प्रसंगवश : शिक्षा में तदर्थवाद

Last Updated 22 Jan 2017 05:36:39 AM IST

जिंदगी में ऐसे मुकाम आते रहते हैं, जब राह नहीं दिखती है पर किसी न किसी राह पर चलना आदमी की मजबूरी बनी रहती है.


प्रसंगवश : शिक्षा में तदर्थवाद

जब मुश्किल आती है तो उससे छुटकारा पाने के लिए फौरी तौर पर कुछ कर दिया जाता है ताकि ऐसा लगे कि कुछ किया गया है. किसी मूल चीज की जगह पर कुछ और करना तदर्थवाद है. ऐसा करने से शायद तत्काल सुभीता तो हो जाता है पर उसके दूरगामी कुपरिणाम भी होते हैं. भारत में राजनीतिक हल्कों में तदर्थवाद की परम्परा चल निकली है. विभिन्न पदों पर न केवल कार्यकारी व्यवस्था की जाती है, बल्कि धुर विरोधी पार्टी की  सरकार को बाहर से मुद्दों पर समर्थन दिया जाता है या उनसे मिल कर सरकार भी बनाई जाती है. इस तदर्थवादी नीति का विस्तार अब शिक्षा के क्षेत्र में धड़ल्ले से हो रहा है और वह इस तदर्थवाद का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बन गया है.

आज अध्यापकों की स्थिति अनेक दृष्टियों से चिंतनीय होती जा रही है. अनेक कारणों से विद्या और ज्ञान के नए-नए केंद्र तो खुल रहे हैं, पर उनमें अध्यापकों की संख्या आवश्यकता से बहुत कम होती है. आज दिल्ली विश्वविद्यालय  समेत अनेक  विश्वविद्यालयों में हजारों की संख्या में अध्यापकों के पद रिक्त हैं. उच्च शिक्षा की विभिन्न सस्थाओं में 35 से 40 प्रतिशत अध्यापकों की कमी बनी हुई है. बिहार में बीस लाख स्कूली अध्यापकों के पद रिक्त हैं. वहां पर अध्यापक छात्र अनुपात 1: 56 है. कमी की भरपाई करने के लिए एडहाक या तदर्थ नियुक्ति का सिलसिला चलता है.

तदर्थ नियुक्ति अल्प अवधि के लिए किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक जरूरी व्यवस्था है. पर आज तदर्थ नियुक्त अध्यापकों की संख्या प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय  तक निरंतर बढ़ती जा रही है. कई राज्यों में इसकी स्थिति बड़ी नाजुक बनी हुई है. इन तदर्थ अध्यापकों को कई नामों से पुकारा जाता है और इनकी कई श्रेणियां या प्रकार हैं. इन्हें अतिथि, अस्थाई, तदर्थ, स्वेच्छया, अंशकालिक अध्यापक और शिक्षा-मित्र आदि भी कहा जाता है. इनकी नियुक्ति प्राय: स्थानीय स्तर पर होती है, इसलिए अन्य स्थानों के अभ्यर्थी साक्षात्कार में भाग नहीं ले पाते. शिक्षा की राजनीति ही इनकी नियुक्ति पर हावी रहती है. आचार्य और प्राचार्य गण अपनी पसंद से नियुक्ति करते हैं. अकादमिक के साथ ही गैर अकादमिक कारक भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

तदर्थ अध्यापक अंशकालिक होते हैं और उनकी सेवा स्पष्टत: अस्थायी होती है. इन्हें संविदा (कंट्रैक्ट) पर रखा जाता है और कभी भी सेवा-मुक्त किया जा सकता है. ज्यादातर जगहों पर इन्हें स्थायी अध्यापक की तुलना में सीमित या नगण्य सुविधाएं दी जाती हैं. हां, काम उनसे जरूर ज्यादा कराया जाता है. कई जगह तो वे अपने वरिष्ठ अध्यापकों का काम भी करते हैं. इनके साथ सुविधा यह रहती है कि दिहाड़ी मजदूरी पर रखे जाने के कारण इन्हें नियमित अध्यापक की तुलना में कम वेतन देना पड़ता है. आजीविका के चक्कर में तदार्थ अध्यापक जो कुछ भी मिलता है, उसे संतोष कर स्वीकार कर लेते हैं. उनका सामाजिक समय भी अच्छा बीत जाता है और कुछ भविष्य की आशा भी बंध जाती है. कई प्रदेश सरकारें इनका भार नहीं उठातीं. बिहार में अनेक महाविद्यालय ऐसे चल रहे हैं, जहां बिना कोई वेतन लिए लोग स्वेच्छया अध्यापन की सेवा मात्र इस आशा में दे रहे हैं कि उन्हें अध्यापन अनुभव का प्रमाण पत्र मिल जाएगा.

कार्य-स्थल पर तदर्थ अध्यापकों को हमेशा असुरक्षा का भाव  सताता रहता है. उन्हें काम करने में कम स्वायत्तता और कम स्वतंत्रता रहती है. उनकी प्रेरणा का केंद्र मात्र अपनी नौकरी को बचाए रखना होता है. पर अनेक शिक्षा केंद्रों पर तदर्थ शिक्षक ही शिक्षा और अध्यापन के कर्णधार बने रहते हैं. कई लोग तो दस-दस साल या उससे भी ज्यादा समय से तदर्थ अध्यापक की भूमिका में हैं. कई बार लगता है कि इनकी स्थिति बंधुआ मजदूर जैसी है.

इस बात से सभी सहमत होंगे कि शिक्षा की गुणवत्ता शिक्षक की गुणवत्ता पर ही निर्भर करती है. इक्कीसवीं सदी में भारत में किस तरह का समाज बनेगा, यह शिक्षा की गुणवत्ता पर ही निर्भर करता है. वर्तमान पीढ़ी की शिक्षा में निवेश देश के भविष्य निर्माण में निवेश होता है. सामाजिक विकास के लिए वर्तमान सरकार बहुत कुछ कर रही है. आशा है आने वाले बजट में शिक्षा के लिए अधिक धनराशि की व्यवस्था होगी, जिससे शिक्षा में गुणात्मक सुधार लाने में सहायता मिलेगी.

गिरिश्वर मिश्र
लेखक


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