मीडिया : भीड़ का जादू और मीडिया

Last Updated 22 Jan 2017 05:45:29 AM IST

मीडिया को भीड़ पसंद है और भीड़ को मीडिया पसंद है! इलेक्ट्रानिक मीडिया को भीड़ इसलिए पसंद होती है क्योंकि भीड़ कैमरों को लोमहषर्क दृश्य देती है, वह एक्शन का पर्याय होती है, उसमें ‘स्वत:स्फूर्तता’ होती है.


मीडिया : भीड़ का जादू और मीडिया

यह ‘स्वत:स्फूर्तता’ भीड़ को पूज्य और पवित्र बनाती है. भीड़ को लाइव दिखाना दर्शकों को आश्चर्य से भरना है. भीड़ के आकार में एक तरलता होती है और उसकी शांति धोखे वाली होती है. जिस भीड़ का कोई एक नेता नहीं होता उसमें हर व्यक्ति नेता होता है और जितना वह अपने को ‘बनाती’ है, उससे ज्यादा उसका मीडिया में दृश्यमान होना ‘बनाता’ है. मीडिया के दृश्य उसे बार-बार बनाते हैं, लाइव बनाते हैं. दिन-रात बनाते हैं, इससे भीड़ का दबाव बढ़ता है.

मीडिया इस दबाव को बनाता है और उसके दबाव में आता भी है. इस दबाव को मीडिया सत्ता के बरक्स बनाने लगता है और इस तरह एक हद के बाद न्यूट्रल दिखने की कोशिश करने लगता है. हर भीड़ एक कहानी होती है और प्राय: नाराज कहानी होती है. अगर इसे मीडिया ‘अनक्रिटीकली’ पोसता है, उसकी नाराजगी की कहानी को हवा देता है तो भीड़ का भेजा फिर जाता है. यह आत्म-दर्शन-प्रदर्शन और आत्म-विमर्श का जलवा होता है कि भीड़ से पहले का आदमी भीड़ में शामिल होने के बाद अपने को एक्शन-हीरो से कम नहीं समझता.

जलीकटटू के लिए मरीना बीच पर सोशल मीडिया द्वारा प्रेरित की गई भीड़ के कुछ युवा प्रवक्ता कहते रहे और टीवी के रिपोर्टर भी बताते रहे कि यह सब स्वत: स्फूर्त है इसका कोई नेता नहीं हैं जबकि यह सबसे बड़ा झूठ था, जिसे चैनलों के रिपोर्टरों ने जानबूझकर नहीं पकड़ा. अगर पकड़ते तो भीड़ का जादू उसकी पवित्रता टूट जाती. हर चीज की राजनीति पकड़ने वाला हमारे मीडिया ने इतनी आसानी से भीड़ के कथन पर कैसे यकीन कर लिया? इसका कारण भी भीड़ ही रही. मीडिया मानता है कि भीड़ के प्रति क्रिटीकल होकर भीड़ को कवर नहीं किया जा सकता था. चैनल भीड़ से डरते हैं. मीडिया के लोग सत्य के लिए साहसी नहीं है, भले ही वे नारे लगाते रहें कि ‘सच से कम कुछ भी नहीं’.

प्रिंट मीडिया ने और कुछ टिप्पणीकारों ने बताया कि इस भीड़ में बहुत सारे एनजीओ भी सक्रिय रहे. आखिर इतनी बड़ी भीड़ का खाना-पानी आसमान से नहीं आया होगा. वह स्थानीय दलों से आया होगा या एनजीओज से आया होगा. ऐसे में यह ‘आंदोलन नेतृत्वविहीन था’ ऐसा नहीं माना जा सकता. भीड़ के पीछे वही थे, जो जलीकट्टु की बहाली के पीछे थे. इनको या तो कुछ तमिल दल लाइन देते थे या एनजीओ लाइन देते थे तमिल प्राइड का बार-बार उग्र बखान बिना किसी लाइन के हो गया, ऐसा नहीं माना जा सकता. तीसरे दिन चेन्नई के सारे कॉलेज बंद करने वाले, फिर पूरे तमिलनाडु को बंद करने वाले संगठन स्वत:स्फूर्त नहीं माने जा सकते. कोई तो था जो इनके पीछे था. जो भीड़ थी वह शुरुआत के कुछ पल तक भीड़ रही उसके बाद निदेशित भीड़ बन गई और केंद्र सरकार द्वारा आर्डनेंस क्लीअर करने के बाद तो स्पष्ट हो गया कि बहुत कुछ ऐसा रहा जो आदेशित-निदेशित  रहा.

इस भीड़तंत्र के अपने खतरे हैं. जिस तरह मीडिया और सरकार ने भीड़तंत्र की कोर्निशें बजाईं वह तो और भी डरावनी बात है. यह बात कुछ चैनलों के चरचा कार्यक्रमों को साफ हुई. एक बड़े न्यायविद् ने कहा कि यह सबसे बड़ी अदालत की मान्यता को चोट है. एक एंकर ने कहा कि तब तो सतीप्रथा के लिए या बालविवाह की बहाली के लिए भी भीड़ जुट सकती है और चूंकि आज किसी की भावना की अनदेखी नहीं की जा सकती, इसलिए क्या उनकी मांग को भी मानना होगा? सोशल मीडिया अपने मिजाज से रिग्रेसिव ही हो सकता है क्योंकि इसके लिए आपको आदमी की सबसे पिछड़ी वृत्तियों को सिर्फ पोसना है, पुष्ट करना है. बदलने के लिए बुरा बनना पड़ता है. यथास्थिति को पोसने के लिए सिर्फ ‘परंस्परं प्रशसंति’ से काम चल जाता है.

सोशल मीडिया खुद अपने आप में एक प्रकार के भीड़तंत्र और धक्काशाही से ही काम करता है. ज़रा सी असहमति पर हल्ला बोलने वाले सोशल मीडिया के एक्टिविस्ट अगर समाज चलाएंगे तो सिर्फ एक तहरीर चौक नहीं बनेगा. अपने यहां हर शहर अपने-अपने तहरीर चौक को मजा लेना चाहेगा और एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब सबसे पिछड़े अंधे विचार कल्चर के पर्याय मान लिए जाएं, अस्मिता के पर्याय मान लिए जाए या किसी समाज के प्राइड के पर्याय मान लिए जाएं. भीड़तंत्र जनतंत्र के लिए खतरा है. भीड़तंत्र पर मरने वाला मीडिया जनतंत्र के लिए खतरा है और पिछले दिनों का कवरेज इस खतरे को अच्छी तरह से बताता है.

सुधीश पचौरी
लेखक


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