जड़ों की ओर लौटना है. द्वितीय विश्व युद्ध के पहले तक अमेरिका एक अंतर्मुखी देश था. विश्व मामलों से उसका कुछ खास लेना-देना नहीं था. द्वितीय विश्व युद्ध तब की विश्व व्यवस्था की सब से बड़ी विफलता थी. संकीर्ण राष्ट्रवाद से ग्रस्त यूरोपीय देश हिटलर के उदय को रोक न सके. जापान पर अमेरिका द्वारा नृशंस एटम बम गिराने से उस विश्व युद्ध का अंत हुआ और इसके साथ ही अमेरिका में दुनिया का चौधरी बनने की अस्वस्थ महत्त्वाकांक्षा पैदा हुई. उसके बाद का इतिहास अमेरिका बनाम विश्व का इतिहास है.

जब ट्रंप यह कहते हैं कि हम अपने रोजगारों को अमेरिका वापस ले आएंगे, तब वे एक परस्पर-विरोधी बात करते हैं. अमेरिकी रोजगारों  का बाहर जाना अमेरिकी पूंजीवाद के हितों को साधता है, उनके विरुद्ध नहीं जाता. अमेरिकी कारखानों से अगर चीन के लोगों को रोजगार मिलता है, तो इससे अमेरिकी सामान सस्ता भी होता है, जिससे वह विश्व बाजार में दूसरे देशों के माल से प्रतिद्वंद्विता कर पाता है. अगर ये सारे रोजगार अमेरिका लौट जाते हैं, तो स्वयं अमेरिकी पूंजीवाद को धक्का पहुंचेगा. इससे बचने के दो उपाय हैं. एक, अमेरिकी उद्योग ऐसी टेक्नोलॉजी का विकास करें, जिससे माल अच्छा और सस्ता बने. यह एक  मुश्किल काम है, क्योंकि टेक्नोलॉजी अब एक वैश्विक मामला है. दूसरे, अमेरिका उतना ही माल बनाए जितने की अमेरिका के घरेलू बाजार को जरूरत है. यह और भी मुश्किल है, क्योंकि वर्तमान पूंजीवाद वि्यापी लूट-खसोट पर निर्भर है. अब वह इस अवस्था में आ गया है कि वैीकरण के बिना उसका गुजारा नहीं है.  घरेलूकरण और वैीकरण एक-दूसरे के पूरक नहीं, शत्रु हैं.

 ‘अमेरिका फस्र्ट’ का नारा अमेरिकियों को आकषर्क लग सकता है, पर वास्तव में यह एक सारहीन बात है. हम जानते हैं कि प्रत्येक देशवासियों के लिए उनका अपना देश ही फस्र्ट होता है. तीसरी दुनिया के शासकों के लिए यह जरूर कहा जा सकता है कि उनका देश उनके लिए फस्र्ट नहीं है, क्योंकि वे अपने देश का विकास आत्मनिर्भर रहते हुए करना नहीं चाहते. विदेशी गुलामी में वे अपनी मुक्ति खोजते हैं. भारत में जब ‘मेक इन इंडिया’ का नारा दिया गया, तब इसका आशय यह नहीं था कि भारत के लोग अपनी जरूरत की चीजें भारत में ही बनाएं और विदेशी उत्पादों पर निर्भरता त्याग दें. वास्तव में यह विदेशी पूंजी को निमंतण्रथा कि वह भारत आए और यहां अपने उद्योग-धंधे खोले. यह शोषित हो कर विकसित होने की उद्दंड चाह है. भारत में अगर गुलाम मानसिकता न होती, तो वह भी ‘इंडिया फस्र्ट’ की भावना से प्रेरित हो सकता था.

वे उजड्ड हैं जो समझते हैं कि अमेरिका फस्र्ट, जर्मनी फस्र्ट और इंडिया फस्र्ट में सचमुच कोई विरोधाभास है. दो सज्जन पुरु षों के हित कभी आपस में टकरा नहीं सकते. इसी तरह, दो शरीफ राष्ट्रों के हित कभी आपस में नहीं टकरा सकते. जब कोई व्यक्ति या राष्ट्र अतिरेक करता है, तभी वह दूसरों के विरु द्ध काम करने लगता है. लेकिन कुछ समस्याएं ऐसी हो सकती हैं, जो विश्व स्तर की हों. कल अंतरिक्ष के जीवों का कोई समूह धरती पर आक्रमण कर दे, तो पूरे विश्व के लोग मिल कर संघर्ष करेंगे या नहीं? इसी तरह धरती का तापमान एक विस्तरीय समस्या है, जिसका समाधान अंतरराष्ट्रीय सहयोग से ही हो सकता है. लेकिन ट्रंप धरती के धरतीपन से इनकार करते हैं. वे एक अलग-थलग अमेरिका का स्वप्न देखते हैं. अगर यह असंभव नहीं होता, तो मैं इसे एक भयावह स्वप्न कहता.

राजकिशोर
लेखक


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